अगड़े और दलितों के झगड़े में कहीं केंद्र को न हो जाए नुकसान
एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग के खिलाफ अगड़ी जातियों के विरोध प्रदर्शन का राजनीतिक पहलू जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा इसका सामाजिक पहलू महत्वपूर्ण है.
एक अप्रत्याशित कदम के तहत अगड़ी जातियां अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2018 के खिलाफ सड़क पर उतर आईं. इनका भारत बंद मूलतः उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक सिमटा रहा, बाकी राज्यों में इसका सीमित प्रभाव रहा या वह भी नहीं था. प्रदर्शनकारियों का गुस्सा केंद्र सरकार के खिलाफ था. इसके पहले इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दो अप्रैल को अनुसूचित जाति व जनजाति के सदस्यों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन किया था. इसके बाद अनुसूचित जाति एवं जनजाति संगठनों के दबाव में केंद्र सरकार इस कदर आ गई कि उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करते हुए एक संशोधन कानून के जरिये उसे मूल रूप में 9 अगस्त को बहाल कर दिया.
अब यह मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है, जहां इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है. कोर्ट ने सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए छह सप्ताह का समय दिया है, हालांकि उसने इस कानून के अमल पर रोक नहीं लगाई है. यानी आने वाले समय में भारतीय राजनीति और समाज में इस पर हलचल बनी रहेगी. अब सबकी नजर मोदी सरकार के भावी रुख पर होगी.
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20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के दुरुपयोग पर चिंता प्रकट करते हुए इस कानून के तहत की गई किसी शिकायत पर स्वतः गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. उसने कोई कार्रवाई करने से पहले पुलिस को सात दिन के भीतर प्रारंभिक जांच करने के निर्देश दे दिए. साथ ही उसने अग्रिम जमानत की भी इजाजत दे दी. कोर्ट ने इस तरह का सुरक्षात्मक प्रावधान किसी निर्दोष व्यक्ति को ब्लैकमेल या बदले की कार्रवाई से बचाने और उसकी गरिमा की रक्षा की सोच के तहत किया था.
इस कानून के दुरुपयोग से चिंतित गैर एससी-एसटी जातियों ने राहत की सांस ली थी. लेकिन सदियों से सताया एससी-एसटी समुदाय इसको लेकर उबल पड़ा था. एससी-एसटी वोट का दबाव इतना था कि सरकार ने उनके सामने घुटने टेक दिए. सरकार ने संशोधन विधेयक लाकर इस कानून की पुरानी स्थिति बहाल कर दी, लेकिन इस प्रक्रिया में एससी-एसटी समुदाय की सुरक्षा और इसके दुरुपयोग के बीच संतुलन नहीं बनाया गया. इन्हें ऐसा लग रहा था कि अगड़ी जातियां हमेशा की तरह इनका साथ देंगी और कोई विरोध नहीं करेंगी. कानून पास होने के बाद अब अगड़ी जातियां इसके खिलाफ मुखर हो गईं, तो सरकार के नुमाइंदों की बोलती बंद हो गई. उन्हें न इसका समर्थन करते बन रहा है, न विरोध करते. भाजपा को एससी-एसटी विरोधी बताने वाले विपक्ष ने भी इसमें उसका पूरा साथ दिया था.
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स्वतःस्फूर्त या प्रायोजित?
