Opinion : वन अधिकार पर व्यवस्था का आघात
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Opinion : वन अधिकार पर व्यवस्था का आघात

सच तो यह है कि वन विभाग वन अधिकार के कानून को अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिए चुनौती के रूप में देखता है. इस कानून के बनने की प्रक्रिया के दौरान और इसके बन जाने के बाद भी वनविभाग विशेषज्ञों ने हरसंभव प्रयास किया कि इसे खत्म या कमजोर किया जा सके.

Opinion : वन अधिकार पर व्यवस्था का आघात

वस्तुतः विकास का एक मतलब आदिवासी अस्मिता और प्राकृतिक संसाधनों से जीवंत जुड़ाव रखकर जीने वाले समाज पर खतरे के साये से भी जुड़ा है. जो समाज एकाधिकार, नियंत्रण और उपनिवेशवाद में विश्वास नहीं रखता, उसे अविकसित और अपराधी माना जाने लगा है. वर्ष 2006 में भारत में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक न्याय और कुदरत की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानून बना, जिसे आम बोलचाल की भाषा में वन अधिकार कानून-2006 कहा जाता है. इस कानून के पहले पन्ने पर कुछ अहम वाक्य दर्ज हैं –

1. वन में पीढ़ियों से निवास करने वाले आदिवासी और अन्य परंपरागत वनवासियों के अधिकार अभिलिखित नहीं हैं, उनके वन अधिकारों और वन भूमि के अधिभोग को मान्यता देने के लिए यह कानून बनाया गया है.
2. इसमें अधिकारधारकों द्वारा दीर्घकालीन उपयोग के लिए जिम्मेदारी और प्राधिकार, जैव विविधता का संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने, उनकी जीविका और खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते समय वन संरक्षण व्यवस्था को मजबूत करना शामिल है.
3. और उपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी, जिससे उनके प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाये रखने के लिए अभिन्न अंग हैं;
4. इस कानून के तहत व्यक्तिगत उपयोग के लिए 10 एकड़ जमीन और अन्य जरूरी उपयोगों- निस्तार, रोज़गार, पर्यावरण, पानी, रास्ता, शमशान, गोठान आदि के लिए व्यापक सामुदायिक अधिकार दिए जाने का स्पष्ट प्रावधान है. लोगों को वन संसाधनों के संरक्षण की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है.

इस कानून के लागू होने के 11 साल पूरे हो जाने के बाद सतना के गोडान टोला गांव (पंचायत देवलहा) के राजाराम सिंह गोंड यह बयान करते हैं कि वे 1990 के दशक से वन परिक्षेत्र बीट क्रमांक 837 के अंतर्गत 5 एकड़ जमीन पर खेती करते रहे हैं. इसके पास ही उनके भाई बब्बू सिंह गोंड की तीन एकड़ जमीन है. इसके अलावा इन दोनों के पास कहीं अन्यत्र कोई और भूमि या आजीविका का साधन नहीं है. राजा राम और बब्बू सिंह वर्ष 2011, वर्ष 2014 और वर्ष 2017 में कानून के तहत वन अधिकार पाने के लिए दावा कर चुके हैं, पर उनका दावा उपखंड स्तरीय समिति ने यह कहकर निरस्त कर दिया कि इन्होंने निवास का सबूत और पीओआर की प्रति नहीं दी, जबकि कानून के मुताबिक गांव के बुजुर्गों का बयान भी साक्ष्य है और यह संलग्न था. अब राजाराम को वन विभाग का कोप भोगना पड़ रहा है.

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इसी गांव के सुमन सिंह गोंड ने 3 एकड़ जमीन के लिए दावा किया था. दावे की जांच हुई, जीपीएस से नक्शा बनाया गया, दावे का सत्यापन हुआ, पर जब अधिकार पत्र मिला तो उस पर 0.477 हेक्टेयर यानी 1.17 एकड़ का ही अधिकार दिया गया. ऐसा क्यों हुआ, इसका कोई जवाब उपखंड स्तरीय समिति नहीं देती.

सतना जिले के मझगवां विकासखंड के तहत भठवा के 41 गोंड आदिवासी परिवारों ने दावे किए हैं, उनका सत्यापन हो चुका है. सालों गुज़र जाने के बाद भी कोई निर्णय नहीं हुआ. जब लोगों ने सवाल-जवाब किए तो कहा गया कि पीओआर (वकुआ जुर्म की अव्वल रिपोर्ट) नहीं है, इसलिए अधिकार नहीं मिलेगा. जबकि कानून कहता है कि गांव के बुजुर्गों के बयान भी मान्य साक्ष्य हैं.

