21वीं सदी और बच्चों के प्रति अपराध में 889% वृद्धि के मायने
हाल ही में भारत की महत्वपूर्ण सरकारी संस्था राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2016 में हुए अपराधों का आंकड़ा जारी किया. हर साल ये आंकड़े जारी होते हैं, अखबारों-टीवी चैनल पर आते हैं. हम दुःख मनाते हैं और अपने रोज़मर्रा के काम में जुट जाते हैं. यही आज के समाज और राज्य व्यवस्था की सीमा है.
भारत बच्चों के लिए केवल असुरक्षित ही नहीं, बल्कि खतरनाक स्थान बनता जा रहा है. शायद भारत ही नहीं पूरी दुनिया बच्चों के साथ उपनिवेश सरीखा और बर्बर व्यवहार कर रही है. क्या आप विश्वास करेंगे कि वर्ष 2001 से 2016 के बीच भारत में बच्चों के विरुद्ध अपराध के 595089 मामले दर्ज किये गए. इनमें से 290553 यानी 49 प्रतिशत मामले तो आखिरी तीन सालों (2014 से 2016) में ही दर्ज हुए. वर्ष 2013 और 2014 के बीच बच्चों के प्रति अपराध के मामलों में 54 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई. बच्चों के विरुद्ध जितने मामले दर्ज हुए उनमें से 153701 मामले (26 प्रतिशत) बलात्कार-यौन शोषण और 249383 मामले (42 प्रतिशत) अपहरण के ही थे. इन सोलह सालों में अपहरण की मामलों में 1923 प्रतिशत और बलात्कार-गंभीर यौन अपराधों में 1705 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
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इस अवधि में सभी वर्ष-समूहों में बच्चों के प्रति अपराध की वृद्धि एक समान नहीं रही है. भारत के स्तर पर वर्ष 2001 से 2010 के बीच अपराधों में 147 प्रतिशत की वृद्धि हुई, किन्तु अगले वर्ष-समूह वर्ष 2010 से 2016 के बीच यह वृद्धि बढ़कर 301 प्रतिशत हो गई. शुरू के दस सालों में मध्यप्रदेश में यह वृद्धि 245 प्रतिशत थी, पर सदी के दूसरे दशक के आंकड़े बताते हैं कि अपराधों में वृद्धि 180 प्रतिशत रही. बहरहाल कुल वृद्धि 865 प्रतिशत रही है. बिहार में शुरू में दर्ज अपराधों की संख्या में 2120 प्रतिशत की वृद्धि हुई, बाद में यह 113 प्रतिशत रही. कर्नाटक, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में बच्चों के प्रति अपराध के मामले गंभीर हुए हैं.
पिछले साल यानी 2017 में चंडीगढ़ में एक 10 साल की बच्ची थी. बोलती कम थी, पर बहुत अच्छी और खुशमिजाज़. वह छठवीं कक्षा में पढ़ रही थी. उसे गणित और इंग्लिश विषय पसंद थे. कार्टून देखना भी उसे अच्छा लगता था. उसका नाम चिंकी था. हांलाकि यह बदला हुआ नाम है. आप सोच रहे होंगे इसमें नया क्या है; बच्चे तो होते ही हैं ऐसे. 28 जुलाई 2017 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस बच्ची के गर्भपात की अनुमति देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसका गर्भ 32 सप्ताह का हो चुका था. 29 वें सप्ताह में ही पता चला कि वह गर्भवती है, जब उसने पेट में दर्द की शिकायत की और उसकी जांच हुई. उसका साधारण सा पर अच्छा परिवार सकते में आ गया. चिंकी के साथ उसके एक रिश्तेदार ने बलात्कार किया था.
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अपने आसपास वृद्धि दर, विकास और उन्नति की बहुत तेज़ हवा बह रही है. यह हवा हमारे बीच से प्रेम, मानवता और नैतिकता को उड़ा कर ले जा रही है. 28 जनवरी 2018 को दिल्ली में एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ. उसकी उम्र 8 महीने थी. उसके माता-पिता बच्चों को अपनी भाभी के पास छोड़कर काम पर गए हुए थे. जब उसकी मां काम से लौटी तो उसने बच्ची को खून से लथपथ पाया. पता चला कि भाभी के लड़के ने उसके साथ बलात्कार किया. जब अस्पताल में उसे ले जाया गया तो कहते हैं कि इलाज़ के दौरान पूरे अस्पताल को उसकी चीत्कार ने हिलाकर रख दिया था. तीन घंटे चला उसका आपरेशन. वर्ष 2016 में 6 साल से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार के 520 मामले दर्ज हुए. क्या परंपरागत रूप से सुसंस्कृत माने जाने वाले भारतीय समाज का यही चरित्र रहा है? क्या यह भारत विश्व गुरु होने का दावा करता है? मैं कहता हूं कि मौजूदा समाज से ज्यादा अश्लील, हिंसक और घातक समाज हो ही नहीं सकता है.
