सुर से आगे निकल जाऊं
किशोरी आमोणकर की तल्लीनता और समर्पण का यह सामर्थ्य यकीनन उनके बुनियादी संस्कार तालीम और तपस्या का ही नतीजा रहा. उनसे मिलना, वाग्देवी की प्रभा से आलोकित होना था. उनके कला स्वाभिमान और ज्ञान-ध्यान से सारी दुनिया परिचित थी.
स्वर के साथ एक अविरल, अंतहीन, अटूट सिलसिला है जो उनकी आत्मा में लयबद्ध होता, उन्हें दिव्य अनुभूतियों के शिखर पर ले जाता. वे राग-स्वरों से रिश्ता बनाती संवेदनाओं की अतल गहराईयों में उतरती. एक अमूर्त यात्रा करती हैं और आनंद के उस परमतत्व की तलाश करती जहां अहंकार और विकार की मलिनता का प्रक्षालन संगीत के पावन स्वरों से होता है. संगीत उनके लिए ईश्वर, रंगशाला एक मंदिर की तरह, जहां वे स्वर की जोत जलाकर विराट को मनुहारती. वे स्वर के साथ आध्यात्मिक उड़ान भरती हैं और इच्छा होती है कि सुर से आगे निकल जाऊं.
हमारे कला समय की विलक्षण गायिका और संगीत विदुषी किशोरी आमोणकर की साधना का सच यही है. 80 के आसपास फैल गई आयु ने भले ही किशोरी की देह को कुछ थका दिया था लेकिन इसी देह के कंठ से झरते राग-स्वर उस अनंत को टेरते जहां पहुंचकर समाधि को अनुभव किया जा सकता है.
मौसिकी से सतही आनंद का रिश्ता जोड़ने वालों को एक फनकार की यह फिहरत और जिद अतिरंजित लग सकती है लेकिन आचरण, अभ्यास और अनुशासन की जमीन पर सांस थामने वाले कलाकार की तल्लीनता ऐसे ही दुर्गम शिखरों के रास्ते नापती है. किशोरी आमोणकर की तल्लीनता और समर्पण का यह सामर्थ्य यकीनन उनके बुनियादी संस्कार तालीम और तपस्या का ही नतीजा रहा. उनसे मिलना, वाग्देवी की प्रभा से आलोकित होना था. उनके कला स्वाभिमान और ज्ञान-ध्यान से सारी दुनिया परिचित थी. स्वाभिमान की हदों से आयोजक भली तरह वाकिफ थे और ज्ञान के उच्च धरातल से संगीत के विद्यार्थी और जिज्ञासु. लेकिन अतिरिक्त मान-पान की ठसक और तमाम पूर्वाग्रहों को किनारा कर किशोरी ताई ने जब भारत भवन (भोपाल) की 'महिमा' श्रृंखला की पहली सभा की शोभा बनने पर हामी भरी तो आयोजकों की बांछें खिल गई थीं. एक मुद्दत बाद भोपाल में किशोरीजी की सुरीली दस्तक से रसिक बिरादरी खुश थी.
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याद आता है कि भारत भवन में पहला प्रवास 1995 में जयपुर घराने पर केंद्रित संगीत समारोह के निमित्त हुआ था जबकि 2007 में इस कलाघर के ही आग्रह पर विशेष रूप से सुबह और शाम की सभाओं में गायन के लिए वे प्रस्तुत हुई थी. एक लंबे अंतराल के बाद 'महिमा' की सभा के लिए वे राजी हुई. शुरू के दो प्रवासों में 'ताई' को साधना आयोजकों के लिए थोड़ा कठिन था लेकिन अबकी दादर (मुंबई) से उड़ान भरते ही वे बेहद तरल-सरल मिजाज थी. तीन दिन रहीं. जब एक शाम का कुछ वक्त बातचीत के लिए मैंने चाहा तो सहस राजी हो गई. होटल जहांनुमा में गुफ्तगू का दौर देर तक चला. संगीत के दार्शनिक पहलुओं से लेकर निजी जीवन के कई पोशीदा घटना-प्रसंगों तक संवाद बहता चला गया.
