मायूसियों में दबी जिन्दगी
मैंने जल्दी से फ्रिज से ठंडी बोतल निकाली, गिलास लेकर आई और कहा सुनो भैया मुझे माफ करना मैंने गलत कह दिया था. भरी दोपहरी में सब्जी मत बेचा करो बिमार पड़ जाओगे.
जब-जब भी किसी दुखी, दीन या गरीब को देखती हूं तो मन उसकी करुणावस्था से विचलित हो जाता है. सोचती हूं इनके लिए कुछ करूं पर घर की व्यस्तताएं और समाज के बंधन के कारण कुछ कर ही नहीं पाती. ऐसा लगता है हर दिन भागा जा रहा है, सुबह से शाम, रात से सुबह होती रहती है. मन की भावनाएं कोमल होते हुए भी कभी-कभी कितनी बेरहम हो जाती हैं, सोचकर भी मन खिन्न हो जाता है. सुबह अखबार में पढ़ा, तोरी बीस रुपये, टमाटर दस रुपये, भिंडी बीस रुपये, करेला दस रुपये हो गई हैं, तो मन बहुत खुश हुआ कि सब्जी के दाम कम हो गए हैं. सोचा छुट्टी वाले दिन मंडी जाएंगे तो सौ रुपये में खूब सारी सब्जियां ले आएंगे इससे पूरे सप्ताह का काम हो जाएगा. अब तो ग्रीष्मावकाश भी हो गए हैं. बेटी के घर दिल्ली जाएंगे तो वहां भी ले चलेंगे. क्योंकि बड़े शहरों में तो सब कुछ महंगा ही होता है. यही सोचकर घर के अन्य कामों में व्यस्त हो गई, थोड़ा थक गई तो नींद आ गई.
भरी दोपहरी में किसी सब्जी बेचने वाले की आवाज सुनाई दी. पहले तो मन हुआ कहूं कि भैया क्यों दोपहरी में नींद खराब करते हो, फिर सोचा शाम के लिए एक सब्जी ले ही लेती हूं. सब्जी वाले को रोककर मैंने पूछा कि, तोरी क्या भाव है तो वो बोला बहिन जी तीस रुपये किलो. मैंने कहा अभी अखबार में पढ़ा बीस रुपये किलो. अरे बहिन जी हमें देखें भरी दोपहरी में पेट की खातिर घर-घर जाकर बेच रहें हैं. आप मंडी जाओगी तो किराया भी तो लगेगा.
उसने तो ये सब बस कह दिया लेकिन मन-मस्तिष्क दोनों को केंद्रित कर जब मैंने उस सब्जी वाले को देखा तो जेठ की दोपहरी में भीषण गर्मी से तप्ती जमीन और उसकी काया को देखकर दिल कांप उठा. उफ! कैसी गर्मी है? परिवार का पेट पालने के लिए ये सब्जी वाला दुबले-पतले शरीर के साथ कैसे मजबूर होकर निकल पड़ा है सब्जी बेचने.
अपने कहे शब्द कि सब्जी सस्ती हो रही है अपने ही मन पर चोट करने लगे, क्या हमारे पांच-सात रुपये कम करने से हम पर कोई फर्क पड़ जाएगा? ये दीन-हीन सब्जी वाला भरी दोपहरी में घर-घर जाकर हमारी आवश्यकताएं पूरी कर रहा है और हम दो चार रुपये का हिसाब लगाते रहते हैं. कितना दयनीय होगा इसका जीवन, कैसे परिवार का पालन करता होगा. उसकी गरीबी के एहसास से मन पिघलने लगा. सब्जी वाले ने दाम कम लगाए पर मैंने कहा भैया पूरे ही पैसे लो. वो चुप हो गया पर मेरा मन अभी भी आत्मग्लानि से भरा हुआ था.
'दिव्यांगों को प्रेम और समय दें'
मैंने जल्दी से फ्रिज से ठंडी बोतल निकाली, गिलास लेकर आई और कहा सुनो भैया मुझे माफ करना मैंने गलत कह दिया था. भरी दोपहरी में सब्जी मत बेचा करो बिमार पड़ जाओगे. सुबह शाम आया करो. मैंने उसे ठंडा शरबत गिलास में उड़ेलकर देने लगी. उसके लिए गर्मी का एहसास हर घूंट के साथ कम हो रहा था. उसने दो गिलास शरबत पिया. इसे देख मुझे बहुत संतोष हुआ.
क्यों हम इन गरीबों से ही मोल भाव करते हैं? क्यों रिक्शेवालों, सब्जी वालों व अन्य वस्तुएं बेचने वालों को ही पैसे कम करने को मजबूर करते हैं? समर्थ डॉक्टर को तो कुछ नहीं कहते. पार्लर वाले मनमाना पैसा लेते हैं. होटलों में दिल खोलकर खर्च करते हैं. फिर इन गरीबों के साथ ही हम ऐसा क्यों करते हैं. हमारे आपके जीवन में कई बातें ऐसी हो जाती हैं जो हमें झकझोर देती हैं. हमें चाहिए हम इनकी पुनरावृत्ति ना करें. इन दीन-हीन लोगों को कुछ दें या ना दें पर अपने शब्दों से इन्हें कष्ट ना पहुंचाएं.
महिला... शब्द भी जिसकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकते
चारों तरफ निगाहें डालें तो असंख्य कारों, गाड़ियों, स्कूटरों पर लोग दौड़ते दिखाई देंगे, लेकिन गरीबी की मार से पीड़ित किसी गरीब की मदद करने कोई विरला ही दिखाई देता है. अमीरों की थाली में भेाजन बचा रहता है गरीबों को निवाला भी नहीं मिलता. गरीबों के प्रति उपेक्षा के भाव प्रबुद्ध वर्ग में भी दिखाई देते हैं. अनेको अवसर पर सभ्य लोग भी गरीबों का अपमान करते दिख जातें हैं. आज समय बदला है, जीवन शैली बदली है, पैसा लोगों की जेब में आया है, पर गरीबी आज भी कम नहीं हुई है.
माता-पिता के कांपते हाथों को ठुकराएं नहीं, उन्हें थामें
कमजोर वर्ग के जीवन में सुधार के लिए क्या कोई आगे नहीं आएगा? दिन-रात मेहनत करके भी ये गरीब ही क्यों रह जाते हैं. समाज की बाहें इन्हें थामने आगे क्यों नहीं आतीं? भारत एक विकासशील देश है इस देश में गरीबी उन्मूलन के प्रयास कम ही दिखाई देते हैं. अखबारों की सुर्खियों में विश्व के शीर्षस्थ व्यक्तियों के नाम और किस्से ही छपते हैं. किसी गरीब की खबर पर कोई ध्यान नहीं देता. क्यों इतनी दूरी है अमीरी और गरीबी में? ये दायरा इतना संकीर्ण क्यों है? क्या ये इसी देश का हिस्सा नहीं? क्या गरीबों का जीवन गुमनामियों के अंधेरों में ही खो जाएगा? क्या ये तिल-तिल पिसकर मजबूरी भरा जीवन जीते रहेंगे? क्या इनकी विवशताएं इन्हें हमेशा ही कमजोर बनाए रखेंगी? और क्या हम-आप इस महंगे-सस्ते के चक्रव्यूह में ही फंसे रहेंगे.
(रेखा गर्ग सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)