केन्द्र सरकार द्वारा मोबाइल, कम्प्यूटर, ई-मेल और इंटरनेट सिस्टम में निगरानी के लिए 10 सुरक्षा एजेंसियों को अधिकृत किये जाने के बाद देश का माहौल गर्म हो गया है. सरकार की आधिकारिक विज्ञप्ति और केन्द्रीय मंत्री जेटली के स्पष्टीकरण से स्थिति जटिल होने के साथ विरोधाभास भी बढ़ गया है. अंग्रेजों के जमाने में सन 1885 में बनाए गए टेलीग्राफ एक्ट के अनुसार सरकारों को टेलीफोन की निगरानी और रिकॉर्डिंग करने का अधिकार है. सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आईटी एक्ट) में सन 2008 के बदलाव और 2009 के विस्तृत नियमों से कम्प्यूटर और इंटरनेट की निगरानी का अधिकार भी सरकार को मिल गया, जिसके अनुपालन के लिए सख्त प्रक्रिया निर्धारित है. इसके तहत हर मामले में जांच के लिए केन्द्र या राज्य के गृह सचिव का अनुमोदन और फिर पुष्टि जरुरी है. कानून के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मामलों में ही किसी के फोन, मोबाईल या इंटरनेट की निगरानी की जा सकती है. इमरजेंसी से लेकर जनता के दमन के लिए सरकारों द्वारा राष्‍ट्रीय सुरक्षा का ही बहाना लिया जाता है, तो फिर जनता का विरोध स्वाभाविक है पर विपक्षी नेताओं द्वारा इस पर बवाल क्यों?


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

ये भी पढ़ें- अयोध्या पर पक्षकार बनकर मामले को तेजी से निपटा सकती है सरकार


चुनावों के पहले सरकार का शक्ति प्रदर्शन- पूरे मामले पर विरोधाभासी बयानों से यह लगता है कि इंटरनेट की निगरानी के लिए नया आदेश जारी किया गया है. जबकि हकीकत यह है कि टेलीग्राफ एक्ट और आईटी एक्ट के तहत केन्द्र सरकार के पास कम्प्यूटर और इंटरनेट की निगरानी का कई सालों से अधिकार है. पर बड़ा सवाल यह है कि चुनावों के कुछ महीने पहले इस शक्ति प्रदर्शन की जरुरत क्यों पड़ी? इस आदेश से यह लगता है कि दस सुरक्षा एजेंसियों के प्रमुख अब निगरानी के लिए बगैर गृह सचिव के अनुमोदन के अब फैसला ले सकेंगे. इसके बावजूद रिव्यू के लिए हर मामले को गृह सचिव के पास भेजना तो अभी भी जरुरी ही रहेगा. इस प्रकार की निगरानी और रिकॉर्डिंग को सरकार के स्तर पर भी बहुत गुप्त रखा जाता है और इसकी जानकारी आरटीआई से भी नहीं दी जाती. निगरानी और रिकॉर्डिंग के लिए सरकार द्वारा अनाधिकृत तरीके से इन अधिकारों का बेजा इस्तेमाल किया जाता है. पूर्व में ऐसे मामलों में संसद में कई बार हंगामा होने के साथ, अनाधिकृत निगरानी की वजह से सरकारों का पतन हुआ, तो यह विवाद भी अनूठा नहीं है!


ये भी पढ़ें- सबरीमाला: जिसकी लाठी उसकी भैंस, क्या महिला जज सही थीं?


रिकॉर्डिंग का साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल- सीबीआई, ईडी, पुलिस जैसी एजेंसियों की एक यूनिट देशहित से जुड़े मामलों में हमेशा निगरानी और रिकॉर्डिंग के लिए मुस्तैद रहती है. ड्रग्स के कारोबारी, आतंकवादी, विदेशी जासूसों के अभियानों को रोकने में इस निगरानी से मदद मिलती है, लेकिन ऐसे मामलों में औपचारिक चार्जशीट शायद ही कभी फाइल होती है. निगरानी के बाद अगर मामले का अनुमोदन नहीं मिला तो उन रिकॉर्डिंग को नष्ट करने का भी नियम है. इनकम टैक्स विभाग द्वारा की गई फोन टैपिंग से भारत में लॉबिंग के बड़े तन्त्र का खुलासा हुआ था, जिसे नीरा राडिया टेप कांड कहा जाता है. उस मामले में अनेक नेता, अफसर, पत्रकार और उद्योगपतियों के नाम उजागर हुए, लेकिन अन्य सबूतों के अभाव में उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई.


ये भी पढ़ें- 2जी स्पेक्ट्रम फैसला: 1.76 लाख करोड़ कहां गए?


वॉट्सअप जैसी कंपनियों से होगा टकराव- सरकार द्वारा जारी आदेश के तहत निगरानी के लिए गूगल (जी-मेल), माइक्रोसॉफ्ट (हॉटमेल), फेसबुक (मैसेंजर) और वॉट्सअप जैसी कम्पनियों को सुरक्षा एजेंसियों के साथ जानकारी साझा करनी होगी. इन कंपनियों का डाटा विदेशों में रहता है और भारत में इन्होंने शिकायत अधिकारी भी नियुक्त नहीं किया. वॉट्सअप का मैसेज और मोबाईल कॉल के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है. वॉट्सअप के अनुसार, उनके प्लेटफॉर्म में मैसेज इनक्रिप्शन से सुरक्षित रहते हैं और उन्हें कंपनी भी नहीं पढ़ सकती है. मैसेज और कॉल की सरकार द्वारा निगरानी के लिए वॉट्सएप कंपनी का सुरक्षा एजेंसियों को सहयोग जरुरी है. सरकार के आदेश का पालन नहीं करने पर सात साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. ताकतवर इंटरनेट कंपनियों द्वारा सरकारी आदेश की अवहेलना पर दण्डात्मक प्रावधानों को कैसे लागू किया जाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा. 


विपक्षी सरकारों द्वारा इन कानूनों का इस्तेमाल बंद हो- टेलीग्राफ एक्ट और आईटी एक्ट के तहत राज्यों की पुलिस को भी टेलीफोन टैपिंग और इंटरनेट की निगरानी का अधिकार है. पूरे मामले में विवाद के बाद केन्द्र सरकार द्वारा जारी स्पष्टीकरण के पैरा-5 में यह बात स्पष्ट तौर पर दर्ज है. राज्यों में गृह सचिव के अनुमोदन के बाद जिला पुलिस प्रमुख और सीआईडी के माध्यम से निगरानी के अधिकारों का इस्तेमाल होता है. कांग्रेस के राहुल गांधी, टीएमसी की ममता बनर्जी, तेलगू देशम के चन्द्रबाबू नायडू समेत अनेक नेताओं ने केन्द्र सरकार के आदेश को काला कानून बताया है. केन्द्र सरकार को कोसने वाले विपक्षी दल, क्या अपनी सरकारों को इस कानून के इस्तेमाल ना करने की सलाह देंगे?


(लेखक विराग गुप्‍ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)