मसलन यही कि क्रिकेट उन्हें बिलकुल पसंद नहीं लेकिन वे टेबल टेनिस की चेंपियन रही. तेज़ धावक रही. केरम बहुत अच्छा खेलती और कई बार अपनी पोती (तेजस्वी) से बाजी जीत लेती. रसोई में उनका मन खूब रमता. चपाती सुडौल बनें इस बात का ख़ास ख़्याल रखती और सब्ज़ी को कलात्मक ढंग से कांटना उन्हें अच्छा लगता. रंगोली बहुत सुन्दर बनाती. बताती, कि एक बार उन्होंने 'शीरी-फरहाद' की तस्वीर रांगोली पर उकेरी. जब एक फारसी राहगीर ने उसे देखा तो मुग्ध हो गया और उसने अपने गले की माला मुझे भेंट कर दी. बकौल किशोरीजी उन्हें मध्यप्रदेश की चन्देरी कॉटन साडि़यां बेहद पसंद थीं. जयपुरी कोटा भी खरीदती. फेरेनहाइट परफ्यूम की महक से उनका गहरा रिश्ता था. लड्डू का ज़ायका लगभग रोज़ लेती और खुद बनाकर खिलाने में खुश होती. बागवानी का बेहद शौक रहा. वनस्पतियों से इतना लगाव कि उनसे रोज बातें करती.
मुंबई से अन्यत्र प्रवास पर जाने के पहले गमलों-क्यारियों से कहकर विदा लेती. बताती कि एक बार बिना बताए चली गई तो कुछ दिन बाद लौटकर देखा, हरी-भरी बेल सूख गई थी. किशोरीजी रोज सुबह शाम दो घंटे भगवान की पूजा करती. खुद अपने हाथों से सुन्दर माला बनाती और भगवान का संपूर्ण श्रृंगार करती. शोलापुर के राघवेन्द्र स्वामी उनके आध्यात्मिक गुरु रहे, जिन्होंने उन्हें एक रात स्वप्न में दर्शन दिए. गुरु की कृपा को वे सर्वोपरी मानती. पिता का निधन तब हो गया जब वे महज छह साल की थी. मां की छत्र-छाया और उनके कठोर अनुशासन में किशोरी की परवरिश हुई.
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मां श्रीमती मोंगूबाई कुर्डीकर ने अपने गुरु उस्ताद अल्लादिया खां से अपने समय में जो सीखा-संजोया वक्त आने पर अपनी किशोरी बेटी पर उस पूंजी को न्योछावर कर दिया. मां ने कठिन अनुशासन, धीरज और शुद्धता के साथ सुर को बरतने और आत्मसात करने के जो गुरु-मंत्र दिये, किशोरीजी ने पूरी निष्ठा से उन्हें अपनाया. हिन्दुस्तानी संगीत के प्रतिष्ठित जयपुर घराने की शैली से शुरुआती नाता जोड़ा, अपनी मौलिक संकल्पनाओं का सुरीला विन्यास तैयार किया और अपनी गायिकी की सर्वथा निजी शैली का आविष्कार किया. किशोरीजी ने संगीत चिंतन की भी अपनी एक धारा प्रवाहित की. उनकी सृजनात्मक अभिव्यक्तियों और निष्कर्षों को संगीत जगत ने प्रामाणिक तथा उपयोगी माना है.
इन तमाम उपलब्धियों के लिए किशोरीजी को अनेक महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित किया गया जिनमें पद्मविभूषण सहित संगीत नाटक अकादमी पुस्कार, श्रीमंत भारती तीर्थ महास्वामी द्वारा प्रदत्त गान सरस्वती, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का कला शिरोमणि सम्मान, पंडित भीमसेन जोशी स्मृति सम्मान और महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रदत्त महाराष्ट्र गौरव सम्मान ख़ास हैं.
मध्यप्रदेश के संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है कि उन्हें इस राज्य के संस्कृति विभाग ने राष्ट्रीय तानसेन सम्मान से भी अलंकृत किया. भारत के लगभग सभी स्थापित समारोहों के अलावा किशोरीजी पेरिस, अमेरिका, ब्रिटेन, वेल्ज़ियम, स्विट्जरलैण्ड और दुबई सहित दुनिया के अनेक मुल्कों की महफिलों में अपनी अद्वितीय गायिकी से उन्होंने श्रोताओं को मुग्ध किया. उनके गायन की दर्जनों ऑडियो केसेट, सीडी और वीडियो रिकार्डिंग जारी की गई हैं. कुछ फिल्मों में भी उन्होंने पार्श्व गायन किया लेकिन सिनेमा के लिए गाना उन्हें ज्यादा रास नहीं आया.
