लग तो रहा है कि भारत, चीन, अफ्रीका जैसे देश खाद्य सुरक्षा और खेती पर विकसित देशों की कूटनीति को समझने लगे हैं. शायद उन्हें समझ आ रहा है कि उनके समाजों की प्राथमिक जरूरत की उपेक्षा करने का मतलब घर में अपनी विश्वसनीयता खो देना है. बहरहाल अब भी असमंजस बरकरार है कि 10-13 दिसंबर 2017 को ब्यूनस आयर्स में होने वाली 11वीं मंत्री वार्ता में कृषि-खाद्य सुरक्षा-लोक भण्डारण विषय पर क्या कोई स्थायी समाधान हो पाएगा? 


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बहरहाल अमेरिका की पूरी कोशिश है कि दोहा विकास चक्र (डब्ल्यूटीओ में विकास के मुद्दों पर वार्ता का वह दौर जो वर्ष 2001 में शुरू हुआ था) में शामिल विषयों को बिना सहमति-बिना निर्णय के ही छोड़ दिया जाए और अब ई-कामर्स सरीखे नए विषयों पर बात शुरू हो. भारत-चीन-अफ्रीका के देश यह मांग कर रहे हैं कि अमेरिका और यूरोपियन संघ खेती के नाम पर एग्री-बिजनेस को दी जाने वाली भारी भरकम राज सहायता को सबसे पहले खत्‍म करें ताकि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दूसरे देशों के उत्पाद और उत्पादक टिक पाएं. 


संतुलन का समीकरण
इसके उलट अमेरिका और यूरोपियन संघ ने ऐसी व्यवस्था बनाई है कि वे विकासशील देशों में किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को कम या खत्‍म करवा लें, ताकि उनके उत्पाद दुनिया के सभी देशों के बाज़ार में पहुंच बना सकें. अब डब्ल्यूटीओ की राजनीति में संतुलन का समीकरण बदल रहा है. दुनिया के कई देश अमेरिका और यूरोपियन संघ के प्रस्तावों से असहमति जता रहे हैं और उनकी मंशा पर सवाल भी उठा रहे हैं. इससे हलकान होकर अमेरिका चाहता है कि कृषि-खाद्य सुरक्षा सब्सिडी पर वार्ता ही न हो, अन्यथा उस पर अपनी घरेलू सब्सिडी कम करने का बहुत दबाव होगा.


संसाधनों पर कब्‍जे की कोशिश
दुनिया के बड़े कॉरपोरेट्स मानते हैं कि व्यापार से संसाधनों पर कब्ज़ा किया जा सकता है और संसाधनों की पूंजी से राजनीति को भी नियंत्रित किया जा सकता है. अतः एक ऐसे व्यापार मंच की ज़रूरत महसूस हुई, जिस पर दुनिया के सभी देशों की सरकारों को लाया जा सके और व्यापार-वाणिज्य की ऐसी व्यवस्थाएं बनवाई जा सकें, जिनसे पूंजीवादी और ताकत संपन्न समूह किसी भी देश में आसानी से घुस सकें, वहां उन पर कोई खास बंधन न हों, भीमकाय कॉर्पोरेशन्स के लिए कम से कम शुल्क और कर हों, ताकि वे बिना रोक-टोक ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सकें.


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यह एक तरह से आर्थिक-वाणिज्यिक-कूटनीतिक मंच बन गया है. इस संगठन की कोशिश रही है कि कृषि और खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में किसानों और नागरिकों को दी जा रही रियायतों (खाद्य सुरक्षा के लिए सब्सिडी) को कम से कम किया जाए ताकि बाजार खुद कीमतें, प्राथमिकताएं और संसाधनों के दोहन की नीतियां तय कर सकें. इसमें चार तरह की बातें महत्वपूर्ण हैं-


पहली- प्रभावशाली और विकसित देश मानते हैं कि भारत कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है, इससे खाद्य सामग्री और कृषि उपज का व्यापार करने वाली भीमकाय कंपनियों को मुनाफा कमाने का कम अवसर मिलता है और कीमतें नियंत्रण में रहती हैं.


दूसरी- भारत सरकार केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य (जो वैसे भी बहुत कम है और किसानों के लिए लाभदायी नहीं है) तय ही नहीं करती है, बल्कि गेहूं, चावल, गन्ना और अब दालों की सरकारी खरीद भी करती है. इससे किसान इन कंपनियों और वैश्विक व्यापारियों के चंगुल से दूर ही रहते हैं.


