मैं अपने हाथ की एक सर्जरी के सिलसिले में नोएडा के एक बहुचर्चित अस्पताल में कई बार गया। मेरा जख्म कुछ ऐसा था जो काफी देर से भर रहा था। एक दिन छोड़कर ड्रेसिंग होती थी। स्टिच कटने से एक दिन पहले जब मैं ड्रेसिंग के लिए उस अस्पताल में गया तो उसके मेन गेट के बाहर भारी भीड़ देखी। माजरा मेरी समझ में नहीं आया। मुझे ऑफिस भी जाना था लिहाजा मैं ऑटो से गया था और मैंने उसे इंतजार करने को कहा। मैं जल्दी में था फिर मैंने ड्रेसिंग करने के बाद ड्रेसिंग चार्ज और डॉक्टर की कंसटेशन फीस को चुकाने के बाद ऑटो में जाकर बैठ गया।


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ऑफिस के लिए देर हो रही थी। मैं डॉक्टर के प्रीस्कप्शन को समझने की कोशिश कर रहा था। तभी ऑटोवाले ने कहा – साहेब अब तो मरे हुए शरीर का भी सौदा होता है। ये अस्पताल वाले तो लुटेरे है साहेब। मैं इस बात को समझ नहीं पाया। तब उस ऑटोवाले ने बताया कि साहेब आपके जाने के बाद मैंने पता किया था कि आखिर भीड़ क्यों हुई थी। और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को बुलाने की नौबत क्यों गई थी?


फिर उसने पूरी बात बताई और मैं वो सब सुनकर हैरान रह गया। दरअसल पूरी भीड़ उन तमाशबीनों की थी जो एक तमाशा देखने में लगे थे। जो मुझे ऑटोवाले ने बताया उसके मुताबिक दरअसल भीड़ की वजह एक मृत महिला के परिजनों का अस्पताल प्रशासन के लोगों से उलझने का क्रम कई घंटों तक चला क्योंकि उक्त महिला का केस रेफर किया गया था । अस्पताल ने तत्काल यूट्रस से जुड़ी इमरजेंसी सर्जरी करने की बात करने का हवाला दिया । अस्पताल के डॉक्टरों ने कहा कि अगर सर्जरी चार घंटे के अंदर नहीं की गई तो महिला की मौत हो सकती है।


महिला के परिजनों से ऑपरेशन का पूरा खर्च 55 हजार बताया गया और एक घंटे के अंदर 30 हजार रूपए जमा करने के लिए कहा गया । परिजनों ने आनन-फानन में रकम का इंतजाम कर उसे अस्पताल के काउंटर पर जमा करवा दिया। ऑपरेशन के कुछ घंटे बाद अस्पताल के डॉक्टरों ने कहा कि ऑपरेशन हो चुका है और महिला बिल्कुल स्वस्थ है अब वह बाकी के 25 हजार रुपए जमा करवा दे। परिजनों ने वह बकाया पैसे भी जमा करवा दिए। इस बीच परिजनों ने महिला से मिलने की बात की तो डॉक्टरों ने मना कर दिया और कहा कि वह नींद में है और ऐसा करने से उसकी सेहत पर प्रभाव पड़ेगा। अगली सुबह महिला के परिजनों को यह सुनकर धक्का लगा कि उसकी मौत हो गई है। परिजनों ने कहा कि जब उन्हें बताया गया था कि महिला स्वस्थ है तो फिर मौत कैसे हो गई। अस्पताल के आला डॉक्टरों ने कहा कि उसकी बीमारी ऑपरेशन से नहीं बल्कि अचानक हार्ट अटैक होने से हुई है। इसके बाद क्या हुआ इसकी मुझे जानकारी नहीं है। लेकिन इस स्टोरी को कवर करने के लिए मेरा एक पत्रकार मित्र भी गया था जिसने कमोबेश मुझसे भी वहीं बातें बताई जो ऑटोवाले ने बताई थी।


अब चूंकि मेरे पास अस्पताल का कोई वर्जन नहीं था लेकिन एक बात तो समझ में आती है कि धुआं वहीं उठता है जहां आग लगती है। देश के महानगरों में स्थित निजी अस्पतालों के बारे में इन दिनों जो सुनने में आ रहा है उससे यह पता चलता है कि यह मेडिकल प्रोफेशन वैसा नहीं रह गया जो दशकों पहले हुआ करता था।


एक तरफ देश और दुनिया के मेडिकल क्षेत्र में तकनीक की बदौलत चिकित्सा सुविधा बेहतर हुई है तो खर्चे भी बढ़े है। एक तरफ अगर मरीजों को सुविधा हासिल हुई है तो उसकी लागत ताबड़तोड़ बढ़ी है। लेकिन जिस तरह के मामले आजकल देखने में आते है उससे यह लगता है कि कुछ अस्पताल इलाज के नाम पर पैसे बनाने का काम कर रहे है। उक्त मरीज के इलाज की बजाय अस्पताल का ध्यान पैसे पर टिक जाता है। मैं वो दिन आजतक नहीं भूला हूं जब पटना में अपने पिताजी का इलाज करा रहा था तब अस्पताल में उनके ठीक बगलवाले बेड में एक मरीज को 17 दिनों से वेंटिलेटर पर अस्पताल ने रखा था। परिजनों ने चुपके-चुपके रात में अपने एक जान-पहचान वाले डॉक्टर को बुलाया था। उस डॉक्टर ने जब इस बात की पुष्टि की कि जिस मरीज को वेंटिलेटर पर रखा गया है उसकी काफी पहले मौत हो चुकी है। यह जानकर परिजनों को धक्का लगा। अस्पताल प्रशासन सकते में आ गया। मृतक के परिजनों ने तबतक पुलिस को भी बुला लिया था। अस्पताल प्रशासन ने जो फाइनल बिल बनाया उसमें सिर्फ एक दिन वेटिंलेटर का चार्ज लगाया गया था। अस्पताल ने यह बात शर्मसार होते हुए मानी कि मरीज को वेंटिलेटर लगाए जाने के एक दिन बाद ही मौत हो चुकी थी।


इस घटना के बाद मैंने जाना कि सच में देश के कुछ अस्पतालों की इंसानियत मर चुकी है तभी वह मरे हुए इंसानों को जिंदा बताकर डॉक्टरी का नहीं बल्कि 'लूटपाट' का धंधा कर रहे हैं। काश ऐसी स्थिति में मरा हुआ इंसान यह बता पाता कि वो जिंदा नहीं मर चुका है।