विनम्र श्रद्धांजलि : गिरिजा देवी, काशी की कंठ माधुरी पर हर कोई था निहाल
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विनम्र श्रद्धांजलि : गिरिजा देवी, काशी की कंठ माधुरी पर हर कोई था निहाल

बनारस के गैल-गलियारों, हवेलियों और मंदिरों से लेकर सीमा पार के मुल्कों की महफिलों तक गिरिजा देवी अपनी निराली तान का तिलिस्म जगा चुकी थीं. मान और शान अपने उत्कर्ष का चरम छू चुके थे लेकिन इन सबके वज़न से उनकी सहजता झुकी नहीं.

विनम्र श्रद्धांजलि : गिरिजा देवी, काशी की कंठ माधुरी पर हर कोई था निहाल

गिरिजा देवी का महाप्रयाण एक ऐसी विदुषी का विलोप है, जिसकी हर सांस में सप्तक बजता रहा. "अप्पा" के आत्मीय संबोधन के साथ अपनों पर न्योछावर होने वाली बनारस की इस बेमिसाल बुजुर्ग का जाना हिन्दुस्तानी संगीत के एक मर्यादित स्वर का मंद हो जाना है... बहरहाल, उनसे मिलना और संवाद में होना सदा ही मेरे लिए एक प्रीतिकर अनुभव रहा. भोपाल के भारत भवन सहित उनकी कई संगीत सभाओं का संचालन करने और उन्हें मंच पर आमंत्रित करने का सौभाग्य मिला. ग्रीन रूम से लेकर होटल के कमरे तक जहां भी समय और सुविधा ने साथ दिया, बतरस का भरपूर आनंद लिया. भोपाल के अंतिम प्रवास में भी यही तबीयत तारी रही. यादों-बातों के सिलसिले ने फिर गुजश्ता वक्त के पन्ने पलटना शुरू किया....

सच्चे सुरों की कसौटी यही है कि वे आत्मा के आसन पर देवता की तरह बिराजें. भारत भवन की अंतरंग शाला उस दिन ब्रह्मनाद के ऐसे ही मंदिर में बदल गई थी. विराट को पुकार लगाने जैसे साक्षात सरस्वती प्रकट हुईं. बावरी बयार की हिलोर ने जो पुलकन जगाई उसे ‘यमन कल्याण’ की प्रेम-पगी बंदिश ने अनुरागी श्रोताओं के गाढ़े-गहरे अहसासों पर आसक्ति की मोहर लगाई. श्रृंगार की कोख से फूटा ‘न जानू कैसी प्रीत’ और ‘मद के भरे तोरे नैन’ और इन छंदों से अठखेलियां करता स्वर भक्ति की भैरवी- ‘हरि तुम काहे प्रीत लगाई’ पर जाकर थमा. निहाल हुई रसिक बिरादरी. काशी की कंठ माधुरी से झरता राग रस का यह सम्मोहन इस मायने में अनोखा था कि इसके साथ तपस्या के ताप में निखरे सुरों की आभा थी. अपनापे की प्रभा थी. ...और इस महिमा को अपने गान-व्यक्तित्व में धारण किए आंखों के सामने थी गंगा किनारे की गिरिजा. हमारे संगीत की किंवदंति. साधना, संयम और संस्कार को अपने कला जीवन की थाती मानकर सुकीर्ति के शिखर तय करने वाली नाद की नायिका. उम्र का आंकड़ा चैरासी को भले ही छू रहा था मगर छलछलाती उमंगों की छापों को उनके चेहरे की भाव- भंगिमाओं में साफ पढ़ा जा सकता था. बनारस के गैल-गलियारों, हवेलियों और मंदिरों से लेकर सीमा पार के मुल्कों की महफिलों तक गिरिजा देवी अपनी निराली तान का तिलिस्म जगा चुकी थीं. मान और शान अपने उत्कर्ष का चरम छू चुके थे लेकिन इन सबके वज़न से उनकी सहजता झुकी नहीं. वे दंभ की दूरियां पाटती एक निश्छल मातृत्वबोध की ममता और प्रेम का प्रसाद लिए प्रकट होतीं. बहुतपीछे छूट गए वक्त की दुश्वारियों के सबक याद करतीं, तो कभी बातों ही बातों में उन खुश्बूओं से भी तरबतर होतीं जो उनकी खामोशियों को अनायास महका देतीं...
 
छोर पकड़ा लड़कपन से. कुछ ओझल, कुछ उजले पहलुओं का जिक्र छिड़ा. याद आया कि पिता मुगलसराय (उत्तरप्रदेश) के पुश्तैनी गांव को छोड़कर चक सोहदवार होते हुए बनारस आए.

