WTO में ई-कामर्स: आर्थिक उपनिवेशवाद की नई इबारत
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WTO में ई-कामर्स: आर्थिक उपनिवेशवाद की नई इबारत

विश्व व्यापार संगठन में कोशिश यह है कि दुनिया में कहीं भी ई-कामर्स पर किसी भी तरह के शुल्क न लगें, उपकरण, तकनीक, सॉफ्टवेयर और इंटरनेट के जरिये होने वाले व्यापार को सीमा शुल्कों से मुक्त रखा जाए और स्थानीय कानून की बंदिशें भी न रहें. भारत और अफ्रीका सरीखे देश इन कोशिशों का विरोध कर रहे हैं.

WTO में ई-कामर्स: आर्थिक उपनिवेशवाद की नई इबारत

विश्व व्यापार संगठन में यह विषय वर्ष 1998 में चर्चा की विषय सूची में रखा गया था. तब यह कोई नहीं जानता था कि तकनीक इतनी ताकतवर हो जाएगी कि इसके माध्यम से केवल पांच सूचना तकनीक और ई-कामर्स कंपनियों का आकार एक समय में तीन लाख करोड़ डॉलर (195000 अरब रुपये) का हो जाएगा और एक साल में ये 36 हज़ार अरब रुपये का राजस्व अर्जित करेंगी. इनके पास अब केवल आर्थिक संपदा ही नहीं है, बल्कि आज के समय में जरूरी हो गई सूचना तकनीक और ई-कामर्स के मंच पर भी कब्ज़ा हो गया है. ये कंपनियां आज दुनिया के 100 देशों के बजट से भी ज्यादा की आर्थिक ताकत रखती हैं. इनके उत्पादों का दायरा इतना बड़ा है कि लोगों के राजनीतिक मानस और समझ पर राष्ट्रीय सरकारों से ज्यादा इनका असर है. यह अनायास नहीं है, यह बहुत सोच समझकर किया गया नियंत्रण है.

अब इस विस्तार को व्यवस्था का अंग बनाने की कोशिशें चरम पर हैं. विश्व व्यापार संगठन में कोशिश यह है कि दुनिया में कहीं भी ई-कामर्स पर किसी भी तरह के शुल्क न लगें, उपकरण, तकनीक, सॉफ्टवेयर और इंटरनेट के जरिये होने वाले व्यापार को सीमा शुल्कों से मुक्त रखा जाए और स्थानीय कानून की बंदिशें भी न रहें. भारत और अफ्रीका सरीखे देश इन कोशिशों का विरोध कर रहे हैं. पहले सोना सबसे कीमती होता था. इसके बाद तेल इतना कीमती हुआ कि इसके लिए भयानक युद्ध हुए. हमने शायद यह सोचा नहीं था कि एक वक्त पर आंकड़े/जानकारियां/सूचनाएं तेल सरीखे महंगे हो जाएंगे. हमें कूट-कूटकर समझाया गया कि सूचना तकनीक हमारे विकास के लिए कितनी जरूरी है? इसके बिना हम सभ्य और शिक्षित नहीं हो सकेंगे. फिर सूचना तकनीक और जानकारियों का जबरदस्त गठजोड़ हो गया. आज जब जानकारियों और आंकड़ों की बात होती है, तो स्वाभाविक रूप से इसके साथ इंटरनेट, कम्प्यूटर, फोन और दूरसंचार का पहलू भी साथ में आ ही जाता है.

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विश्व व्यापार संगठन की 10 से 13 दिसंबर 2017 तक ब्यूनस आयर्स (अर्जेंटीना) में होने वाली वैश्विक मंत्री वार्ताओं में 12 देशों के समूह (यूरोपीयन यूनियन, सिंगापुर, पारागुए सरीखे विकसित देश) ने बहुत जोर लगाया है कि ई-कामर्स को चर्चा के केंद्र में रखा जाए और इस पर निर्णायक वार्ता हो. वे चाहते हैं कि डब्ल्यूटीओ के मंच पर ई-कामर्स की व्यवस्था का नियमन हो और सबके लिए एक समान नियम बनें. वहां रणनीतिगत रूप से तकनीक-प्रभुत्व संपन्न देश यह कोशिश कर रहे हैं कि अब ई-कामर्स के जरिये जानकारी/आंकड़ों पर कब्ज़ा जमाया जाए.

