माता-पिता के कांपते हाथों को ठुकराएं नहीं, उन्हें थामें
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माता-पिता के कांपते हाथों को ठुकराएं नहीं, उन्हें थामें

थाम लें उन कोमल, निरीह, कांपते हाथों को जिन्होंने तुम्हारे हौसलों को उड़ानें दी हैं, जिन्होंने तुम्हारी जिंदगी को दिशा दी है. अपने समय को भरपूर जी लेने वाले उन दीन-हीन माता-पिता की संतान कहलाने वाले, वक्त के हाथों मजबूर होते उन कमजोर माता-पिता के भाग्य की लकीरें बन जाओ.

माता-पिता के कांपते हाथों को ठुकराएं नहीं, उन्हें थामें

थाम लें उन कोमल, निरीह, कांपते हाथों को जिन्होंने तुम्हारे हौसलों को उड़ानें दी हैं, जिन्होंने तुम्हारी जिंदगी को दिशा दी है. अपने समय को भरपूर जी लेने वाले उन दीन-हीन माता-पिता की संतान कहलाने वाले, वक्त के हाथों मजबूर होते उन कमजोर माता-पिता के भाग्य की लकीरें बन जाओ, संरक्षण पाने वाले उनके संरक्षक बन जाओ. बन जाओ उनके माता-पिता जिनका अस्तित्व आज एक नन्हें शिशु के समान हो गया है. नन्हा कोमल शिशु सा ही तो बन गया है ये वृद्ध शरीर वृद्धावस्था में. फिर वहां कैसा अंहकार, कैसा टकराव. उनकी जिंदगी के उतरते बहाव में खुद को डूबो दें बन जाएं उनका सहारा जो स्वयं को वृद्ध होने पर बेसहारा मानने को मजबूर है. क्या नन्हा शिशु दुखी नहीं करता, क्या वह हर क्षण काम में नहीं उलझाए रहता, क्या वह अपनी फरमाइशों से हमें विचलित नहीं करता, क्या वो अपनी बातों से हमें दुविधा में नहीं डालता, तो ये वृद्ध ही क्यों उपेक्षा के पात्र हैं, जिन्होंने हर अवस्था में हमें संभाला है. आज ये बेबस है तो कैसे इनके प्रति उदासीन हो जाएं.

विभिन्न बिमारियों से ग्रसित होते, शरीर से कमजोर वृद्ध माता-पिता का सहारा बनते हुए हम यह क्यों नहीं सोचते कि कभी ये ही हमारा सहारा थे. इनके नाम से ही आज हमारा नाम है, अस्तित्व है. इनके होने से हमारा वजूद है आज हम इनसे बीते पलों का हिसाब करें तो स्वयं को कर्जदार ही पाएंगे. हमारे जीवन पर इनके असंख्य उपकार हैं. क्या नन्हा शिशु अपना अस्तित्व माता-पिता के बिना बचाकर रख सकता है? नन्हीं-नन्हीं हमारी उगंलियां थामें जिन मां-बाप की वजह से हमने ऊंचे ओहदे पाए हैं, उन्हें पाकर भी क्यों हम इनके कांपते हाथों को नहीं थाम पा रहे हैं.

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हमारी तुतलाती जुबां को शब्द इन्हीं से मिले हैं. आज इनकी बातों से घायल होने वालो को ये जान लेना चाहिए कि हमारे शब्दों को वजन इन्होंने ही दिया है. ये न होते तो हम न होते. मुझे आज भी याद है-काफी पुराना किस्सा है हमारे पड़ोस में एक परिवार था एक बार उनके बेटे की तबीयत काफी खराब हुई. मां ने बच्चे को बचाने की खातिर दिन-रात एक कर दिया, सारी-सारी रात जागी किसी प्रकार की छूत को नहीं माना. भगवान से रात-दिन दुआएं मांगी. डॉक्टर के बताए हर वाक्य को पत्थर की लकीर मान अपनी संतान की सेवा करती रही. लेकिन आज जब वक्त पलटा और वो मां बीमार हुई तो बेटा बात-बात पर कहता है अम्मा तुम्हें तो कुछ न कुछ लगा ही रहता है. बुढ़ापा है तो बिमारियां तो होंगी ही ना. सारा दिन बिमारी की ही रट लगाए रहती हो.