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ये सच है कि किशोरी आमोणकर ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को हमारे समय में मान-महिमा से मंडित किया है. जयपुर-मतरौली संगीत घराने की परंपरा को अपनी प्रयोगशील गायिकी में महफूज़ रखा. विरासत में मिली बंदिशों को अनेक महफिलों में गाया और अपनी स्वर-रचनाओं से संगीत के अद्भुत संज्ञान का उदाहरण प्रस्तुत किया. किशोरीजी स्वर में आकंठ डूबी एक जीवित किंवंदति थीं. वे स्वर के जरिये अपनी आत्मा के रहस्य को बूझने का जतन करती. उनके लिए स्वर ब्रह्म था. कहतीं कि मैं इसके साथ मूर्त से अमूर्त की यात्रा पर निकल पड़ती हूं. जब तक देह है, तब तक सुर हमारा है लेकिन हमारी मृत्यु के बाद भी वह इस संसार में कायम रहता है. उनका साफ मानना था कि किसी भी विषय से आत्मा की अनुभूति होना ही अध्यात्म है. पूरे समय संगीत के विश्व में विचरण करना मुझे आध्यात्मिक शांति देता है. मैं सुर से परे जाना चाहती हूं. सन्नाटा मेरे जीवन में है ही नहीं क्योंकि सन्नाटे का भी सुर हैं और सुर हमेशा मेरे पास है.
प्रश्नों और जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए किशोरजी ने अपने गहरे अनुभव से अर्जित सच का उजास बिखेरा- मेरे लिए संगीत एक सिक्के की तरह है जिसके दो पहलू हैं. एक है संगीत का कलात्मक पक्ष और दूसरा है संगीत के माध्यम से सत्य की खोज और उसका प्रसार. कहा जाता है कि कला में सच का निवास है जिसका यह अर्थ निकलता है कि कला और सत्य दो भिन्न वस्तुएं हैं या साफ शब्दों में, वे वाकई एक-दूसरे से भिन्न हैं. मेरा स्पष्ट मानना है कि रूप के बिना कला का अस्तित्व संभव नहीं है और रूप चाहे वह किसी भी तरह का हो सीमा-रेखाओं द्वारा निर्धारित होता है. रूप एक ऐसी चीज है जो फौरन दिखाई दे जाती है लेकिन वह किन चीजों से बना है यह मालूम करने में वक्त लगता है. रूप की अन्तर्वस्तु का अध्ययन नितान्त आवश्यक है क्योंकि बिना अन्तर्वस्तु के रूप का अस्तित्व ही संभव नहीं है और अन्तर्वस्तु की गहराई से छानबीन करके ही हम यह जान सकते हैं कि इसके अस्तित्व के कौन से कारण हैं और इसकी आवश्यकता क्या है. अपने विविध मनोभावों, अधिकांशतः अपने सुख और दुःख की असंख्य दशाओं को अभिव्यक्त करने की हमारी आवश्यकता ही इसका कारण है.
संगीत में हमारा गुरु हमें इस कला के अनुशासन की विधिवत शिक्षा देता है, वह हमें सिखाता है कि हम कैसे अपने गायन या वादन को एक सौन्दर्यात्मक रूप दे सकें. उसके मार्गदर्शन और अपनी साधना से हम कला के इस माध्यम पर अधिकार प्राप्त करते हैं.
किशोरीजी ने बताया कि मेरी भी शिक्षा यहीं से शुरू हुई थी और मैं तब से श्रृंगार, करुण, वीर तथा अन्य रसों को अधिक स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त करने के तरीकों की खोज करती रही हूं. लगभग सारा जीवन संगीत सीखने और सुनने के बाद मैंने एक नयी राह खोजना शुरू किया. यह ठीक है कि बुद्धि का अन्य क्षेत्रों की तरह संगीत में भी स्थान है। लेकिन संगीत के क्षेत्र में बुद्धि का कार्य विभिन्न मनोदशाओं की संगीतात्मक अभिव्यक्ति का अध्ययन करना ही है. अपनी इस यात्रा के दौरान मुझे रसों के और संगीत में उनकी अभिव्यक्ति के बारे में एक अधिक साफ दृष्टि प्राप्त हुई.