देवलहा पंचायत के गोडान टोला गांव के गया प्रसाद कोल वर्ष 1972 से ललुवा भौठी हार के पास वन सीमा में 3 एकड़ जमीन पर खेती कर रहे हैं. उन्होंने इस टुकड़े पर अधिकार पत्र पाने के लिए दावा किया, ग्रामसभा ने उसका सत्यापन किया, पर उन्हें अधिकार नहीं मिला. इसके उलट वन विभाग के नुमाइंदों ने उनकी जमीन पर जबरिया नर्सरी लगाकर नाली खुदवा दी. गया प्रसाद कोल लगातार सरकारी दफ्तर में अपने दावे के कागज खोज रहे हैं, पर उन्हें पता चला कि उनकी फ़ाइल तो गुमशुदा हो गई है. ठीक यही कहानी दयाली कोल और रामनरेश गोंड की भी है.

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सच तो यह है कि सरकार, विशेषकर वन विभाग इस कानून को अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिए चुनौती के रूप में देखता है. इस कानून के बनने की प्रक्रिया के दौरान और इसके बन जाने के बाद भी वनविभाग विशेषज्ञों ने हरसंभव प्रयास किया कि इसे खत्म या कमजोर किया जा सके. वास्तविक यह है कि कुदरती संसाधनों से सबसे ज्यादा संपन्न आदिवासी समाज को अब स्वाभाविक रूप से पर्यायवाची वंचित, गरीब और पिछड़े हुए लोगों की प्रजाति के रूप में देखा जाने लगा है. समाज के आधुनिक विश्लेषण में वे अक्सर अविकसित माने जाते हैं और उनके विकास के लिए “योजनाएं” बनाई जाती हैं. हमारी धारणाओं ने उन्हें कहीं हाशिए पर धकेल दिया, जबकि सच यह है कि विकास के नाम पर संसाधनों के दोहन के लिए उनका शोषण किया गया, उनका खूब विस्थापन हुआ और उनसे जंगल, जमीन, विविधता, पानी, मिट्टी और उनकी व्यवस्था छीन लिए गए. ऐसा होने के बाद इन समाजों में कुपोषण और आर्थिक गरीबी का विस्तार हुआ. इसके समाधान के लिए राशन-पोषण की योजनाएं चलाई गईं. चूंकि समस्या का मूल कारण संसाधनों का अभाव था, अतः कुपोषण-गरीबी खतम न हो पाई.

ऐसी अवस्था में वन अधिकार कानून वास्तव में सही समाधान की तरफ जाने वाला रास्ता दिखाई दे रहा था, किन्तु संसाधन पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने वाली व्यवस्था इसके क्रियान्वयन में बड़ी बाधा बनकर खड़ी हो गई. यदि केवल मध्यप्रदेश के बारे में बात करें तो अक्सर यह आंकड़ा सामने रखा जाता है कि इस राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत यानी 1.5316 करोड़ “आदिवासी” हैं. यह देश में सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी वाला राज्य है. यहां 43 आदिवासी समूह हैं. इसके अलावा लगभग 85 लाख अन्य परंपरागत वन निवासी हैं. इन कारणों से सामाजिक-आर्थिक बदलाव में वन अधिकार कानून बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रखता है.

मध्यप्रदेश में नवंबर 2017 तक 422403 आदिवासियों ने वन भूमि पर अधिकार के लिए व्यक्तिगत दावे दाखिल किये. इनमें से 291393 दावे यानी 47.7 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए. कुपोषण से प्रभावित और जबरिया पलायन करने के लिए मजबूर कोल और मवासी आदिवासी बहुत जिले सतना में आदिवासियों के 8466 दावों में से 6398 दावे यानी 75.6 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए. सीधी में 78.8 प्रतिशत, उमरिया में 63.9 प्रतिशत, सिवनी में 67.4 प्रतिशत, पन्ना में 66.8 प्रतिशत, दमोह में 61.7 प्रतिशत, झाबुआ में 65.5 प्रतिशत, अशोक नगर में 76.9 प्रतिशत दावे निरस्त किए गए.

अन्य परंपरागत वन निवासियों के द्वारा किये गए दावों के हालत बहुत दर्दनाक हैं. मध्यप्रदेश में ऐसे 154130 दावे किए गए हैं, जिनमें से 150970 यानी 97.9 प्रतिशत दावे खारिज कर दिए गए. इसमें कानून के उस विसंगतिपूर्ण प्रावधान ने बड़ी भूमिका निभाई है, जिसमें कहा गया था कि अन्य परंपरागत वन निवासियों को उस क्षेत्र में अपनी तीन पुश्तों की मौजूदगी का प्रमाण देना होगा. यह लगभग साबित हुआ. राज्य के 42 जिलों में इस श्रेणी के सभी 100 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए यानी सरकार मानती है कि इन जिलों के गांवों में कोई भी गैर-आदिवासी परिवार निवास करके वन भूमि पर खेती नहीं कर रहा था.