तीसरी- सरकार कृषि उपज और खाद्यान्न को केवल खरीदती ही नहीं है, बल्कि सस्ती दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये देश के दो तिहाई यानी 82 करोड़ लोगों को वितरित भी करती है. इससे बड़े बाज़ार यानी बड़ी कंपनियों को ग्राहक नहीं मिलते हैं और गरीब लोग कीमतों के शोषण से भी बचे रहते हैं. साथ ही जिन राज्यों में जरूरत के मान से पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन नहीं होता है, उन राज्यों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है.


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चौथी- इस नीति से खेती पर व्यवस्था का कार्यकारी नियंत्रण रहता है, जिससे खेतों में क्या उत्पादन हो, यह तय करने में बड़ी कंपनियों की भूमिका केंद्रीय नहीं हो पा रही है. विश्व व्यापार संगठन में एक बात पर चर्चा चल रही है कि इस तरह की बुरी सब्सिडी (जिसे खुले, निजी और एकाधिकारवादी मुनाफाखोर बाजार को विकृत करने वाली 'रियायत–मार्केट डिसटॉर्टिंग सब्सिडी' के रूप में परिभाषित किया गया है) को कम से कम किया जाए.


इस कमी का मतलब यह है कि सरकार किसी भी स्थिति में सकल कृषि उत्पाद के दस प्रतिशत के बराबर की राशि तक ही सब्सिडी (इसे डि-मिनिस लेवल कहा जाता है) दे. इससे ज्यादा सब्सिडी देने वाले देशों के खिलाफ कार्रवाई की जाए. इस कार्रवाई में उन देशों के साथ व्यापार प्रतिबंध सरीखे कदम उठाए जाएं.


यदि विश्व व्यापार संगठन में इस मुद्दे पर सहमति बन जाती है या सभी देश उस समझौते पर हस्ताक्षर कर देते हैं, तो भारत को किसानों से कृषि उपज खरीदना बहुत कम करना पड़ेगा. सरकार किसानों के हित में न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं बढ़ा सकेगी, क्योंकि इससे सब्सिडी बढ़ेगी. यहां तक कि उसे सब्सिडी कम करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत वितरित किए जा रहे सस्ते खाद्यान्न की कीमत भी बढ़ानी पड़ेगी.


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वास्तव में विकसित देश चाहते हैं कि भारत किसानों से अनाज खरीदना बंद करे और राशन दुकान की व्यवस्था भी हटाए. इसके एवज में वह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के हकधारकों को हर महीने 'निश्चित नकद राशि हस्तांतरित' करे. जिसे लेकर लोग खुले बाजार में जाकर अनाज या अपनी जरूरत का सामान खरीदें.


इस व्यवस्था का सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि लोग नकद राशि का उपयोग गैर-खाद्य जरूरतों के लिए ज्यादा कर सकते हैं. जिसका नकारात्मक असर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ेगा. यह भी तय है कि फिर खाद्य सामग्रियों की कीमतों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह जाएगा. भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को कम करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बंद करने की शुरुआत हो चुकी है.


उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के 25 जुलाई 2017 को लोकसभा में दिए गए वक्तव्य के मुताबिक देश के दो केंद्रशासित प्रदेशों– चंडीगढ़ और पुदुचेरी में राशन की सभी दुकानें बंद कर दी गई हैं. इन दो राज्यों में 8.57 लाख हितग्राहियों को वितरित करने के लिए कुल 91.584 हजार टन खाद्यान्न आवंटित किया जाता था. वर्ष 2017-18 से यह बंद हो गया है, वहां नकद हस्तांतरण किया जा रहा है, ताकि 'नकद राशि' लेकर लोग खुले बाजार से जो चाहें वह सामग्री खरीदें.


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भारत सरकार किसानों से लोक भंडारण (जिसका मकसद सभी को खाद्य सुरक्षा का हक उपलब्ध करवाना, महंगाई को नियंत्रित रखना, किसानों को पूरा संरक्षण प्रदान करना और आपातकालीन स्थितियों के लिए सुरक्षा खाद्य भंडार रखना है) के लिए अनाज खरीदना और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये वितरित करना बंद कर दे, तो भारत में खाद्य सुरक्षा पूरी तरह से कंपनीराज के कब्ज़े में आ जाएगी. जो चाहते हैं कि खेत और लोगों के बीच मुनाफे का बड़ा व्यापार आ जाए, लोग पैकेट बंद और प्रसंस्कृत भोजन का उपभोग करें. इससे ही बाज़ार को फायदा होता है. डब्ल्यूटीओ में लोक भंडारण और कृषि रियायतों पर भले ही समझौता न हुआ हो, किंतु भारत ने तो पूंजीवाद के अनुशासित और उदार सेवक का रूप दिखाते हुए सब्सिडी कम करना शुरू कर ही दिया है.


