उच्च शिक्षा देकर बेटी के जीवन के अध्यायों से कन्यादान, पराया धन व विदाई जैसे शब्दों को समाप्त कर दीजिए. शिक्षा बराबरी के दरवाजे खोलती है, बेटी को कभी कम न आकें, खुले मन से बेटियों को उड़ान भरने दें, उन लोगों की जुबान पर ताला डाल दीजिये जो अपनी सोच से बेटों के गुणों का तो बखान करते हैं और बेटियों की परवरिश को वर्षों के दायरे में बांधकर, विवाह जैसी परम्परा को विदाई जेसे शब्दों में पिरोते हैं.


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बेटियां कभी विदा नहीं होतीं, वे एक घर की सीमा से दूसरे घर में प्रवेश करती हैं ताकि विधाता की इस सृष्टि का संचालन ठीक प्रकार से होता रहे. वंश बेटा ही चलायेगा इस सोच को र्निमूल सिद्ध करना होगा. आज से दो पीढ़ी पहले का परिचय भी हमें नहीं होता, फिर वंशवाद जैसी बेल को कल्पना के विचारों से क्यों सींचते रहें. वर्तमान का सुख बेटियों में खोजें भविष्य सुखद रहेगा. सदियों से चली आ रही परम्परा से मुक्ति पानी होगी. खत्म करना होगा बेटी-बेटे के भेद को. शादी से पहले ठूंस-ठूंस कर भरे संस्कार बेटी को उसकी शादी के बाद भी पराया कर देते हैं. बेटी अब वही तेरा घर है, यहां सिर्फ तू मेहमान है, अब ससुराल वाले जैसा रखें उसी में तेरी भलाई है, इन बातों को सुन-सुनकर कान पक गये हैं. आज इस मानसिकता को बदलना होगा, देने होंगे अधिकार एक बेटी को उसके घर के, उस मायके के जो हमेशा उसका था, है और रहेगा. क्या जिस्म का कोई हिस्सा किसी को दान में दिया जा सकता है? क्या बेटी दान देने की वस्तु है? जिसे देकर जीवन की इतिश्री समझ ली जाती है. समाज की संकीर्ण मान्यतायें बेटा-बेटी में अन्तर मानती हैं! जन्म की पीड़ा, शिक्षा-दीक्षा, लालन-पालन, विवाह, क्या अन्तर है बेटा-बेटी में? बेटियां तो विवाह के बाद भी दिल से जुड़ी होती हैं, एक साथ कई किरदार निभाने में कुशल होती हैं, विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होती.


महिला... शब्द भी जिसकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकते 


बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों से भी बेटियों ने कभी उफ नहीं की. समाज की ढेर सारी रस्मों के बाद भी बेटियां जीती रही हैं. समय-समय पर आये क्रान्तिकारी बदलावों ने उसे उसके अधिकारों से परिचित कराया है. आज बेटियों की स्थिति में काफी परिवर्तन आया है, आज बेटी को नहीं बेटों को कन्धे से कन्धा मिलाने की जरूरत है. बेटियां सिर्फ सात फेरों के बन्धन में बंध जाने के लिये नहीं हैं. छोटी-छोटी बातों पर बेटियों को चुप कराना, उनके मान को चोट पहुंचाना, बेटों के आगे उन्हें तुच्छ समझना और जल्दी से जल्दी हाथ पीले करके पीछा छुड़ा लेने जैसी यातनाओं से उन्हें मुक्त करना होगा.


बेटियां जन्म लेने के बाद सिर्फ पराये घर की अमानत समझकर ना पाली जायें. बेटों की अपेक्षा बेटियों के लालन-पालन में शिथिलता दिखाने वाले भाव आज हर घर से विदा होने चाहिये. मानकर तो देखिये बेटियों के वजूद को वो कहीं भी बेटों के मुकाबले कमजोर नहीं दिखाई नहीं देंगीं.


माता-पिता के कांपते हाथों को ठुकराएं नहीं, उन्हें थामें          


मुझे आज भी एक किस्सा याद है हमारे एक नजदीकी हैं, उनकी दो बेटियां हैं. एक बार उनकी तबियत खराब हुई, उनकी बेटियां उनके निकट नहीं थीं पर फोन पर लगातार सम्पर्क बनाये थीं. बेटी ने मम्मी से पापा को दिखाने के लिये कहा मां ने कहा ड्राइवर नहीं मिला, कल देखेंगे सुबह बेटी का फोन आया मां ड्राइवर आया या नहीं मां ने कहा अभी नौ बजे आयेगा. बेटी ने कहा मां दरवाजा खोलो ड्राइवर आ गया है. उन्होंने दरवाजा खोला तो सामने बेटी खड़ी थी. मां हैरान थी कि बेटी इतनी सुबह कैसे आ गयी! जिस बच्ची ने कभी ट्रेन में सफर नहीं किया वह पापा के लिये भागी चली आयी. मां की आखों से आंसू बह निकले. ये फर्क है बेटियों के प्यार में जो शादी के बाद भी सुरक्षित रहता है.


हर घर में स्त्री को बेटी के प्रति होने वाले अन्याय व भेदभाव के खिलाफ आवाज उठानी होगी. हर नारी को अपने मन से बेटी की मां होने की सोच को निकालना होगा. अपनी बेटी को बेटे के अधिकार देने होंगे. हर बेटी को भी अपने विचारों से मां-बाप को आश्वस्त करना होगा कि वह विवाह के पश्चात भी कमजोर नहीं पड़ेंगी. अपने अधिकारों के प्रति जागरुक रहेंगी. कानून ने जो हक उन्हें दिए हैं उन्हें बेटियों को जानना होगा. समाज को बेटियों के हक में आगे आना होगा. समाज की कसौटी पर तौलने के लिये बेटियों को खुद को विवश नहीं होने देना है, आप जैसी भी हैं सर्व गुण सम्पन्न हैं. बेटे के समान बराबरी के सब अधिकार आपके पास हैं फिर आपके साथ कैसा भेदभाव.


'दिव्यांगों को प्रेम और समय दें'                


शादी के अवसर पर भी रस्मों का सम्मान करें. ये ना सोचें कि हम बेटी वाले हैं, हमें झुकना है. हमें सम्मान देना है और पाना भी है. बेटी के भविष्य को बनाना है. नयी जिन्दगी के लिए तैयार करना है लेकिन दान देने जैसे शब्दों को उसके अस्तित्व से हटाना होगा. बेटी अपना अंश है, दिल की धड़कन है और विवाह जिन्दगी का अनिवार्य अंग. विवाह करके बेटी के जीवन को संवारना है, उसे पराया नहीं करना है. उसकी कद्र करने वालों का सम्मान करना है, उसकी आंख में एक भी आंसू देने का अधिकार समाज में किसी के पास नहीं है. यह अधिकार आज माता-पिता को अपनी बेटी को अन्य उपहारों के साथ सुरक्षित कर देने होगें, तभी बेटियां अपने मायके से कभी परायी नहीं होंगी.


(रेखा गर्ग सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)