दुर्भाग्य से हमारे समय के साहित्य और कला के क्षेत्र में पूर्वाग्रह और अनदेखी का आलम इस कदर व्याप्त हो गया है कि रातों-रात महान बनाने या पुरस्कार-अलंकरणों से नवाज़ने वाली व्यावसायिक फर्मों से फासला बनाने वाले कस्बे के सहज कवि-कलाकारों की टोह लेने की गरज़ भला किसे!
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कला हो या कविता, उसे रचने वाले की अवधारणा, शैली और प्रक्रिया की बारीकियां सतही तौर पर नहीं जानी जा सकतीं. उसके चेतन-अवचेतन में भीतर तक पैठने की दरकार होती है. उस तल तक, जहां से वह उदित होता है. उन तरंगों को महसूस करना होता है जिनके संचरण से वह रचना में प्रवृत्त होता है. दुर्भाग्य से हमारे समय के साहित्य और कला के क्षेत्र में पूर्वाग्रह और अनदेखी का आलम इस कदर व्याप्त हो गया है कि रातों-रात महान बनाने या पुरस्कार-अलंकरणों से नवाज़ने वाली व्यावसायिक फर्मों से फासला बनाने वाले कस्बे के सहज कवि-कलाकारों की टोह लेने की गरज़ भला किसे! लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बहुत सी पारखी आंखें और संवेदनशील मन मौका पाते ही बेमिसाल हुनर के मान और प्रशंसा के लिए अनायास मचल पड़ते हैं.
इस निकष के आसपास आभा भारती की अनूठी रचनाशीलता से रिश्ता बनाना एक आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा का अनोखा रोमांच बन जाता है. स्त्री तो जन्मना सर्जक होती है. आभाजी की यह नैसर्गिक क्षमता ही उन्हें जीवन के सतही धरातल से कल्पना के असीम आकाश तक कल्पना की उड़ानें भरने को उकसाती रही है.
मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड जनपद के मझौले शहर दमोह की रहवासी आभा को एक गैस एजेंसी की कारोबारी उलझनों से दो-चार होते देख यह अंदाज़ा लगाना मुमकिन नहीं कि व्यावसायिक गणितबाज़ी की इस दिमागी कसरत में मसरूफ ये मोहतरमा कुछ देर बाद संवेदना की तरल धार में डूबकर कोई पानीदार कविता सिरजने लगेगी. संभव है कि आसमान में उभरे कजरारे मेघों का बीहड़ देख उनका बावरा मन कैमरे की संगत में किसी सुन्दर तस्वीर का आखेट करने मचल पड़े. यह भी कि आभा अपने ‘कबीर भवन’ के एक कोने में पत्थरों और तिनकों से अचानक नाता जोड़ लें और सत्य, शिव तथा सौन्दर्य की प्रतिष्ठा कर किसी पूजा-प्रार्थना सा पुण्य हासिल कर ले, फिर कहने लगे- ‘‘अहम का अस्तित्व सिमट रहा है... ईश्वरीय प्रसाद, नित नवीन अनुभूतियों का आभास करा रहा है... देखो, मेरा अहम/वहम दूर हो रहा है...’’.
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ये वही आभा भारती हैं जो अपने कैमरे से खींची बादलों की नायाब तस्वीरों के साथ भोपाल स्थित कलाओं के मरकज़ भारत भवन से लेकर शहर-कस्बों के कई अहातों में दस्तक दे चुकी हैं. रज़ा, अमृतलाल वेगड़, रमेशचन्द्र शाह, ज्ञानरंजन और जे.पी. चैकसे से लेकर पाटीदार और भट्टी तक इस वामा के व्योम को निरख-परख चुके हैं. छाया कला में गगनमंडल की इस महिमा का गान करने वाली वे देश की बिरली फोटोग्राफर बन चुकी हैं. लेकिन अपने को अद्धितीयता की इस कोटि में रखने की उन्हें न तो हड़बड़ी है, न महत्वाकांक्षा की बेचैन कर देने वाली तड़प. न ही दिल्ली-मुंबई की कला मंडियों से कोई तार उन्होंने जोड़ रखा है. अब तक कला के जिन गलियारों तक उनकी धड़कन सुनाई दी वह कला के सुजान सूत्रधारों की बदौलत ही संभव हुई. इस ‘धन नाद’ से मुतासिर होने के बाद दमोह की सरज़मीं पर आकर आभा को गले लगाते हुए मशहूर चित्रकार रज़ा ने कहा था- ‘‘ये तस्वीरें तो दुनियाभर में धूम मचा सकती हैं.’’ ... और शुभ की यह कामना जल्दी ही आभा की कला से सारी कायनात का रिश्ता जोड़ेगी जब मुंबई की जहांगीर आर्ट गेलरी की दीवारों पर ये बहुरूपी बादल चस्पा होंगे.