हाल ही में (13 जुलाई 2017 को) विश्व व्यापार संगठन में भारत ने अपना सब्सिडी खाता जमा करके खुशी-खुशी बताया कि उसने कृषि सब्सिडी की तयशुदा सीमा को नहीं लांघा है. वर्ष 2014 में उर्वरक, सिंचाई और बिजली पर दी जा रही सब्सिडी 22.8 बिलियन डॉलर पर आ गई, जो कि वर्ष 2011 में 29.1 बिलियन डॉलर थी.


इसके साथ ही जो सब्सिडी बाज़ार को नुकसान नहीं पंहुचाती हैं (जिन्हें डब्ल्यूटीओ में ग्रीन बॉक्स सब्सिडी कहा जाता है) उसमें भी बहुत कमी की गई. यह वर्ष 2011 में 24.5 बिलियन डॉलर थी और 2014 में घटाकर 18.3 बिलियन डॉलर पर ला दी गई.


बहरहाल खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण पर सब्सिडी में वृद्धि हुई, यह इन तीन सालों में 13.8 बिलियन डॉलर से बढ़कर 14.4 बिलियन डॉलर हो गई. भारत वर्ष 2014 में कुल 41.1 बिलियन डॉलर की कृषि सब्सिडी दे रहा था. कुल मिलाकर भारत ने प्रसन्नता के साथ व्यापार संगठन को बताया कि हम कुल कृषि उत्पादन के बाज़ार मूल्य के दस प्रतिशत हिस्से से कम सब्सिडी दे रहे हैं.


वर्ष 2014-15 में कुल उर्वरक सब्सिडी 75,067 करोड़ रुपये थी, जो वर्ष 2016-17 में घट कर 70,100 करोड़ रुपये कर दी गई.राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून डब्ल्यूटीओ में चल रहे व्यापारिक समझौतों के निशाने पर है. यह कानून 80.55 करोड़ लोगों की थाली का बड़ा हिस्सा भरने में भूमिका निभाता है. उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2014-15 में भारत में खाद्य सब्सिडी 1.13 लाख करोड़ रुपये थी. उस साल में खाद्य सुरक्षा क़ानून का पूरे देश में क्रियान्वयन शुरू नहीं हुआ था.


वर्ष 2015-16 में जब यह क़ानून विस्तार से लागू हुआ, तब सब्सिडी 1.35 लाख करोड़ रुपये हो गई, किन्तु वर्ष 2016-17 में इसमें भारी कमी की गई और यह 1.05 लाख करोड़ रुपये रह गई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत सरकार ने निर्णय लिया कि भारतीय खाद्य निगम को मिलने वाली सब्सिडी में से 45 हज़ार करोड़ रुपये को क़र्ज़ में बदल दिया जाए. 31 मार्च 2017 को निगम को मिलने वाले 25 हज़ार करोड़ रुपये राष्ट्रीय लघु बचत कोष से लिए गए क़र्ज़ में बदल दिए गए. खाद्य सब्सिडी को खाद्य क़र्ज़े में बदला जा रहा है.


इस सीधे उदाहरण को भी देखिए. वर्ष 2010-11 में डीएपी (डाई अमोनियम फास्फेट) पर 16,268 रुपये प्रति मीट्रिक टन की सब्सिडी थी, जो वर्ष 2015-16 में घटाकर 12,350 रुपये कर दी गई. मोनो अमोनियम फास्फेट पर सब्सिडी 16,219 रुपये प्रति मीट्रिक टन से घटाकर 12,009 रुपये कर दी गई. ट्रिपल सुपर फास्फेट पर सब्सिडी 12,087 रुपये से घटाकर 8,592 रुपये और पोटैशियम क्लोराइड पर 14,692 रुपये से घटाकर 9,300 रुपये कर दी गई. यही बात सिंगल सुपर फास्फेट (4,400 रुपये से 3,173 रुपये) पर भी लागू होती है.


भारत और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों में इतना अंतर उस स्थिति में है, जबकि कृषि रियायत जारी है, जब डब्ल्यूटीओ में किसानों और खाद्य सुरक्षा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को ख़त्म करके, नकद हस्तांतरण के माध्यम से खुले बाज़ार को सब्सिडी दी जाने लगेगी, तब भारत में ये कीमतें और ज्यादा बढ़ती जाएंगी क्योंकि उस स्थिति में खाद्यान्न, दलहन, तिलहन और अन्य कृषि जिंसों की कीमतें तय करने का अधिकार कंपनियों/खुले बाज़ार को होगा; ठीक उसी तरह, जैसे पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें सरकार नहीं बाज़ार तय करता है.