वृद्ध मां-बाप बीमारी और बुढ़ापे से वैसे ही मर रहें है अपने शब्दों के बाणों से उन्हें मत मारो. मां-बाप भी तो संतान के लिए अपने शौक खत्म कर देते हैं तो क्या उनकी वृद्धावस्था में हम अपनी कुछ जरूरतें खत्म करके उनकी जिंदगी खुशहाल नहीं बना सकते. क्या इस अवस्था में हम माता-पिता के रोल में आते हुए उनके संरक्षक नहीं बन सकते. जरूरत है स्वच्छ मानसिकता की. बूढ़े मां-बाप बेबस हैं, लाचार हैं, झल्लाते हैं, चीखते हैं, कसमसाते हैं, क्योंकि जिंदगी की डोर उनके कमजोर हाथों से छूटती जा रही है.

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हम उन्हें अपनी बाहों में नही भरते उन्हें लाड़ नहीं करते उनसे हंसी-मजाक नहीं करते क्योंकि हम उनसे प्यार करना भूल जाते हैं. लेकिन उन्हें करुणा की दृष्टि से तो देख ही सकते हैं. उनसे दो मीठे बोल तो बोल ही सकते हैं उदासीन जीवन को कुछ वक्त, कुछ पल देकर उनकी समय काटने में मदद तो कर ही सकते हैं. जीवन की संध्या बेला में उन्हें सामीप्य दे सकते हैं. यदि वृद्ध कटु बोलते है, लड़ते हैं, बहस करते हैं तो उनके उन शब्दों को दिल से न लगाएं. बचपन में हमने कितनी गल्तियां की होगी उन्होंने भी तो नजरअंजाद किया और प्यार से समझाया.

क्या जिंदगी की डूबती नौका को संभालने के लिए हम इन पलों में उनकी पतवार नहीं बन सकते. माना कि हम व्यस्त हैं हमें मां-बाप का ढंग अब पसंद नहीं, उनका रवैया हमें भाता नहीं लेकिन क्या ये वही मां-बाप नहीं जिन्होंने जिनके नाम से आज हमारी पहचान है. आज हम इनसे पल-पल गुजरती जिंदगी का हिसाब किताब चाहते हैं. क्या हम यह नहीं जानते कि आज हमारे माता-पिता वृद्ध है और कल हम भी इसी अवस्था से गुजरेंगे. जिंदगी की ढलती छांव में हम अपने माता-पिता की अहमियत को कम क्यों आंकते हैं. 

क्यों संसार के चक्र में हस्तक्षेप करते हुए हम उनकी मौत का इंतजार करते हैं. कैसे अपने वृद्ध मां-बाप की सेवा करने से कतराते हैं. गुजरे पलो की विभिन्न बातों को कैसे भूल जाते हैं? एक-एक निवाला खुश होकर खिलाने वाले वृद्ध माता-पिता को खाना न देने की दुष्टता हम कैसे कर सकते हैं. हमारे सिर पर वृद्ध माता-पिता का हाथ होना हमारी अमूल्य संपत्ति है. हमारी जिंदगी के सुखद अहसास हैं. उन कांपते हाथों को मजबूती से थाम कर तो देखिए कैसे आपकी जिंदगी रोशन होती है. कैसे खुशियां ही खुशियां आपके जीवन में दस्तक देती हैं.

कभी झांकिए बूढ़े मां-बाप की आंखों में जिनमें अपनी संतान के प्रति मोह दिखाई देगा. गुजरते एक-एक पल में बच्चों का ही ज्रिक होगा. उन बच्चों का जो इन्हें अपनी जिंदगी में अहमियत नहीं देते. बुढ़ापा खुद अपने में दुःखों का कारण है. इन्हें उपेक्षित कर इनके दुःखों को मत बढ़ाओ. बूढ़े होते मां-बाप के बच्चे न रहकर उनके माता-पिता बन जाओ इनकी जिम्मेदारी भी तुम्हारी है. फिर से थाम लो मां-बाप की जिम्मेदारी ये नन्हे जीव हैं जिन्हे सशक्त हाथों की मुस्कराते अधरों की व मधुर वाणी की जरूरत है. अपने बच्चों की जिम्मेदारी हम जितने उत्साह से निभाते हैं, उतने ही उत्साह से वृद्ध माता-पिता का भी ध्यान रखें तो उनका जीवन भी खुशियों से भर जाएगा. इनकी हर सांस में बच्चों के लिए आशीर्वाद है. अपने जीवन को इन्हीं आशीर्वादों से भर लें.

(रेखा गर्ग सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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