व्यापक तौर पर वन अधिकार कानून के तहत अधिकतम 4 हेक्टेयर जमीन पर अधिकार दिए जाने का प्रावधान किया गया है, किन्तु मध्यप्रदेश में औसतन 1.4 हेक्टेयर भूमि का ही अधिकार पत्र दिया गया. मध्यप्रदेश में 224170 स्वीकृत दावों पर कुल 323857.4 हेक्टेयर जमीन पर अधिकार अभिलिखित किया गया. आदिवासी बहुल झाबुआ में 1 हेक्टेयर, अलीराजपुर में 1.2 हेक्टेयर, सिवनी में 1 हेक्टेयर, मंडला में 1.4 हेक्टेयर, बालाघाट में 1.2 हेक्टेयर और डिंडोरी में 1.8 हेक्टेयर का अधिकार मिला. कई जिले बहुत वंचितपन की श्रेणी में हैं. सीधी में औसतन 0.5, अनुपपुर में 0.7, शहडोल में 0.3, दमोह में 0.9, राजगढ़ में 0.5, विदिशा में 0.7, रतलाम में 0.4 हेक्टेयर जमीन पर अधिकार पत्र मिला.

भोपाल आदिवासी बहुल जिला नहीं है, पर यहां 1026 स्वीकृत दावों पर 7391.46 हेक्टेयर भूमि यानी हर दावे पर औसतन 7.2 हेक्टेयर जमीन का अधिकार दिया गया. इन स्वीकृत दावों में से आदिवासियों के केवल 210 दावे स्वीकृत हुए हैं, जबकि शेष 816 दावे गैर-आदिवासियों के थे.

वन अधिकार कानून का सबसे अहम पहलू सामुदायिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है. यूं तो इस कानून के क्रियान्वयन में आदिम जनजाति कल्याण विभाग की केन्द्रीय भूमिका थी, किन्तु वन विभाग ने पूरी प्रक्रिया और निर्णय के अधिकार को अपने नियंत्रण में रखा है. यही कारण है कि चाहकर भी आदिम जनजाति विभाग वन अधिकार कानून का “न्यायोचित” क्रियान्वयन नहीं कर पाया. मध्यप्रदेश में सामुदायिक अधिकार के 39416 दावे दर्ज किए गए, किन्तु इनमें से 11946 (30.3 प्रतिशत) खारिज कर दिए गए.

लघु वन उपज इकठ्ठा करने, रास्ते, अपने आराध्य को पूजने, टूटी लकड़ी, जड़ी-बूटियों-औषधियां, खाद्य सामग्री, कब्रिस्तान, गोठान आदि के लिए जंगल का इस्तेमाल करने के लिए सामुदायिक हक दिए जाने का प्रावधान किया गया है. राज्य के 85.91 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रफल में से सामुदायिक हक के रूप में केवल छह प्रतिशत यानी 527038.3 हेक्टेयर वन भूमि पर ही हक दिया गया, जबकि आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी लगभग 70 प्रतिशत वन भूमि का सार्वजनिक उपयोग करते हैं. यदि उन्हें वास्तव में ये हक मिलता तो वन, वन्य प्राणी और जैव-विविधता को भी सामाजिक संरक्षण मिलता.

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भारत में जब भी कुपोषण के आघात की कहानी सुनाई जाती है, तो उसके महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में शिवपुरी और श्योपुर का उल्लेख होता है. मध्यप्रदेश सरकार की ताज़ा जानकारी बताती है कि इन दोनों जिलों में सामुदायिक हक मान्य तो किये गए हैं, किन्तु हक के रूप में एक इंच जमीन भी सामुदायिक अधिकार के रूप में समाज को नहीं सौंपी गई है. इसी तरह खरगोन, पन्ना, उमरिया, सिंगरौली, सतना और बड़वानी में भी सामुदायिक हक के रूप में लोगों को कुछ नहीं सौंपा गया.

हमें यह भी समझना होगा कि गैर-आदिवासी समुदाय के परिप्रेक्ष्य में इस कानून की बड़ी जरूरत रही है. इस व्यापक सन्दर्भ में वन अधिकार कानून का बहुत गहरा महत्व है. इससे आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासियों की “पर-निर्भरता” और “बदहाल पलायन” में बहुत कमी आ सकती थी, लेकिन सरकार की कार्यशैली ने ऐसा संभव होने नहीं दिया.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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