आखिर ये जानकारियां हैं क्या? दुनिया की बड़ी कंपनियां अब जानकारियों/आंकड़ों में जबरदस्त तरीके से निवेश कर रही हैं. इससे उन्हें खनिज संसाधनों, पानी, पर्यटन, मानव संसाधन, जमीन, जलवायु, मिट्टी की उर्वरता, समाज की आर्थिक-सामाजिक-राजनीति स्थिति (ताकि निवेश की योजना बनाई जा सके) से लेकर लोगों के रहन-सहन और उपभोग व्यवहार के बारे में जानकारियां मिल जाती हैं. इसके आधार पर वे तय करते हैं कि किस तरह का फायदा कमाया जा सकता है? किस तरह की चुनौतियां होंगी? निवेश करने से लाभ है या नहीं? वास्तव में इससे वे अपना जोखिम बहुत कम कर रहे हैं और अपने निवेश का दायरा बहुत बढ़ा रहे हैं. खुले बाज़ार की नीति में ई-कामर्स पर बहस होना अब नया पड़ाव है क्योंकि इससे ही संपन्न देश के निवेशक अल्प-विकसित और विकाशील देशों में मौजूद संभावनाओं का पता लगाकर तत्काल वहां निवेश करके स्थानीय लोगों के लिए अवसर को खत्म कर देते हैं. इस व्यवस्था में फुटकर व्यापार करने वाले या किसानों के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा. उन्हें किसी डिजिटल योजना का हितग्राही बनाकर रखा जाएगा.

बुनियादी बात यह भी है कि डिजिटल तकनीक के जरिये ई-कामर्स लोगों के सामने किसी भी वस्तु के इतने विकल्प प्रस्तुत करता है, कि व्यक्ति की निर्णय लेने की क्षमता ही खत्म हो जाती है, तब समीक्षा और परामर्श की सेवा भी इसी मंच पर दी जाने लगती है. इसमें हम घुसते हैं और बस घुसते ही जाते हैं.

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विश्व व्यापार संगठन की विषय सूची में पहली बार वर्ष 1998 में आने के बाद इस पर लगभग 17-18 सालों तक ज्यादा ध्यान नहीं गया, पर जुलाई 2016 में अचानक से ई-कामर्स पर वार्ता करने और नए नियम बनाने के लिए सात प्रस्ताव सामने रख दिए गए. इन प्रस्तावों में कई बातें ऐसी थी, जो वर्ष 1998 के प्रस्तावों में शामिल नहीं थी. वास्तव में विकसित देश ई-कामर्स को दुनिया के अन्य देशों के बाज़ारों में प्रवेश करने, वहां संसाधनों का लाभ उठाने और वहां के देशज नियमों-क़ानून से बचने का जरिया बनाना चाहते थे. मसलन जब हम दिल्ली में बैठकर इंटरनेट से एक किताब न्यूयार्क से मंगाते हैं, तब उस पर सीमा शुल्क लगता है और हम उसे चुकाते हैं; किन्तु जब उस पुस्तक की कम्प्यूटर प्रति (पीडीएफ फ़ाइल) खरीदते हैं, तब वह तकनीक के जरिये हम तक आ जाती है, हम उसकी कीमत भी चुकाते हैं पर सरकार को कोई राजस्व नहीं मिलता है. इसी तरह ई-कामर्स के जरिये व्यापार को बढ़ाने के लिए नए एप्स, नए सॉफ्टवेयर, नए उपकरण आ रहे हैं. इन प्रस्तावों में कहा गया है कि ई-कामर्स से संबंधित इन सभी पक्षों को सीमा शुल्क से मुक्त रखा जाना चाहिए.

इसके लिए भारत सरीखे देशों पर दबाव बनाया जा रहा है. तकनीक, सॉफ्टवेयर या कम्प्यूटर उत्पाद दुनिया के किसी भी कोने में भेजा-मंगाया जाए, उसे शुल्क से मुक्त रखा जाए. इससे सरकारों को भारी राजस्व का नुकसान तो होगा ही, साथ ही जब अन्य वस्तुओं का ई-कामर्स के मंच के जरिये व्यापार होगा तब स्थानीय बाज़ार, छोटे उत्पादक, फुटकर व्यापारी, किसान बहुत संकट में आ जाएंगे. संकट यह भी है कि ई-कामर्स के मामले में अब तक यही स्पष्ट नहीं है कि जवाबदेह कौन होगा? मान लीजिए हम अमेज़न से कोई वस्तु खरीदते हैं, और शिकायत का निराकरण नहीं होता है; तब कहां जाएंगे? यदि कोई व्यक्ति अमेरिका से कोई ऐसी वस्तु मंगा लेता है, जो भारत में प्रतिबंधित है, तब किस पर कैसे कार्यवाही होगी?

