‘इर्वरिसिबल’ एक ऐसी फिल्म है जो उल्टी शुरू होती है यानी अंत से शुरू होकर आरंभ पर खत्म होती है. फिल्म की शुरुआत एक आदमी की बुरी तरह से मार-मारकर हत्या कर देने से होती है. हत्या का वह सीन दिल को दहला देता है. दरअसल ये हत्या एक बदला है. फिल्म धीरे-धीरे आगे बढ़ती है तो इस हत्या की वजह का पता चलता है. हत्या करने वाले की पत्नी का नशे में धुत एक आदमी सब-वे में बलात्कार करता है. और फिर उसके सिर को पटक पटक कर मारता है और आनंदित होता है. बलात्कार का इतना भयानक फिल्मांकन शायद ही किसी और फिल्म में दिखाया गया हो. जैसे-जैसे आप रेप के उस दृश्य को देखते हैं आप उस आदमी से नफरत करने लग जाते हैं जिसकी शुरुआत में हत्या होते हुए दिखाया गया है. साथ ही साथ महिला के पति को जिसे हम हत्यारा समझ रहे थे, उसके प्रति एक बेचारगी महसूस करने लगते हैं.


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हाल ही में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘मॉम’ में जब बलात्कार की शिकार हुई लड़की अपनी सौतेली मां से बोलती है कि वह लोग जब मेरे साथ ज्यादती कर रहे थे तब जानते हैं क्या कह रहे थे - बुला अपनी मां को. यह संवाद फिल्म में मां को तो झकझोरता ही है, साथ में उसको देख रहे दर्शकों को भी परेशान कर देता है. जब अंत में मां अपनी बेटी के बलात्कारी को गोली से भूनती है तो दर्शक राहत की सांस लेते हैं.


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गांव की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘पिता’ में ज़मींदार के लड़के गांव के एक किसान की नाबालिग बेटी के साथ जबर्दस्ती करके उसे मरने के लिए छोड़ देते हैं. फिल्म के एक दृश्य में सरकारी अस्पताल में दर्द से तड़प रही बच्ची का इलाज कर रहे डॉक्टर को जब रिपोर्ट बदलने का लालच दिया जाता है तो वह लगभग तमतमाते हुए बोलता है, इतने टांके, इतनी चोट, इतने फ्रैक्चर तुम जानते भी हो कि वह बेचारी मासूम किस दर्द से गुजर रही है और तुम लोग मुझे तीन लाख में खरीदना चाहते हो. एक लंबी खामोशी के बाद वह बोलता है कि पांच लाख से एक पैसा कम नहीं लूंगा. संवेदनहीनता की यही पराकाष्ठा जब एक पिता को हथियार उठाने पर मजबूर कर देती है तो दर्शक पिता के दर्द को समझ पाते हैं.


यहां एक पति है, मां है, पिता है और बदला है. पिछले साल पंजाब के बठिंडा में हुई घटना ने इस कहानी के बाप को हकीकत में सामने लाकर खड़ा कर दिया है. दरअसल बठिंडा में एक पिता ने अपनी सात महीने की बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले आरोपी के दोनो हाथ काट दिए. आपको बता दें कि बच्ची के साथ बलात्कार की घटना 2014 में हुई थी. तभी से आरोपी जमानत पर था और मामला कोर्ट में विचाराधीन था. हाथ काटने वाले पिता को गिरफ्तार कर लिया गया है, उसने अपना गुनाह मानते हुए कहा कि उसे अपने किए पर कोई अफसोस  नहीं है.


ईंट भट्टे में काम करने वाला मजदूर पम्मा उस दिन अपनी सात महीने की बेटी को घर पर छोड़कर मजदूरी करने गया था, उसी दौरान आरोपी परमिंदर ने उस बच्ची के साथ ये कुकर्म किया था. आरोपी को बलात्कार की धाराओं के तहत गिरफ्तार तो किया गया लेकिन तीन महीने में ही वह जमानत पर रिहा हो गया और तब से आजाद घूम रहा था.


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पम्मा ने जो किया हो सकता है उस पर हममें से कई उसकी तरफदारी करें लेकिन साथ में सवाल ये भी है कि आखिर पम्मा ऐसा करने पर मजबूर क्यों हुआ?