एससी-एसटी संशोधन कानून का विरोध उसी समय से दिखने लगा था, जब संसद के दोनों सदनों द्वारा इसे पास कर दिया गया था. इसकी शुरुआत सोशल मीडिया से हुई. बाद में स्थानीय स्तर पर कुछ संगठन इससे जरूर जुड़े, लेकिन इसके मूल स्रोत और नेता का नाम आंदोलनकारियों को पता नहीं है, जैसा कि सोशल मीडिया द्वारा खड़े किये गए आन्दोलन के साथ होता है. जैसे-जैसे इसकी चर्चा बढ़ती गई, अगड़े समाज में लोगों की नाराजगी इसके प्रति बढ़ती गई. इसमें वे लोग भी शामिल थे, जिनकी कोई दलगत प्रतिबद्धता नहीं थी या वे पीएम मोदी के समर्थक थे. ठोस सबूत के अभाव में निश्चित तौर पर यह बता पाना कठिन है कि यह स्वतःस्फूर्त है या प्रायोजित, लेकिन इसको लेकर समाज में दो धाराएं हैं. एक समूह का मानना है कि यह अगड़े समाज में अपने साथ वर्षों से हो रहे भेदभाव और जुल्म के खिलाफ संचित आक्रोश की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है. इससे भिन्न धारा के लोग इसमें राजनीति देखते हैं. इनके एक बड़े हिस्से का कहना है कि यह मोदी विरोधियों की चाल है, ताकि भाजपा का परंपरागत अगड़ा वोट काटा जा सके. यहां इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यह विरोध प्रदर्शन उन्हीं राज्यों में केंद्रित रहा, जहां पक्ष-विपक्ष का भविष्य दांव पर लगा है, जबकि इस कानून का दुरुपयोग दक्षिण के राज्यों में भी होता है.
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मध्य प्रदेश और राजस्थान में निकट भविष्य में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं, तो उत्तर प्रदेश और बिहार वे राज्य हैं, जिन पर 2019 के लोक सभा चुनाव में सत्ता की कुंजी का दारोमदार निर्भर है. अगर अगड़ी जातियों का वोट यहां भाजपा से टूटता है, तो मोदी विरोधियों को फायदा होगा. इसके विपरीत कुछ यह कहते हुए भी दिखे कि विरोध के पीछे भाजपा है. विरोध प्रदर्शन में अगड़ी जाति के कुछ स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं के शामिल होने की बात को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि वे भी अपने समाज के लोगों की तरह इस कानून को लेकर उत्तेजित थे, लेकिन इस बात पर विश्वास करने का कोई ठोस आधार नहीं दिखता कि भाजपा अपनी ही सरकार द्वारा पास कराए गए कानून का विरोध करके अपने को श्रेयहीन करेगी.
पिछड़ों की दूरी, विपक्ष की चुप्पी
एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग से अगड़ों की तरह पिछड़े भी पीड़ित होते रहे हैं. इस लिहाज से यह उम्मीद की जा रही थी कि इस प्रदर्शन में अगड़ों की ही तरह पिछड़े भी भागीदारी करेंगे, लेकिन जमीन पर उनकी भागीदारी काफी कम थी. इसी तरह विपक्षी पार्टियों ने भी इस पर प्रायः चुप्पी साधने की रणनीति बनाई. तो क्या यह राजनीतिक तकाजे का परिणाम था कि इन पार्टियों और इनकी समर्थक जातियों ने इस मसले से प्रकट तौर पर दूरी बनाए रखी? पहली नजर में इससे भाजपा को राजनीतिक नुकसान और विपक्ष को फायदा होने की संभावना दिखती है.
इन दलों को ऐसा लगता होगा कि एससी-एसटी समुदाय के लोग इनके साथ हैं ही, अगर भाजपा का समर्थन करने वाली अगड़ी जातियां भाजपा से बिदक जाएं, तो यह इनके लिए फायदेमंद होगा. पिछड़ी जातियों की इससे दूरी पिछड़े और एससी समुदाय का समीकरण बनाने में सहायक हो सकता है. भीम आर्मी के मुख्य संरक्षक जय भगवान जाटव कहते भी हैं कि इससे एससी, पिछड़े और मुसलमानों को लामंबद होने का मौका मिलेगा. हालांकि ऐसी किसी लामबंदी के बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी है, क्योंकि विरोध प्रदर्शन को लेकर एससी समुदाय में भिन्न प्रतिक्रिया भी नजर आ रही है. धर्म जागरण समन्वय विभाग (आरएसएस) के ब्रज प्रांत संयोजक नंद किशोर वाल्मीकि कहते हैं कि इस विरोध प्रदर्शन ने दलितों के बीच यह बात मजबूती से पहुंचा दी है कि मोदी सरकार उनके लिए कुछ कर रही है. राजनीति की यह ऐसी प्रवृत्ति है, जिसका मोदी विरोधियों ने अनुमान नहीं लगाया होगा.
