अनबूझा है नाद का रहस्य
हमारे संगीत की अनमोल निधि के रूप में पं. हृदयनाथ मंगेशकर आदर के पात्र रहे हैं. कल्पना की असीम उड़ान भरते हुए भाव सरगम की ऐसी विलक्षण, उदात्त और मधुर धुनें उन्होंने रची हैं जिसकी दूसरी मिसाल खोजना कठिन है.
'फूल कभी भी अपनी खुश्बू, अपनी खूबसूरती का बखान नहीं करते. अनायास ही उनकी मनोहारी दुनियाहमें उसके निकट ले जाती है. गुलाब, मोगरा, रातरानी... कब किया है इन कुसुमों ने अपना बखान.अपने मौन में मुस्कुराते ये सहज ही अपनी मौजूदगी का महकता संदेश दे जाते हैं. संगीत की सुगंध भी फूलों की मानिंद होती है. जिस सरगम में स्वरगंध होती है, वह सुनने वाले की आत्मा में रच-बस जाता है.'
एक भावुक, गुणी और संवेदनशील संगीतकार ही नाद के इस रहस्य का, उसके सत्य-सौन्दर्य का ऐसा सटीक बखान कर सकता है. हमारे संगीत की अनमोल निधि के रूप में पं. हृदयनाथ मंगेशकर आदर के पात्र रहे हैं. कल्पना की असीम उड़ान भरते हुए भाव सरगम की ऐसी विलक्षण, उदात्त और मधुर धुनें उन्होंने रची हैं जिसकी दूसरी मिसाल खोजना कठिन है.
याद आती है लगभग पन्द्रह बरस पहले भोपाल के रवीन्द्र भवन में सजी उनकी महफिल जब उनकी सुर-सरिता में डूबने-उतराने के बाद भी श्रोता उनके मोहजाल से मुक्त नहीं हो पाए थे. लेकिन हृदयनाथ अपने संगीत के बारे में कोई बना-बनाया तर्क नहीं देते. कहते हैं, 'मैं प्रयोगधर्मी नहीं हूं. प्रयोग तो योजनाबद्ध ढंग से किया जाता है. और मुझसे ये सब बगैर किसी प्रयास के सहज ही हो जाता है. स्वरों की सजावट किसी गीत के साथ कैसे हो जाती है, ये मेरे लिए गूढ़ रहस्य है. इस क्षण का, इस अनुभूति का वर्णन महर्षि वेद व्यास से लेकर खुद मुझ तक, किसी के लिए भी संभव नहीं. अनेक प्रतिभावान कवि-विचारकों ने उस बिन्दु तक जाने का प्रयास किया पर उस परम क्षण की अभिव्यक्ति असंभव रही. जैसे हम ईश्वर के रूप का वर्णन नहीं कर सकते, वैसे ही यह क्षण भी वर्णनातीत है.'
यह भी पढ़ें- दुनिया का पहला संस्कृत बैंड : हम ‘ध्रुवा’ हैं, आए बांटने चैन
मंगेशकर परिवार के इस भाव-पुरुष से मिलने और सवाल करने हर कोई उतावला था. भोपाल में खासकर मराठी संगीतप्रेमियों की खासी भीड़ थी. सुविधानुसार पं. हृदयनाथ ने कुछ लोगों को होटल के कमरे में बुला लिया. बहन लता से लेकर संगीत के दार्शनिक पक्ष तक प्रश्न हुए और सबका सहज समाधान होता रहा. सवाल की शुरुआत मैंने ही की. 'ऐसा माना जाता है कि लताजी के अलावा आपकी गजलों की कंपोजिशन किसी और ने नहीं गाई.' संगीतकार भाई ने स्वीकार करते हुए कहा. 'लता दीदी की आवाज बहुत अच्छी है. दूसरा कोई गा भी लेता पर आवाज़ ऐसी नहीं मिलती. मुझे लगता है, उनकी आवाज में गज़ल के आशय स्पष्ट होते हैं. दीदी को अधिक बताने की जरूरत नहीं पड़ती. फिर वे किसी और गायक की नकल नहीं करती. उनके अपने एक्सप्रेशन्स होते हैं. वो कभी लाउड नहीं होती. गज़ल की तासीर के अनुसार सुर लगाती है.'