यह तो बात घटना से विचलित होकर बदला लेने या घटना के सामने आ जाने की है लेकिन ऐसी न जाने कितनी घटनाएं रोज घटती हैं जहां औरत फिर चाहे वह किसी भी रूप में हो, किसी भी उम्र की हो, किसी भी तबके की हो जूझती दिखाई पड़ती है. कितनी ऐसी घटनाएं हैं जहां औरत चुप रह जाती हैं.


तस्लीमा नसरीन अपनी किताब ‘औरत के हक में’ एक घटना का उल्लेख करती है. ‘उस समय मेरी उम्र अट्ठारह-उन्नीस बरस की होगी, मयमनसिंह शहर के एक सिनेमा हॉल में दोपहर का शो खत्म हुआ है. कतारों में रिक्शे खड़े हैं. मैं एक रिक्शे पर चढ़ी. भीड़ के कारण रिक्शा एक जगह रुक गया था. इसी दौरान मुझे अपनी दाहिनी बांह में अचानक तेज दर्द महसूस हुआ. मैंने पाया कि बारह तेरह साल का एक लड़का मेरी बांह में एक जलती हुई सिगरेट दागे हुए है. मैं उसे पहचानती नहीं थी और न ही पहले कभी देखा था, मैं दर्द के मारे कराह उठी. और वह सहज भाव से हंसता हुआ चला गया. मैंने सोचा चिल्लाऊं, किसी को आवाज दूं या दौड़कर उसे पकड़ लूं, लोगों को इकट्ठा करके फरियाद करूं. लेकिन लड़कियों में एक छठी इन्द्री होती है, शायद इसीलिए उस दिन उस लड़के को सजा दिलाने की कोई कोशिश मैंने नहीं की थी. उसी उम्र में मेरी समझ में आ गया था कि मैं उस लड़के को पकड़ूंगी या फिर पकड़ने के लए लोगों से मदद चाहूंगी तो सभी मुझे घेर लेंगे, मुझे देखेंगे, मेरे शरीर के उतार-चढ़ाव का आनंद लेंगे, बदन की चिकनाहट देखेंगे, मेरी तकलीफ, देखेंगे, कोई संवेदना जताएगा, कोई जबर्दस्ती संवेदना प्रकट करते हुआ जानना चाहेगा कि आखिर क्या हुआ. कोई कहेगा कि लड़के को पकड़कर दो-चार थप्पड़ लगाना चाहिए, मेरे चले जाने के बाद मेरे शुभचिंतकगण सीटी बजाएंगे. यह सब सोचकर मैं अपना दर्द अपने अंदर दबाकर रह गई. मेरी दाहिनी बांह में आज भी वो वह दाग जल रहा है, मैं उस उजड्ड अनपढ़ लड़के को क्या दोष दूं, शिक्षित सुसंस्कृत लोग ही कहां निर्दोष हैं’. वह आगे लिखती हैं, “इन घटनाओं का मैंने कभी विरोध नहीं किया. बल्कि मैं अपने आपको खुशनसीब समझती हूं कि अब तक किसी ने एसिड बल्ब मारकर मेरा चेहरा नही जलाया, मेरी आंखे फोड़कर मुझे अंधा नहीं किया, ये मेरा सौभाग्य है कि वहशी मर्दों के किसी गिरोह ने अब तक मेरा बलात्कार नहीं किया. इतना ही नहीं मैं अब तक जीवित हूं यह भी मेरा सौभाग्य ही है.'


तस्लीमा की लिखी हुई बातें एक बार को किसी को अतिश्योक्ति भी लग सकती हैं लेकिन अगर आप देखें तो कहीं न कहीं हमारा समाज इसी समझे हुए सच के साथ जीता है कि औरत हमारा हक है. हमारी जागीर है. ये वही समाज है जो ‘पद्मावती’ फिल्म के प्रदर्शन पर इसलिए रोक लगाने की बात करता हैं क्योंकि उसमें उनकी रानी को नाचते हुए दिखाया गया है, उनकी कमर दिखाई गई है. गैर मर्द का उन्हें लेकर फंतासी करते हुए दिखाया गया है. लेकिन किसी भी आदमी या औरत या तबके को भंसाली के निर्माण पर यह सवाल उठाते नहीं देखा गया कि आखिर क्यों फिल्म में जौहर का महिमामंडन किया गया है. क्योंकि औरत का आदमी के लिए आग के कुंड में कूद जाना तो हमारे समाज, हमारी संस्कृति को जैसे समृद्ध बनाता है.