अमेरिका, जापान, यूरोपियन यूनियन और सिंगापुर सरीखे देश यह मांग कर रहे हैं कि डिजिटल वस्तुओं और सेवाओं को पूरी तरह से शुल्क मुक्त रखा जाए. इसमें किताबें, संगीत, वीडियो, साफ्टवेयर आदि शामिल हैं. यह छूट सभी देशों को बिना किसी भेदभाव के मिलनी चाहिए. इसमें यह सपष्ट नहीं किया जा रहा है कि यदि ई-कामर्स के जरिये अन्य वस्तुओं का व्यापार किया जाता है, तब सीमा शुल्क की क्या स्थिति होगी? सवाल यह भी है कि इससे अफ्रीका या अन्य विकासशील देशों को क्या लाभ होगा, क्योंकि ई-कामर्स और सूचना तकनीक के बाजार पर तो अमेरिका, जापान, चीन, यूरोपियन यूनियन सरीखे देशों का कब्ज़ा है.

भारत और अन्य देशों के पक्ष
भारत मानता है कि डब्ल्यूटीओ में ई-कामर्स को अभी मुख्य वार्ता या निर्णय के लिए नहीं रखा जाना चाहिए. जब दिसम्बर 2015 में नैरोबी में दसवीं मंत्री वार्ता में 53 देशों ने यह सहमति जताई थी कि 201 सूचना तकनीक उत्पादों पर सात वर्षों में सभी तरह के शुल्क खत्म कर दिए जाएंगे. इन उत्पादों की सालाना व्यापार 1.3 लाख करोड़ डॉलर (लगभग 84500 खरब रुपये) के बराबर का होता है. इसके शुल्क मुक्त करने की बात थी. भारत ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था, क्योंकि भारत मानता है कि इस तरह की नीति से अमेरिका, जापान, कोरिया, चीन सरीखे देशों को ही खूब लाभ होगा और विकासशील देशों को नयी गुलामी का सामना करना होगा. यह माना जा रहा है कि वर्ष 2020 में भारत 400 अरब डॉलर के इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का उपभोग कर रहा होगा, इसमें से 300 अरब डालर के उत्पाद अन्य देशों से आयात होंगे. ऐसे में कोशिश है कि देश के भीतर ही इनका उत्पादन बढ़े. भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में संयुक्त सचिव सुधांशु पांडे ने 1 नवंबर 2017 को कहा है कि अभी ई-कामर्स पर वार्ता करने के लिए परिपक्व समय नहीं आया है. वे कहते हैं कि कुछ देश बहुपक्षीय स्तर पर ई-कामर्स के जरिये वैश्विक व्यापार पर समझौता करना चाहते हैं, यह विकासशील देशों के हित में नहीं है. ऐसे में भारत अपने राष्ट्रीय हितों का संरक्षण करेगा. फिक्की का भी मानना है कि अभी इसके लिए तैयारी नहीं है. इसी के दूसरी तरफ अमेरिका, जिसके ई-कामर्स और सूचना तकनीक में बहुत बड़े हित हैं, ने अपने प्रस्ताव (जाब/जीसी/94) में कहा है कि कंपनियां और उपभोक्ता डाटा/जानकारियों को किसी भी तरह से कहीं भी उपयोग करने के स्वतंत्र होने चाहिए. कई देशों ने डाटा/जानकारियों के खुले प्रवाह को रोका हुआ है, इससे व्यापारिक प्रतिस्पर्धा बाधित होती है और डिजिटल व्यापार करने वाले उद्यमियों को नुकसान होता है.