उलझाव से सद्भाव की ओर
एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग के खिलाफ अगड़ी जातियों के विरोध प्रदर्शन का राजनीतिक पहलू जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा इसका सामाजिक पहलू महत्वपूर्ण है. इसके दो कारण हैं- एक तो ऐसा पहली बार हुआ है कि अगड़ी जाति के लोग इस मसले पर सड़क पर उतरे हैं. दूसरे इससे होने वाला राजनीतिक नफा-नुकसान तात्कालिक परिघटना है, लेकिन इससे समाज में जो अंतःक्रिया होगी, वह दीर्घकाल तक चलेगी और समाज परिवर्तन में वह अहम भूमिका निभाएगी. अब पहली बार अगड़ी जातियों द्वारा एससी समुदाय के व्यवहार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में सवाल खड़ा किया गया है. कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में अगड़ों के साथ पिछड़े भी एससी समुदाय के खिलाफ लामबंद हो जाएं.
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या एससी समुदाय में इस बात का अहसास है कि इस कानून का दुरुपयोग होता है? इस पर भीम आर्मी के मुख्य संरक्षक जय भगवान जाटव यह मानने को तैयार नहीं हैं कि एससी समुदाय के लोग इसका दुरुपयोग करते हैं. दूसरी ओर धर्म जागरण समन्वय विभाग (आरएसएस) के ब्रज प्रांत संयोजक नंद किशोर वाल्मीकि कहते हैं, “अधिकतर एससी समुदाय को इस बात का अहसास है कि इसका दुरुपयोग होता है और ऐसा नहीं होना चाहिए. निजी महत्वाकांक्षा से प्रेरित कुछ लोग इसका दुरुपयोग करते हैं. इससे पूरे एससी समुदाय की नैतिक साख को चोट पहुंचती है और समाज में अनावश्यक कलह पैदा होती है. संभव है आने वाले अगले कुछ वर्षों तक इस कानून को लेकर उलझाव की स्थिति बनी रहे, लेकिन इस पर टकराव के बाद अंततः समाज में संतुलन-सद्भाव की स्थिति आएगी और हिन्दू समाज को बांटने की राजनीति विफल हो जाएगी.”
बहरहाल, यह लोकतांत्रिक राजनीति में ही संभव है. कुछ विश्लेषक इसे जातीय चेतना की वृद्धि के रूप में देख सकते हैं, लेकिन यह अंततः जातियों की दूरी को घटाने वाली सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया है. यही कारण है कि इस विरोध प्रदर्शन ने राजनीतिक दलों को एक स्पष्ट संदेश दे दिया है. अब उनके लिए किसी जाति या धार्मिक समुदाय के तुष्टीकरण की राजनीति आसान नहीं रहेगी. इसलिए अब राजनीतिक दलों के ऊपर एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना का दबाव होगा, जिसके तहत वे वोट की राजनीति के बजाय राष्ट्र और समाज के हित को आगे रखें. साथ ही आने वाले समय में एससी आंदोलन की दशा-दिशा पर भी गंभीरता से सवाल खड़ा होगा.
चाहे एससी समुदाय के अभिजन का प्रश्न हो या हिन्दुत्व के समर्थन या विरोध का, उनसे तीखे सवाल पूछे जाएंगे. जिस तरह वैश्विक ताकतें किसी देश की आंतरिक राजनीति को प्रभावित कर रही हैं, उसमें ऐसा होना लाजिमी है. हाल के दिनों में जिस प्रकार सोशल मीडिया ने आंदोलन खड़ा करने में अपनी मौन भूमिका निभाई है, उससे उसने देश में खास से लेकर आम तक का इस पहलू की ओर ध्यान खींचा है. चूंकि सोशल मीडिया की जड़ें विदेश में भी हैं, अगर भारतीय समाज ने परिपक्वता नहीं दिखाई, तो आने वाले समय में और भी उलझाव पैदा होते रहेंगे. जब तक समाज इसकी चाल को समझेगा, तब तक देर हो चुकी रहेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)