लेखिका अजीत कौर अपनी आत्मकथा कूड़ा-कबाड़ा में लिखती हैं, 'अपनी जिंदगी के सारे राज मैं आपके साथ इसलिए नहीं बांट रही हूं कि आप मुझसे हमदर्दी जताएं. यह सारी पीड़ा, सारी मेहनत, मौत की गलियों में दुबारा भटकने की यातना और संताप मैं इसलिए नहीं झेल रही हूं कि मुझे किसी की हमदर्दी की जरूरत है. यह सारी दास्तान तो आपको सिर्फ इसलिए सुना रही हूं कि आपका परिचय एक डरी-सहमी, नन्हीं सी बच्ची से करवा सकूं, जो पढ़े-लिखे और शिष्ट समझे जाने वाले, खाते-पीते, इज्जतदार मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुई. जिस बच्चे को उसके बचपन से इसलिए वंचित रखा गया क्योंकि वह बच्चा एक लड़की थी.'


अपनी किताब में बचपन की एक घटना का उल्लेख करते हुए वह बताती हैं कि किस तरह उनके मोहल्ले का किराने वाला उन्हें चॉकलेट देने के बहाने गोद में बैठा लिया करता था. फिर एक दिन उनकी फ्रॉक में लगे हुए चिपचिपे पदार्थ को देखकर उन्हें वहां जाने से मना कर दिया गया और उनको डांटा गया कि इस तरह से किसी की गोद में नहीं बैठना है.


हाल ही में जब किरण खेर ने अपने एक वक्तव्य में यह कहा कि उस बच्ची को ऐसी गाड़ी में चढ़ने की जरूरत ही क्या थी जिसमें तीन आदमी बैठे हुए थे. तो उनके इस कथन की चारों तरफ बहुत निंदा हुई. बतौर जिम्मेदार राजनीतिज्ञ इस कथन की निंदा होनी भी चाहिए थी. लेकिन इस बात की एक परत और है. क्या हम जो नारी की शक्ति, नारी की स्वंतत्रता, कानून की बात करते हैं. क्या हम जो बात-बात पर यह कहते नजर आते हैं कि आखिर लड़की क्यों अकेले नहीं जा सकती है. आखिर क्यों उसे संभलकर चलने की जरूरत है. हम सभी अपनी बेटियों को घर से बाहर भेजते वक्त डरे हुए नहीं रहते हैं, क्या हम उन्हें ये हिदायत नहीं देते हैं कि ऐसी जगह मत जाना जहां कोई अंजान हो. क्योंकि हम ये चाहते तो हैं कि कानून में सुधार होना चाहिए, हम चाहते तो हैं कि लड़कियों को निडर होकर घूमना चाहिए लेकिन साथ में हम ये भी जानते हैं कि ये आदर्श एक कपोल कल्पना की तरह है. और जब तक ये आदर्श स्थापित नहीं हो जाता है तब तक हमें हमारी बच्चियों को तो सुरक्षित रखना ही पड़ेगा.


निर्भया मामले में चारों आरोपियों को फांसी की सजा सुनाकर माननीय न्यायालय ने इतिश्री की, समाज का एक तबका इस तरह खुश हो रहा था गोया हमने फिर आजादी प्राप्त कर ली हो. लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? क्या वाकई में हम समाज के सामने कोई उदाहरण प्रस्तुत कर पाए हैं, क्या वाकई में हम स्त्रियों की तकलीफों को समझ पाए हैं? जिस समाज में शब्दकोश में औरत के लिए हमने ढेर सारे समानार्थी शब्द गढ़ दिए हों, लेकिन ‘इंसान’ शब्द पुरुष का समानार्थी है, वहां किसी औरत का खुद को किसी भी तरह से सुरक्षित मानना बेमानी लगता है.


सोचिए जहां फिल्मों में गाने भी इस तरह के होते हैं कि ‘तुम अकेले तो कभी बाग में जाया न करो, आजकल फूल भी दिलवाले हुआ करते हैं, कोई कदमों से लिपट बैठा तो क्या होगा’ या फिर ‘अकेली न बाजार जाया करो नजर लग जाएगी.’ गोया नजर अकेली औरत के जाने पर ही लगती है अगर वह अपने दो साल के भाई के साथ भी जाएगी तो शायद बच जाए.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)