परंपरा कहती है कि लोकगीत हृदय से फूटा, कंठ से निकला और अधरों से छलकता आदिम राग है जिसमें जीवन की हर धड़कन को सुना जा सकता है. लेकिन मनोरंजन के मायावी बाज़ार में जब मिलावटी संगीत बिकाऊ माल बनता जा रहा हो, तब आत्मा की गहराइयों में आनंद की हिलोर जगाने वाले परंपरा के देसी-संगीत की मटियारी महक को महफूज़ रखना किसी चुनौती से कम नहीं. कुछ आवाज़ें इसी नाउम्मीदी के बीच अपनी कोशिशों का हाथ थामें अवाम के बीच जाती हैं और उम्मीद का अमृत छलका देती हैं.


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अवध की मिट्टी-पानी और हवाओं की कोख से निकलकर जीवन के आंसुओं और मुस्कानों को जुबान देने वाले सैकड़ों गीत जब एक स्त्री के कंठ का गहना बन जाते हैं तो आशंकाओं का अंधेरा काफूर हो जाता है. विरासत अपने भविष्य पर मुस्कुरा उठती है कि उसने अपना सच्चा उत्तराधिकारी हासिल कर लिया है. मालिनी अवस्थी एक ऐसी ही सुरीली आश्वस्ति के साथ अपनी धरती के छंद गुनगुना रही हैं.
 
कभी किसी सभागार की चार-दीवारी में, कभी आसमान तले भीड़ भरे जलसे के मंच पर, कभी दूरदर्शन के किसी चैनल पर, तो कभी अपनों के बीच किसी छोटी महफिल में. आवाज़ और अंदाज़ के निरालेपन के बीच मालिनी की पेशकश यकीनन सुनने वालों पर करिश्माई असर करती है. बोली की मिठास, मन के अहसास, धुनों का सरल-तरल मिजाज़ जब लय-ताल के सुन्दर ताने-बाने के बीच मालिनी के अंतरंग में उतरता है तो वह हमारी तहज़ीब की आवाज़ बन जाती है.आवाज़ का यह असर अब सरहदों के फासले पूरता देश-दुनिया में फैल रहा है. शोहरत और ईनाम अब मालिनी की कलाकार शख्सियत के साथ हो लिए हैं. पद्मश्री की उपाधि और अलंकरण ने इस गायिका के हुनर और कोशिशों के साथ अवध के लोक संगीत की थाती का मान बढ़ाया है.


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लखनऊ में जन्मीं मालिनी का संगीत के प्रति लड़कपन से ही रुझान रहा. इसी आग्रह के चलते उन्होंने भारतखंडे संगीत विश्वविद्यालय (लखनऊ) से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की. गायिकी में निखार और व्यवहारिक पहलुओं के मार्गदर्शन के लिए मूर्धन्य गायिका गिरिजा देवी की शागिर्द बनीं. तालीम और अभ्यास की पूंजी लेकर मालिनी ने जब सार्वजनिक सभाओं में दस्तक दी तो उनकी मीठी-मदिर और ठेठ मिट्टी की सौंधी गंध से महकती गायिकी ने हज़ारों श्रोताओं को उनका मुरीद बना लिया. भारत के अनेक लोक उत्सवों और कुंभ-मेलों के आमंत्रण मिले. एन.डी.टी.सी इमेजिन रियलिटी शो ‘जुनून’ के जरिए मालिनीजी की गायिकी का ठेठ पारंपरिक अंदाज सरहद पार के मुल्कों को भी रास आया.
 
मालिनी का मानना है कि हमें पुरखों से मिली इस अमृतधारा को प्रदूषित होने से बचाना है. लोकगीतों का दरिया बहता रहे, इसकी हिफाज़त के फर्ज़ को अदा करने का काम हम कलाकारों का है. हमें इस अनमोल सौगात पर गर्व करना चाहिए. कहती हैं कि श्रुति और स्मृति की परंपरा के साथ ये गीत सदियों का रास्ता पार करते पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक पहुंचे हैं. ये गीत हमारी संस्कृति के जागरूक पहरेदार हैं. ज़िंदगी की भूली-बिसरी तस्वीरों, यादों-बातों, किस्सों-कहानियों और संस्कारों की रोशनी में जगमगाते हमारे सच्चे और खरे अनुभवों का दस्तावेज़ हैं. शायद ही कोई बिरादरी हो, जहां लोकगीतों का चलन न हो, क्योंकि इनके बिना मन का आंगन सूना है.


लोकगायिका मालिनी अवस्थी को पद्मश्री मिल चुका है (फाइल फोटो)


मालिनी के लिए यह सब कोरा ज्ञान नहीं है. वे श्रोताओं के बीच अपनी प्रस्तुति के दौरान इन सब पहलुओं का खुलासा करती चलती हैं. सोहर हो, गारी हो, चैती-दादरा, ब्याह के गीत हों या भक्ति संगीत, वे हर प्रस्तुति के पहले गीत की विषय-वस्तु और उसके कला पक्ष के संदर्भ बताती हैं. इस तरह मंच और सुनने वालों के गीच एक अनुरागी रिश्ता तैयार होता है. यानी मालिनी की पेशकश का अपना अनूठा मुहावरा है.


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अभी हाल ही उज्जैन के शिक्षा घाट पर म.प्र. संस्कृति विभाग की सिंहस्थ ‘अनुगूंज’ श्रृंखला के तहत मालिनी आमंत्रित थीं. शिवभूमि पर गाना उनके लिए सौभाग्य ही था. एक लोकगायिका के रूप में अपनी पहचान और प्रसिद्धि पर स्वाभाविक ही वे खुश हैं, लेकिन अपने शुरुआती दौर को शिद्दत से याद करती हैं जब करीब बारह बरस पहले मध्यप्रदेश के संस्कृति महकमे की आदिवासी लोककला परिषद ने खंडवा में आयोजित ‘श्रुति’ समारोह में गाने का अवसर दिया.भारत की लोकगायिकी पर एकाग्र इस समारोह में मशहूर पंडवानी गायिका तीनबाई, पंजाबी गायिका गुरमीत बावा भी आमंत्रित थीं. इस मंच को साझा करना मालिनी के लिए उन दिनों बेहद फ़क्र की बात थी.
 
उन्हें इस बात की प्रसन्नता है कि तमाम विधाओं के बीच लोक संगीत की अनदेखी नहीं हुई. 'यह भारत की श्रुति परंपरा का सम्मान है. मैं तो बस, उसकी नुमाइंदगी कर रही हूं.'


(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)