भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन के रथ पर सवार होकर दिल्ली की सत्ता में आने वाली आम आदमी पार्टी (आप) के विधायकों द्वारा यहां के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ कथित बदसलूकी किंचित चिंतित करने वाली खबर है, लेकिन चौंकाने वाली नहीं है. आरोप-प्रत्यारोप में इस घटना की सच्चाई दब सकती है, लेकिन एक राजनीतिक विश्लेषक के लिए घटना विशेष के बजाय ऐसी घटनाओं में व्याप्त प्रवृति महत्वपूर्ण होती है, जिससे किसी पार्टी की राजनीतिक संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है. ऐसी घटनाएं उन लोगों के लिए निराशाजनक हो सकती हैं, जिन्होंने आप से नई राजनीति की उम्मीद लगा रखी होगी. 


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नव उदारीकरण से उपजी राजनीतिक संस्कृति से थके-उबे कई लोगों ने आप की राजनीति में वैकल्पिक राजनीति का दर्शन किया था. एक ऐसी राजनीति की उम्मीद लगाई थी, जो नव उदारवाद का विकल्प पेश करेगी, औद्योगिक पूंजीवादी व्यवस्था में लुटते-पिटते गरीबों की आकांक्षाओं को पूरा करेगी. वैकल्पिक राजनीति का यह चिंतन स्वाभाविक तौर पर गांधीवाद की तरफ जाता है. क्या आप की राजनीति गांधीवाद की तरफ जाती है, जिसमें सत्ता के प्रति अनासक्ति भाव हो? क्या आप की राजनीति जनता की अपेक्षा पर खरी उतर रही है, जिन्होंने उससे एक नई राजनीतिक संस्कृति के निर्माण की उम्मीद लगा रखी थी? 


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आप की राजनीति से वे चौंक सकते हैं, जिन्हें उसके राजनीति के चरित्र की समझ नहीं होगी. हालांकि अब ऐसे चौंकने वाले लोग भी कम ही होंगे, क्योंकि पिछले तीन वर्षों के भीतर आप के अंदर ऐसे कुछ राजनीतिक घटनाएं घट चुकी हैं, जिससे उनका भ्रम टूट गया होगा, अन्यथा इसके उद्भव के समय ऐसे लोगों का एक बड़ा हुजूम था, जो उसकी राजनीति पर लट्टू थे. इसमें पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी से लेकर एनजीओ मार्का राजनीति करने वाले लोग भी शामिल थे. समय-समय पर होने वाली घटनाओं के मद्देनजर यह सोचने पर विवश होना पड़ता  है कि ऐसे लोग आप की राजनीति की प्रकृति को समझने में विफल क्यों रहे. क्या वे वास्तव में उसकी राजनीतिक प्रकृति को समझ नहीं पाए या जान-बूझकर उसके प्रति मौन साध लिए थे?


कहा जा सकता है कि निजीकरण से पैदा भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी इस कदर तंग आ चुका था कि उसे भ्रष्टचार विरोधी अन्ना आंदोलन के नारों ने बहुत लुभाया. उसे लगा कि एक ऐसा मसीहा आ गया है, जो सत्ता की राजनीति से दूर रहकर आम आदमी की तरह काम करेगा. शायद यही कारण रहा होगा कि जनता ने अतिवादी कदम उठाया और कांग्रेस-भाजपा को बुरी तरह नकार कर आप के पक्ष में मतदान किया. लेकिन क्या आप में सत्ता की राजनीति के तत्व सरकार में आने के बाद प्रकट हुए? क्या इसके बीज आंदोलन के समय नहीं थे? 


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ऐसा मानना कठिन होगा कि यह सब अचानक प्रकट हो गया. हां, यह कहा जा सकता है कि सत्ता जनित प्रवृत्ति सरकार में आने के बाद मुखर हो गई होगी, जिसका आभास आप के नेताओं को भी नहीं रहा होगा. पर उस समय भी अन्ना की कोर टीम के एक सदस्य ने इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बारे में कहा था, हालांकि उस समय ऐसा माहौल था कि इस बात पर विश्वास करने वाले लोग कम थे. कारण यह था कि अन्ना आंदोलन के बारे में यह धारणा थी कि यह गैर-राजनीतिक आंदोलन है. आम आदमी ने इसी कारण इस पर विश्वास जताया था. लेकिन अन्ना की कोर टीम के उस सदस्य की बात उस समय सही साबित हुई, जब 2012 में आम आदमी पार्टी खड़ी हो गई. ऐसे में यह सवाल खड़ा हो गया कि आंदोलन से पार्टी निकली या पार्टी खड़ा करने के लिए आंदोलन किया गया था? 


इस सवाल का अंतिम उत्तर मिलना कठिन है. लेकिन यह पार्टी जिस तरह खड़ी हुई थी, उससे गैर-सरकारी संगठनों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो गया था. यह धारणा बनी कि समाज सेवा करने वाले संगठन राजनीति में हस्तक्षेप कर सकते हैं. इसके बाद यह देखा गया कि अन्ना की कोर टीम से जुड़े कुछ गैर-सरकारी संगठनों के लोगों ने आप से दूरी बना ली थी. अन्ना हजारे भी आप से दूरी बना चुके हैं. जनता को इससे भी फर्क नहीं पड़ता. जनता तो यही चाहती थी कि आप समाजवादी पैटर्न पर काम करे, लेकिन आप ने समाजवाद का वास्ता देकर ज्यादा से ज्यादा समाजवादियों को जोड़ा, ताकि अपनी हैसियत मजबूत कर सके. अब इनमें से कई पार्टी से बाहर हैं या हाशिये पर आ चुके हैं. 


मौजूदा परिदृश्य में ऐसा लगता है कि समाजवाद इनके लिए सत्ता प्राप्ति का बहाना भर था. ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है, जो यह कहते हैं कि आप की राजनीति कभी पूंजीवाद के दायरे से बाहर नहीं निकल सकी. नई राजनीति तभी आगे बढ़ सकती थी, जब वह कारपोरेट के दायरे से बाहर निकलती. लेकिन भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार कारपोरेट पर नकेल कसने के लिए इनका लोकपाल आज तक नहीं आ सका. वह लोक-लुभावन फैसले करके गरीबों का मन बहला सकती है, लेकिन यह पार्टी मूलतः पूंजीवाद समर्थक है. केंद्र पर आरोप मढ़ कर अपनी कुनीतियों-नाकामियों को छिपाने का काम आप की सरकार बहुत चालाकी से करती रही. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के मुद्दे पर भी घालमेल होता रहा. इस तरह इसने वैकल्पिक राजनीति की संभावना को बहुत धक्का पहुंचाया है. कहा तो यहां तक जा रहा है कि इसने सत्याग्रह, स्वराज, वैकल्पिक राजनीति जैसी अवधारणाओं का अवमूल्यन किया है. इस अनुभव के बाद आने वाले दिनों में जनता नई राजनीति के नाम पर किसी आंदोलनकारी को समर्थन देने से परहेज करेगी. मुख्य सचिव अंशु प्रकाश से जुड़े विवाद ने इस धारणा को और पुख्ता किया है कि आप और अन्य पार्टियों में कोई फर्क नहीं है.