बड़ा ही सहज प्रश्न किया एक श्रोता ने. 'जब आप सभी भाई-बहन इकट्ठा होते हैं तो संगीत पर चर्चा तो अवश्य होती होगी.' नहीं होती. पंडितजी ने कहा कि हम घरेलू वार्तालाप करते हैं. बहुत स्वाभाविक था किउनके फिल्म संगीत पर कोई सवाल हो. पांच राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फिल्म 'लेकिन' का जिक्र सहज ही हुआ. एक ने जिज्ञासा प्रकट की कि इस फिल्म के एक गीत 'एक सदी से बैठी हूं' में आपने साज़ों का बहुत कम प्रयोग करते हुए भी उस गीत का संपूर्ण प्रभाव अर्जित किया है. हृदयनाथ ने खुलासा किया. 'आपने देखा होगा, इस गीत को रेगिस्तान में फिल्माया गया है. गाते हुए जो महिला दिखाई गई है, वह पुराने ज़माने की है. वो एक आत्मा है. मैंने जान-बूझकर वाद्यों का कम प्रयोग किया है, क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि शांति का प्रदेश है. फिर लता दीदी की आवाज़ पूरे वातावरण को प्रतिध्वनित कर देती है'.
यह भी पढ़ें- मधुकली का ‘बादल राग’: ‘कैसा छंद बना देती हैं, बरसातें बौछारों वाली’
इसी प्रवाह में याद आया, मीराबाई का भजन 'हरि बिन कैसे जीऊं'. हृदयनाथ बताते हैं कि इस भक्तिपद की संगीत रचना तैयार करते समय मुझे मराठी के संत कवि ज्ञानेश्वर की याद आई. जब वे दुखी होते तो अपनी मां की याद करते. मीराबाई की इस रचना के बारे में चिंतन करते हुए मेरे मन में आया कि जब कोई लड़की प्रेमपाश में पड़ती है तब वो अपने प्रेम के बारे में प्रिय सखी को पहले बताती है. अपने मां-पिता या और किसी से नहीं. मीरा बाई ने अपना दुख अपनी मां से साझा किया. वे चरम व्यथा में मां से कहती हैं. 'हरि बिन कैसे जीऊं'. मैंने पद का भाव समझकर इसकी स्वर रचना में 'माई-माई ओ माई' का प्रयोग किया है. इससे दुख में की गई पुकार और भी उदात्त हो उठी. लता दीदी ने इस भजन में 'माई' के अलग-अलग स्वर आंदोलन किये हैं.'
अब क्या हसरत बाकी है, मंगेशकर मुखर हुए, कहा. 'मैं महत्वाकांक्षी नहीं हूं. एक विचारशील व्यक्ति हूं.मैं साहित्य, कला संगीत में अधिक से अधिक रमना चाहता हूं. संगीत में निमग्न होने के कारण मेरी ज़रूरतों पर स्वतः अंकुश लग गया. बंगला, कार और बैंक बैलेंस सब जिंदगी में समय पर मुझे मिल गये, पर ये ही मेरे अभीष्ट नहीं रहे. भोपाल पहली बार ट्रेन के थर्ड क्लास के डिब्बे में बैठकर आया था. अबकी हवाई जहाज में बैठकर आया हूं. मैं सबमें संतुष्ट हूं.'
जन-जन तक अपने संगीत को पहुंचाने के लिए क्या विचार आता है पंडितजी इसके जवाब में मराठी केशब्द शिल्पी वि.दा. सावरकर का सूत्र खोलते हैं. 'जे जे सफल उदात्त मंगल महन् मंगल ते ते'. यानी जो श्रेष्ठ है, मंगल है, जो उदात्त है, वो अपने आप साधारण जन तक पहुंचेगा. मेरे स्वरों में शक्ति है तो वह ज़रूर श्रोताओं पर प्रभाव डालेगी.
-विनय उपाध्याय
(मीडियाकर्मी, लेखक और कला संपादक)