'वहां मेरा (गिरिजा का) जन्म हुआ. पिता जी को संगीत में बहुत दिलचस्पी थी. वे ज़मीदारों के यहां गाने-बजाने जाते थे. मेरे कान में भी यह सुर-संगीत पड़ता था. एक दिन मेरे कंठ में भी समा गया. पिता को सहज ही खुशी हुई. मेरी संभावना को उन्होंने पहचान लिया. उस समय के संगीत मनीषी पंडित सरयू प्रसाद को मेरी तालीम के लिए निवेदन किया. इस बीच पिताजी को बनारस छोड़ना पड़ा लेकिन मुझे वहीं बसा दिया. गुरु-दीक्षा के साथ बनारस के मंदिरों में होने वाले बड़े कलाकारों के गायन-वादन को सुनकर मेरा मन संगीत के नए सबक अर्जित करने लगा. विश्वनाथ मंदिरऔर संकट मोचन मंदिर मेरे लिए संगीत के तीर्थ साबित हुए. वहीं मैंने एक दिन सिद्धेश्वरी देवी को गाते हुए सुना. मेरा मन दूसरी किताबें पढ़ने में नहीं लगता था. रात-दिन संगीत में ही रमी रहती. जैसे-तैसे मैंने दसवीं का दर्ज़ा पास किया.'

गिरिजा जी से शादी और उसके बाद का सवाल किया...

बताया कि सत्रह साल की उम्र में हाथ पीले हो गए. क्षत्रिय कुल की इस कन्या का विवाह जैन परिवार में हुआ. पति के रूप में मिले मधुसूदन जैन. वे उर्दू के गहरे जानकार थे. साहित्य के साथ संगीत के प्रेमी भी थे.

'मेरी कला पर मुग्ध थे लेकिन अनुशासन और स्वाभिमान के हिमायती. उन्होंने मुझे ठुमरी के भाव पक्ष को समझने में बड़ी मदद की. उस ज़माने में उत्तरप्रदेश के बड़े-बड़े कवि, कहानीकारों से मिलने का सौभाग्य आया. इस बीच हमारे गृहस्थ जीवन में बेटी का आगमन हुआ. जाहिर है कि मेरा गायन कुछ बरसों के लिए थम गया. लेकिन सिलसिला फिर शुरू हुआ. सन् 1949 में मैं बीस बरस की हो गई. इलाहाबाद में रेडियो स्टेशन खुल चुका था. वहां पंडित रविशंकर थे. मुझे पहली बार प्रस्तुति का मौका मिला. मेरी प्रस्तुति से वे बहुत प्रभावित हुए. उनकी तारीफ से मेरा हौसला बढ़ा. दो वर्ष बाद आरा (बिहार) में एक बहुत बड़ा संगीत समारोह हुआ. आला दर्ज़े के नर्तक संगीतकार आमंत्रित थे. एक सभा में जब अचानक पंडित ओंकारनाथ ठाकुर नहीं आए तो उनकी जगह मुझे गायन के लिए बैठा दिया. पहले तो मैं घबरा गई, लेकिन जब मैंने ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ गाया तो सुनकर मुझे कलाकारों-श्रोताओं ने सिर माथे बैठा लिया. कहने लगे कि यह बंदिश तो गिरिजा के कंठ से सिद्ध हो गई. मेरी प्रसिद्धि को अचानकपंख लग गए. इसी दौरान मैंने शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक संगीत की त्रिवेणी में डूबते-उतराते शब्द स्वर और सरगम के तालमेल को समझा. अभ्यास जारी रखा. चारों सप्तकों को गले में साधने की कुव्वत अर्जित की. ध्रुपद-धमार, ख्याल तथा पूरब अंग की ठुमरी-चैती, दादरा, कजरी और भजन जैसी लोक विधाओं के मर्म को जाना कि यह सब गाना सिर्फ कंठ की कलाबाजी नहीं है इसके साथ आत्मा का रिश्ता बनाने की जरूरत है.'

मेरा प्रश्न था गिरिजा जी, उस ज़माने में विदेश यात्रा कलाकारों के लिए बड़ा सम्मान हुआ करता थी. मुश्किल से यह अवसर नए फनकारों को मिलता था. आपको यह मौका कब मिला?