इतिहास में युद्धों और राज व्यवस्थाओं ने हिंसा की है, लूट-पाट और असंवेदना का प्रदर्शन किया है; किन्तु क्या हमारा समाज, समाज के सदस्य यानी आम लोग खुद बच्चों के प्रति अपराध जैसे घृणित कृत्य में शामिल नहीं हैं? हज़ारों सालों के युद्ध, हिंसा और उपनिवेशवाद के प्रयोगों ने आखिर समाज में इस अपराध के रूप में अपना स्थान बना ही लिया है. यह समाज घातक इसलिए भी है क्योंकि इसमें हिंसा-अपराध-शोषण करने वाला कोई अपरिचित या दुश्मन नहीं होता; इसमें रिश्ते से जुड़ा व्यक्ति ही हमारे साथ हिंसा करता है.
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हमें बार-बार समझाया जाता है कि बच्चे कोरे कागज़ की तरह होते हैं और हमारे समाज, परिवार और व्यवस्था का पर्यावरण उस कोरे कागज़ पर बच्चे के व्यक्तित्व की इबारत लिखता है. जैसा उसके साथ व्यवहार होगा, जिस माहौल में उसकी परवरिश होगी, वैसा ही उसका विकास होगा. और जैसा बच्चे का विकास होगा, वैसा ही समाज का चरित्र भी बनेगा. पिछले तीन दशकों में हमारी ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की राजनीति और आर्थिक नीति में जबरदस्त बदलाव आया है, जिसका बहुत गहरा असर समाजनीति पर पड़ा है. उपनिवेशवाद ने नया रूप अख्तियार किया है.
हम आज भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि आर्थिक विकास के लिए हम क्या और कितनी बड़ी कीमत चुका रहे हैं? एक तरफ तो विकास के मौजूदा नीति पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को तहस-नहस कर रही है, धरती को जला और डुबो रही है, बीमारियों के प्रकोप को तेज़ी से बढ़ा रही है, तो वही. दूसरी तरफ समाज में बहुत तेज़ी से हिंसा का विस्तार और आपसी विश्वास का क्षरण हो रहा है. सबसे बुरा पहलु यह है कि हमने बच्चों और उनके जीवन को सामाजिक-आर्थिक बदलाव की सबसे बड़ी ताकत और सबसे अहम् संसाधन मानना छोड़ दिया है.
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अब ये महज़ सैद्धांतिक वक्तव्य नहीं रह गए हैं कि हमारा समाज गहरे संकट में है. 21 वीं सदी को सबसे तेज़ गति से विकास करने वाली सदी माना गया है. कहते हैं कि लोग बहुत अमीर हो रहे हैं; पर यह सच्चाई नहीं है. वर्ष 1982 में सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की छः प्रतिशत संपत्ति थी. अगले एक दशक में यह बढ़कर 10 प्रतिशत हो गयी. वर्ष 2014 में 1 प्रतिशत लोगों के पास 23 प्रतिशत सम्पदा थी और 10 प्रतिशत लोगों के पास 56 प्रतिशत. अब देश के 0.1 प्रतिशत लोगों के पास इतनी संपत्ति है, जितनी भारत की आधी जनस.ख्या यानी 50 प्रतिशत के पास भी नहीं है. आक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2016 में सबसे अमीर 1 प्रतिशत व्यक्तियों का कुल निजी सम्पदा के 58 प्रतिशत पर कब्ज़ा था. वर्ष 2017 में इन 1 प्रतिशत व्यक्तियों का देश की 73 प्रतिशत सम्पदा पर कब्ज़ा हो गया.
जब दुनिया बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रही थी तब यह यह कहा गया था कि दुनिया. बेहतर हो रही है! दुनियां में विकास हो रहा है! बहुत सारे चित्र प्रकाशित हुए थे, जिनमें सूरज उगता हुआ दिखाई दे रहा था. फूल खिल रहे थे और मौसम बहुत ही खुशगवार दिखाई दे रहा था. उस नयी सदी का यह अठारहवां साल है. यानी यह सदी वयस्क हो रही है. यह वक्त अपनी समीक्षा करने का भी तो है कि क्या सचमुच उगता हुआ सूरज सचमुच वैसा ही है, जैसा 1 जनवरी 2000 की सुबह दिखाया गया था. कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह सदी हमेशा से ज्यादा भयावह होने जा रही थी और इस भयावहता को छिपाने के लिए हर रोज़ ‘आनंद, ख़ुशी और विकास का भ्रम” बहुत तन्मयता से गढ़ा गया. इस समाज की बढ़ती वीभत्सता और कुरूपता को छिपाने के लिए हमें नशे के बाज़ार और बाज़ार के नशे के भ्रमजाल में फंसा दिया.