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इस प्रस्ताव के खतरे बहुत गहरे हैं. डिजिटल अर्थव्यवस्था में डाटा-जानकारियां ही मुद्रा है. इसके इस्तेमाल से उत्पादन को बढ़ावा देने का काम भी होता है और किसी भी उत्पाद को चलन से बाहर कर दिए जाने की सौ फीसदी गुंजाइश भी है. मसलन अब जूते या कपड़े की कोई भी डिजाइन एक बार के लिए ही बाज़ार में रुक पा रही है. किस आय वर्ग का, किस क्षेत्र का, किस उम्र का और किस लिंग का व्यक्ति यात्रा पर या बिस्किट पर या फिल्म पर कितना व्यय कर रहा है, यह जानकारियां इकठ्ठा करके कंपनियां नए उत्पाद लेकर उपभोक्ता तक पंहुचती हैं. ये जानकारियां कंपनियां मुफ्त चाहती हैं, पर इस पर खूब मुनाफा भी कमाएंगी. अमेरिका के इस प्रस्ताव में “राजनीतिक-आर्थिक” असुरक्षा की भी गुंजाइश है. यह तय है कि कई देशों की सरकारें अपने नागरिकों की निजी जानकारियां इस तरह के इस्तेमाल के लिए खुले में नहीं रखना चाहेंगी. यह भी आशंका है कि इनसे दुनिया की लगभग पूरी जनसंख्या “निगरानी” के दायरे में आएगी. यह निगरानी व्यक्ति की “स्वतंत्रता” को सीमित करेगी.

विकसित देशों की यह पुरजोर कोशिश है कि इंटरनेट-सूचना तकनीक कंपनियों को अलग अलग देशों में अपने दफ्तर या ढांचे खड़े करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. वास्तव में वे तरंगों और तकनीक के जरिये ही अपने उत्पाद और सेवाएं दुनिया में कहीं भी पहुंचाने के लिए स्वतंत्र होनी चाहिए. इसे क्लाउड कम्प्यूटिंग कहा जाता है, जिसमें सर्वर के उपयोग, सूचना का भण्डारण, डाटाबेस, नेटवर्किंग, कम्प्यूटर के सुधार, किसी वायरस के हमले से सुरक्षा, उपचार, विश्लेषण समेत सूचना उत्पादों मसलन संगीत, वीडियो, वेबसाइट बनाना और उसका रखरखाव आदि सबकुछ बिना व्यक्ति तक या उस देश में जाए इंटरनेट के जरिये उपलब्ध करवाने की व्यवस्था है. यानी गूगल या माइक्रोसाफ्ट के अमेरिका में स्थित दफ्तर से पूरी दुनिया में व्यापार होगा, सेवाएं और वस्तुएं दूसरे देशों में बेंची जाएंगी, अमेरिकी कंपनियों को मुनाफा होगा, पर दूसरे देशों को इसका लाभ अंश मात्र ही मिल पाएगा.

बात यहीं तक सीमित नहीं है, विकसित देश, खासतौर पर अमेरिका चाहता है कि ई-कामर्स की अनुमति देने के लिए सूचना तकनीक-इंटरनेट के व्यापार में तकनीक का हस्तांतरण की बाध्यता नहीं होनी चाहिए, यानी जिसके पास तकनीक है, उसका एकाधिकार बढ़ता जाएगा.

जापान (जाब/जीसी/130) और रूस (जाब/जीसी/131) भी तत्पर हैं ब्यूनस आयर्स में डब्ल्यूटीओ कि 11 वीं मंत्री वार्ता में डाटा/जानकारियों के मुक्त प्रवाह और ई-कामर्स को मुख्य विषय के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. रूस इस पर एक नए समूह के गठन की वकालत भी कर रहा है.  

इसके बाबजूद डब्ल्यूटीओ में आजकल मझोले और छोटे उद्यमों के विकास का मुहावरा चल पड़ा है. अब कहा जा रहा है कि ई-कामर्स से इन्हें फायदा होगा; लेकिन अनुभव बताते हैं कि डब्ल्यूटीओ भीमकाय मुनाफाखोर व्यापारिक संस्थानों के पक्ष में नीति बनवा रहा है. हम कृषि समझौतों से होने वाले असर का सामना कर रहे हैं. चाय, नारियल, काली मिर्च, टमाटर, कपास से लेकर खाद्यान्नों तक इतना गहरा असर हुआ कि सवा तीन लाख लोगों को आत्महत्या का विकल्प चुनना पड़ा. अब सभवतः हम उस दौर में प्रवेश कर रहे हैं, जब सूचना तकनीक के क्षेत्र में रोज़गार और औद्योगिक असुरक्षा का संकट छा सकता है. जिस तरह से उत्पादन की प्रक्रिया के मशीनीकरण की प्रक्रिया चल रही है, उससे रोज़गार के लाखों अवसर कम होंगे और मौजूदा कौशल-क्षमताएं बेकार मान ली जाएंगी.

(निदेशक, विकास संवाद और अशोका फेलो)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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