धीरे-धीरे मैंने यह महसूस किया कि अलग-अलग शब्दों के अर्थ का जोड़ किसी संगीत रचना की रूह का एहसास नहीं करा सकता. दरअसल ये दो चीजें एकदम अलग-अलग हैं. शायद सुगम संगीत में शब्दों के द्वारा एक संगीत रचना की आत्मा सम्प्रेषित की जा सकती है लेकिन शास्त्रीय संगीत में यह सम्प्रेषण केवल स्वरों के द्वारा ही संभव है. इसका कारण यह है कि शब्दों के अर्थ निश्चित हैं जबकि हरेक स्वर का अपना एक विशिष्ट चरित्र होता हैं सामान्यतः हम सरगम में से वह एक स्वर चुनते हैं जो हमारे मनोभावों के अनुरूप होता हैं यह स्वर-विशेष संगीत रचना की रूह का जीव-स्वर होता हैं. इस स्वर के तत्व को स्पष्ट करने के लिए हमें सरगम से कुछ अन्य स्वर भी चुनने पड़ते हैं जो इस जीव-स्वर को पोषित करते हैं और इसे स्वयं को पूरी तरह व्यक्त करने योग्य बनाते हैं. इस तरह हम रसों की असंख्य बारीकियों और उनकी संगीतात्मक अभिव्यक्तियों को खोज सकते हैं. इससे संगीतकार के मन में संगीत के माध्यम से अपने व्यक्तिगत संवेगों को अभिव्यक्त करने की लालसा उत्पन्न होना स्वाभाविक हैं.
ये संवेग अधिक प्रामाणिक और गहरे होते है क्योंकि ये संगीतकार के निजी सुख-दुःख से उत्पन्न होते हैं. और क्योंकि संगीतकार इनमें ज्यादा गहराई से निमग्न होता है, ये सत्य के अधिक निकट होते हैं. इस तरह लीन हो जाना कला के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं. किन्तु यह तभी संभव हो सकता है जब संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाने वाला संवेग संगीतकार को अच्छी तरह से मालूम हो. उदाहरण के लिए राग बागेश्वरी के स्वरों और इसकी लयरचना के अध्ययन से एक करुण मनोदशा का पता चलता है. गुरु इस राग की विभिन्न रचनाओं के अस्थायी और अन्तरा के माध्यम से हमें इस मनोदशा को अभिव्यक्त करने में प्रशिक्षित करता है. इन रचनाओं के शब्द हमें इस मनोदशा के मर्म से तत्काल तादात्म्य स्थापित करने में सहायक होते हैं. साथ ही साथ संगीतकार की भावनात्मक अनुभूति, बिना उसके जाने ही, राग की प्रस्तुति पर, जो उसने अपने गुरू से सीखी है, अपना रंग चढ़ाकर उसे सूक्ष्मरूप से बदल देती है.
उनका मानना था कि राग को गाना है तो उसके पूरे मूड को पकड़िए. उसे अभिव्यक्त करिए. इसके लिए तो कलाकार के आत्म को शुद्ध होना होगा तभी राग अपनी शुद्धता में अपेन वातावरण को व्यक्त कर पाएंगी? कलाकार अच्छा होगा तभी राग की प्रस्तुति अच्छी होगी. कला अच्छी होगी. व्याकरण गाने से राग गाना नहीं हेाता. राग की शुद्धता कलाकार की शुद्धता पर निर्भर हैं. नहीं तो उसे राग और उसका वातावरण दिखेगा कैसे!
देखिए, आदमी एक परिवार में जन्म लेता है, परिवेश के अनुसार बड़ा होता है और फिर उस अनुकूल या प्रतिकूल परिवेश में उसका निजी व्यक्तित्व विकसित होता है. घरानों और उनमें विकसित कलाकारों के विकास की कहानी भी इसी तरह की है. एक कलाकार एक व्यक्तित्व हैं उसके अन्तस में जो है वह उस घराने के परिवेश में बाहर आता है.
(मीडियाकर्मी, लेखक और कला संपादक)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)