जरा सोचिए कि कुछ देश ऐसे हैं, जहां कौशल की कमी है, उर्जा की उपलब्धता नहीं है, सिंचाई कम है, सूचना प्रौद्योगिकी कमज़ोर है और आर्थिक पूंजी का भी अभाव है और वे पारंपरिक खेती करना चाहते हैं; वे देश अमेरिका या यूरोप या चीन से प्रतिस्पर्धा कैसे करेंगे, जहां ये सब साधन देने में सरकार पहले ही बहुत रियायत और सहायता देती रही है. भारत के किसान के सामने खड़ी चुनौती के उदाहरण देखिए-


भारत में वर्ष 2016 (दूसरी तिमाही) में चने का थोक मूल्य 5599 रुपये प्रति क्विंटल था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमत 5185 रुपये थी. मक्का का भारतीय बाजार मूल्य 1504 रुपये था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मूल्य 1145 रुपये था. मसूर की भारतीय थोक कीमत 6690 रुपये क्विंटल थी, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में यह 6030 रुपये थी. सरसों तेल की भारतीय कीमत 8340 रुपये थी, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमत 5391 रुपये रही. मूंगफली की भारत में कीमत 4176 रुपये प्रति क्विंटल थी, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में यह 2789 रुपये थी. सोयाबीन का भारत में मूल्य 6924 रुपये था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 5438 रुपये था.


स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों में यह अंतर सरकार द्वारा दी जाने वाली रियायत और संरक्षण से प्रभावित होने वाली उत्पादन की लागत के कारण आता है. भारत में अभी विकसित देशों की तुलना में कृषि सब्सिडी बहुत कम है.जरा देखिए कि अमेरिका में वर्ष 2015 में कुल मिलकर 31.80 लाख लोग खेती कर रहे थे. इन्हें अमेरिकी सरकार ने 25000 मिलियन डालर की सब्सिडी दी. यानी एक किसान को औसतन 5.11 लाख रुपये (7860 डालर) की सब्सिडी मिली.


जबकि भारत सरकार ने वर्ष 2014 में 9.02 करोड़ किसानों के लिए सब मिलाकर (शोध, कीट उपचार, प्रशिक्षण, परामर्श सेवाएं, विपणन, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सरकारी खरीदी, सिंचाई, उर्वरक और बिजली) औसतन 27100 रुपये (417 डालर) प्रति कृषक की राज सहायता की है. इसमें से शोध, विपणन इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर खर्च की गई राशि भी जोड़ दी जाए तो किसानों को 456 डालर (कुल 41189.61 मिलियन डालर) की राज सहायता मिली. जबकि ब्रिटेन ने 23.77 लाख रुपये (28300 पाउंड), जापान 9.19 लाख रुपये (14136 डालर), न्यूजीलैंड 1.71 लाख रुपये (2623 डालर) की सब्सिडी दे रहे हैं.


जरा सोचिए कि वर्ष 2015 में ब्रिटेन के किसान की कमाई 2100 पाउंड थी, इसमें सब्सिडी के जरिये 28300 पाउंड जोड़े गए. वर्ष 2011-12 से 2013-14 के बीच भारत ने कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए रियायत में 18918 करोड़ रुपये की कमी की है. ऐसे में बिना राज सहायता के भारत का किसान अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कहां खड़ा होगा?


जब भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के मंच पर जाता है और समझौते करता है, तब उसे इस आर्थिक राजनीति को ध्यान में रखना चाहिए. बड़े औद्योगिक और संसाधन संपन्न देशों को आज अपने उत्पाद को खपाने के लिए बाज़ार चाहिए. यदि हम अपने बाज़ार यूं खोल देंगे तो अन्य देशों की सस्ती सामग्री भारत के बाज़ार को तहस-नहस कर देगी.


भारत के नीति आयोग के रमेश चंद द्वारा एक परचा तैयार किया गया है- किसानों की आय को दुगुना करना (तर्काधार, कार्यनीति, संभावनाएं और कार्ययोजना); इसमें उन्होंने लिखा है कि वर्ष 2005-06 से भारत में जोतदारों की संख्या 16.61 करोड़ से घट कर 14.62 करोड़ हो गई है. भारत में हर रोज़ 6710 जोतें कम हुई हैं. आठ साल में भारत में जोतों की संख्या में 1.99 करोड़ की कमी आ गई. यदि यही क्रम जारी रखा जाए तो वर्ष 2015-16 से वर्ष 2022-23 के बीच देश में 1.96 करोड़ जोतों (13.4 प्रतिशत) की और कमी आ जाएगी. इससे किसानों की आय बढ़ेगी. सरकार का मानना है कि इससे खेती पर ख़र्च होने वाली सब्सिडी में भी कमी आएगी.


(लेखक विकास संवाद के निदेशक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)