इन छाया चित्रों की खासियत यह है कि इनके साथ कैमरा और कविता दोनों का समान स्पर्श है. यानी कागज़ के एक टुकड़े पर बादल का बिंब और दूसरे पर बादल की कविता. ये रूपक कभी दमोह के आसमान पर, कभी कश्मीर की घाटियों में अठखेलियां करते दिखाई दिए, कभी कन्याकुमारी की अनंत लहरों के पास मोक्ष की कामना से भरे, कभी पांडिचेरी के अथाह समंदर से संवाद करते हुए अतिमानस को उकसाते दिखाई दिए. निराला का शब्द उधार लेकर कहें तो यह एक किस्म का ‘बादल राग’ ही है जिसमें हम अपने भीतर के अनहद को भी सुन सकते हैं.
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प्रकृति को अपनी भुजाओं में भर लेने को सदा आतुर इस मेघ-मुग्धा का सूफियाना बयान हमें उस छोर पर ले जाता है, जहां उनकी अंतश्चेतना में बसे राग को समझा जा सकता है- ‘‘आकाश में मंडराते बादल-दल अनवरत मुझे सिखाते चले गए उड़ना, ठहरना, बरसना, उजास भरना, परहित झरना, बिखरना और फिर उठना नए अध्यवसाय के लिए. बादलों ने मुझसे संवाद कर अपने गूढ़ रहस्य खोले. कभी सखाबन निराशा दूर की, तो कभी कविताओं में बह-बह जीवन दर्शन समझाया और परमानन्द प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया. ...वे अक्षय निधि बन तस्वीरों में सदा रहेंगे मेरे पास’’. लेकिन इस सुथरे कलात्मक छायांकन को देखकर ताज्जुब इस बात का होता है कि रोज-ब-रोज नया चोला पहनकर अवतरित होने वाले मल्टीमीडिया के इस ज़माने में साधारण फिल्म पर ये नायाब तस्वीरें सहेजने वाली आभाजी के हाथों में हमेशा साधारण सेकंड हैंड निकॉन कैमरा (35 एम.एम. 1:2.8) रहा. बकौल उन्हीं के, जू़म लेंस से सज्जित उच्च तकनीकी डिज़ीटल कैमरा मुझे कतई ज़रूरी नहीं लगा. मेरे पास भावों की पवित्र तन्मयता थी. यही स्वान्तः सुखाय का चरम बना.
बहरहाल शब्दों के संसार में कवितत्व भरने और कला की उंगली पकड़कर अभिव्यक्ति का नया क्षितिज खोजने वाली इस प्रौढ़ रचनाकार की सही शिनाख्त उनकी दार्शनिक प्रज्ञा और गहरा जीवनबोध है जो उन्हें सदा ही सवालों के रहस्यों से गुजरकर सत्य के नए प्रकाश की ओर सोत्साह विवश करता है कई खतरों को पारकर सच को तलाशने की यह कसक उनके खून में चली आई है पिता डॉ. महेन्द्र कुमार जैन के ज़रिए.बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि यह वही वरेण्य विभूति हैं जिसे कभी साहित्य की सर्वोच्च संस्था भारतीय ज्ञान पीठ की पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ के संपादन का सुयश मिला था. अपने दिवंगत पिता की यह ‘छुटकी’ आज उनकी विरासत को विश्वास से थाम रही है. दिल्ली के ग्रंथ निकेतन ने उनका कविता संग्रह ‘धरती की धड़कन’ छापा है. लगभग एक सैकड़ा छोटी-बड़ी रचनाओं में आभाजी के दस्तखत पहचाने जा सकते हैं. अपनी परम मौलिकता में उन्होंने जीवन और प्रकृति के रहस्यात्मक सौन्दर्य को हासिल करने का शाब्दिक उपक्रम किया है.
आभाजी कभी कला में तो कभी कविता में करवट लेती हैं. उनकी कसकों को वहीं पहचान सकता है जो धीरज और जतन से उनसे एक रागात्मक और रोमिल रिश्ता बनाने उनके करीब आ सके. आभाजी का सृजन एक योगात्मक यात्रा है.
- विनय उपाध्याय
(मीडियाकर्मी, लेखक और कला संपादक)