भुखमरी सूचकांक से कहीं ज्यादा बड़ी है!
देश की व्यवस्था में सबसे ऊंचे पदों पर विराजमान लोग, भ्रम के पर्वत पर इतनी ऊंचाई पर चढ़ जाते हैं, कि उन्हें यह भान ही नहीं रहता कि बच्चों और महिलाओं का समाज तो गर्त में जा रहा है. वे चीख-चीख पर ऐसे आंकड़ों से वार करते हैं, जिनका कोई भी पुनर्परीक्षण कर ही नहीं सकता है. राजा बाबू, आप यह कह दो कि देश का सकल घरेलू उत्पाद 10 हज़ार अरब रूपए है, या यह भी कह दो कि 10 लाख अरब रूपए है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि विकास को मापने के आपके मानक ही भ्रम, झूठ और कुत्सित मानसिकता की नींव पर खड़े हैं. आपके मानकों में बराबरी और गरिमा का तो कोई स्थान है ही नहीं. आपके मानकों में असहमति और किसी भी विचार को स्वीकार करने की स्वतंत्रता भी नहीं हैं. आपके मानकों में भविष्य के प्रति उत्तरदायी होने की भावना भी तो नहीं है जिसमें यह विचार किया जाता है कि आने वाले समाज के लिए हवा, पानी, पहाड़, खनिज, नदिया. और जंगल बचे रहेंगे कि नहीं!
चलिए छोड़िये, ये थोड़ी गहरी बातें हैं; आपको समझ न आए.गी; क्योंकि सत्ता का चरित्र ही लूट और समाज के खिलाफ होने की मान्यता पर खड़ा हुआ है. क्या आपके विकास की परिभाषा में आज की पीढ़ी के बच्चों के लिए कोई स्थान है? ऐसा लगता है कि हमें उन्हें “विकास की बेदी पर बलि” चढ़ने के लिए नियुक्त कर दिया है. राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) की इस सदी की रिपोर्ट्स का अध्ययन करने से पता चलता है कि भारत में वर्ष 2001 से 2016 के बीच बच्चों के खिलाफ होने वाले मामलों में 989 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इस दौरान खोखले मानकों पर बोये गए आपके सकल घरेलू उत्पाद (जिसे मापा नहीं जा सकता है) में तो छः गुना की ही वृद्धि हुई है. वस्तुतः, आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पूरी ईमानदारी और गंभीरता से “विकास” की ऐसे परिभाषित करें जिसमें “मानवीय” पक्ष को केन्द्रित वरीयता हासिल हो.
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देश की आर्थिक तरक्की को आप इस तथ्य के साथ जोड़ कर कैसे देखेंगे – पिछले 16 सालों में भारत में बच्चों से बलात्कार और यौन अपराधों में लगभग 1605 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. वर्ष 2001 में बच्चों से बलात्कार के 2113 मामले दर्ज हुए थे, वर्ष 2016 में यौन अपराधों के मामले बढ़ कर 36022 हो गए. ये भी केवल वही आंकड़े हैं, जो दर्ज हुए हैं, वरना अपनी व्यवस्था तो अपराध दर्ज न करके ही अपराध कम कर देती है. इसमें भी भौचक कर देने वाला तथ्य यह है कि बच्चों से बलात्कार के 95 प्रतिशत मामलों में (वर्ष 2016 में 38947 में से 36856 में) अपराध करने वाला कोई निकट सम्बन्धी और परिचित व्यक्ति ही रहा है. अपनी विकास की परिभाषा में टूटते विश्वास और हिंसा के प्रति सहज होते जाने के संकट पर कोई विचार है क्या?