'1969 में मेरा चुनाव रशिया के लिए हुआ. भारत सरकार ‘रूसी भारत मैत्री उत्सव’ के लिए कलाकारों का एक पैनल बना रही थी. मुझे भी बुलावा आया. ये उन्नीस दिन का प्रवास था. बनारस की खाक छानकर अपने कदम नाप रही एक मध्यमवर्गीय कलाकार केलिए उड़नखटोले में बैठना एक सपने की तरह था उस समय. मैं न अंग्रेज़ी जानती थी, न रूसी भाषा का इल्म था. मन में डर यह भी था कि मेरे ख्याल की बंदिशों और ठुमरी, दादरा को वहां भला कौन समझेगा! लेकिन मेरा गायन बेहिसाब सराहा गया. श्रोताओं ने मेरी आवाज़, आरोह-अवरोह और स्वर को भावों को समझकर आनंद लिया. दुभाषिये ने भी मदद की. मुझे याद है कि सारंगी पर पंडित इन्दरलाल और तबले पर दिल्ली के उस्ताद लतीफ खां ने संगत की थी.'

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गिरिजा देवी अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ज़रूरतमंद कलाकारों और अपने शिष्यों में बांट देतीं थी... (फाइल फोटो)

गिरिजा जी इस विदेश यात्रा को महत्वपूर्ण पड़ाव मानती थीं. इस अर्थ में कि उसके बाद वे नए आत्मविश्वास से सक्रिय हुईं. सम्मान और उपाधियों की बौछार लग गई. किसी ने उन्हें संगीत शिरोमणि कहा, किसी ने संगीत अप्सरा की उपाधि दी तो नए जमाने ने उन्हें ‘क्वीन आफ ठुमरी’ कहकर नवाज़ा. भारत सरकार ने ‘पद्मश्री; और ‘पद्मभूषण’ जैसे नागरिक अलंकरण भेंट किए. विश्वविद्यालयों ने डी लिट् का मानद सम्मान दिया और मध्यप्रदेश की सरकार ने तानसेन सम्मान के लिए चुनकर इस स्वर साम्राज्ञी के बहाने स्वयं को गौरवान्वित किया. और भी कई सारे मान-सम्मान गिरिजा जी को हासिल हुए थे. बावजूद इन सबके वे इस पकी उम्र में जब अपने समकालीन बुजुर्ग साधकों को देखती थीं तो उनकी दशा पर करुणा से भर जाती थीं. तल्खी उनकी जुबां पर तैरने लगती थी-

‘सम्मान जीते जी मिले या मरने पर इनसे घर नहीं चलता. दीवारों पर सजाने के अलावा इनकी बाद में कोई अहमियत नहीं रह जाती. सरकार साठ साल के बाद की उमर के कलाकारों के लिए जीवन-पोषण के लिए कोई ठोस योजना बनाए. हमारे जैसे गायक-संगीतकार जो इस उमर में गा-बजा रहे हैं उन पर भी इनकम टैक्स? ये ठीक नहीं.’

इस गुबार के साथ गिरिजा जी ने बताया था, 'मैं जो कुछ भी पाती हूं उसमें से एक बड़ा हिस्सा ज़रूरतमंद कलाकारों और अपने शिष्यों में बांट देती हूं. पूजा-पाठ और भंडारों के लिए दान कर देती हूं. अपने लिए जो पैसा मैंने जमा किया है उससे ही गिरिजा देवी ट्रस्ट का संचालन होता है. मैंने अपने परिवार के लिए भी जरूरी इंतजाम कर दिया है.'

अपनी विरासत पर किस तरह का गर्व है?

गिरिजा देवी के लिए यह सवाल अस्मिता से जुड़ा था. उनका कहना था- 'हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पूरब अंग का संगीत अमृत धारा के समान है वह कभी भी सूखेगा नहीं. इसका उद्गम वेद हैं. गंधर्वों ने इसे परवान चढ़ाया. बुद्ध के समय संगीत शालाओं में इसके स्वर गूंजते थे. यह परंपरा आज भी कायम है मुझे मेरे शिष्यों पर गर्व है कि वे इस विरासत के प्रति अपने उत्तरदायित्व का परिचय दे रहे हैं. मुझे नई पीढ़ी पर पूरा भरोसा है.'

...और गुरु परंपरा?

'मुझे जो गुरु से मिला उसका ऋण मैं कभी भी नहीं चुका सकती. उनकी कृपा के बिना जीवन में शायद ही इतना कुछ मिल पाता. लेकिन एक बात जानती हूं कि गुरु और शिष्य दोनों ही सत्य का पालन करें तो ही कुछ मिलता है, वरना सब मिथ्या है. देखा, सीखा और परख्या ही काम आता है. गुरु का आदेश सर्वोपरि है. ध्यान दें- ‘गुरु करो जान के, पानी पियो छान के’ आज जमाना कुछ बदला है पर जो गंभीर हैं वे अपने आपको साबित कर रहे हैं.'

(लेखक मीडियाकर्मी और कला संपादक हैं)

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