अपना देश बहुत धर्म करता है. भीमकाय ध्वनि विस्तारक यंत्र लगा कर और आजकल हवा में धारदार हथियार लहराकर हम यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि देश भक्ति में लीन है; लेकिन सच यह कि विकास और कथित धार्मिकता के शोर में हम बच्चों की पुकार को दबा दे रहे हैं. हमारे प्रतिनिधि अब चीख-चीख कर क्यों बोलते हैं; निःसंदेह इसलिए ताकि लोग समाज का सच्चा चेहरा सामने लाने से डरें. बच्चों से बलात्कार होने पर परिवार और समाज “बदनामी” के नाम पर चुप रहता है; वो यह भूल जाता है कि ऐसा करके वह समाज के चरित्र को कितना गहरा आघात पंहुचा रहा है. संभव है कि कई मित्र यह भी बताए.गे कि ऐसा नहीं है कि सरकार कुछ कर नहीं रही है; परन्तु मेरा मूल प्रश्न सरकार की पहलकदमी से नहीं, समाज के चरित्र और स्वभाव के निर्माण से जुड़ा है.
अपने आस-पास या देश में कोई भी ऐसा व्यक्ति न होगा, जिसे यह पता न हो कि स्कूलों में क्या हो रहा है? वास्तव में हमने अपने शिक्षा केन्द्रों को “बर्बर कत्लखाना” बना दिया है, जहां बच्चों की आवाज़ का क़त्ल करके, हिंसा को व्यवस्थित रूप से अंजाम दिया जाता है. उन्हें प्रतिस्पर्धा की आग में इतना तपाया जाता है कि उनकी संवेदनाएं मर जाएं, उनकी प्रश्न पूछने और उत्तर ढू.ढने की ग्रंथि मर जाए. उन्हें हिंसा करने और विकास के लिए लूटपाट करना सिखाया जाता है. उन्हें अहसास करा दिया जाता है कि उनके साथ यौन हिंसा होगी और इस पर उन्हें चुप्प रहना है. परिणाम, भारत में 8 महीने की बच्ची के साथ भी बलात्कार होने लगता है.
एक बेहतर और विकसित समाज के मानकों में हम बच्चों और महिलाओं के जीवन को शामिल करना भूल गए. राजनीति से लेकर अर्थनीति तक; जो भी तय किया गया, उसने न केवल गैर-बराबरी बढ़ाई, बल्कि बच्चों को और महिलाओं को भयंकर तरीके से हिंसा के मुंह में भी धकेला जा रहा है. ऐसा साफ दिखने लगा है कि आज दलीय राजनीति और नीति नियामक संस्थाएं भरसक कोशिश कर रही हैं कि कहीं से भी बच्चे विकास के केंद्र में न आने पायें; क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो उन्हें संसाधनों के बड़े दोहन, गैर-बराबरी और हिंसा पर केन्द्रित अपनी वर्तमान विकास की नीति को पूरी तरह से खारिज कर नयी परिभाषा गढ़ना पड़ेगी!
भारत में बच्चे न्याय और स्वतंत्रता से वंचित हैं. क्या बिना न्याय के विकास हो सकता है? हम ऐसे दौर में हैं जहां एक साल में छः लाख बच्चे जीवन के पहले महीने में ही मर जाते हैं. जहां 6.5 करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. जहां मौजूदा हालातों में हर घंटे 6 बच्चों का अपहरण और 4 बच्चों के साथ बलात्कार होता है. कितना विरोधभास है कि सरकारों को चीख-चीख कर, अरबों रूपए के विज्ञापन देकर, झूठे आर्थिक आंकड़े रच कर देश को यह बताना पड़ता है कि खूब विकास हो रहा है, बच्चे और महिलायें सोचते हैं कि ये विकास गया कहां? वास्तव में विकास के साथ बलात्कार हुआ और उसका अपहरण हो गया.
हाल ही में भारत की महत्वपूर्ण सरकारी संस्था राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2016 में हुए अपराधों का आंकड़ा जारी किया. हर साल ये आंकड़े जारी होते हैं, अखबारों-टीवी चैनल पर आते हैं. हम दुःख मनाते हैं और अपने रोज़मर्रा के काम में जुट जाते हैं. यही आज के समाज और राज्य व्यवस्था की सीमा है. शायद हम जानते भी हैं कि हम मानवीय समाज के अंत की तरफ बढ़ रहे हैं. हो सकता है मानव शरीर अस्तित्व में रहेगा, पर उसका स्वरुप तो मिटने की दिशा में ही बढ़ रहा है. मैं और आप किसी भी राजनीतिक विचारधारा से सम्बंधित हो सकते हैं; उसे कुछ पल के लिए थोड़ा किनारे कीजिये और इंसान का रूप लेकर इस सवाल का जवाब खोजिये कि वह समाज कैसा होता है जिसमें 8 महीने की बच्ची के साथ बलात्कार किया जाता है. जहां बलात्कार और हिंसा करने वाले 95 प्रतिशत लोग परिचित और करीबी होते हैं; यानी जिस पर विश्वास होता है, वही बलात्कार का कर्ता होता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मुद्दों पर शोधार्थी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)