स्मृति शेष: अमृतलाल वेगड़ के सदेह हमारे बीच न होने के मायने...
वेगड़ ने बहुत पीड़ा के साथ कहा था, ‘हम हत्यारे हैं, अपनी नदियों के हत्यारे. क्या हाल बना दिया है हमने नदियों का?`
अमृतलाल वेगड़ नहीं रहे... 6 जुलाई की सुबह 11 बजे के लगभग यह सूचना मिली. ज्यों ही ये शब्द कानों में पड़े यकायक नर्मदा, वेगड़जी द्वारा शब्दों और चित्रों में उकेरी नर्मदा की छवियां कौंध गईं. बहुत लोग जानते हैं फिर भी बड़ा वर्ग है जो वेगड़जी और उनके कृतित्व से अनभिज्ञ है. उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि उनका जाना वास्तव में कितनी बड़ी क्षति है. वेगड़ वह मनीषी हैं, जिसने नर्मदा का साक्षात्कार उसके भरपूर सौंदर्य के साथ किया फिर भी यही लिखा - ‘मैं नर्मदा के सौन्दर्य से थोड़ा सौन्दर्य ही ले सका हूं. हम उतना ही ले पाते हैं, जितने के पात्र हैं.’
अमृतलाल वेगड़ होने का अर्थ नदी को उसके पूरे रूप-संसार के साथ जानना है और उनके न होने का अर्थ है पर्यावरण के ऐसे सपूत का न होना, जो हमें प्रकृति के कई-कई अर्थों से वाकिफ करवा रहा था. अफसोस यह कि नर्मदा का यह अनथक यात्री हमें सजग, सचेत करने को हमारे बीच अब नहीं है. सहारा है तो बस इतना कि उनकी पुस्तकें और रेखांकन भविष्य में हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे.
वेगड़ का जन्म मध्यप्रदेश की संस्कारधानी कहे जाने वाले जबलपुर में 3 अक्टूबर 1928 को हुआ था. 1948 से 1953 तक कोलकता के प्रख्यात शान्ति निकेतन से कला की पढ़ाई करने वाले वेगड़ ने नर्मदा के किनारे 4000 किमी. से ज्यादा की पदयात्रा की. इस यात्रा पर हिंदी में उन्होंने चार महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं- ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’, ‘अमृतस्य नर्मदा’, ‘तीरे-तीरे नर्मदा’. चौथी ‘नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो’ वर्ष 2015 में प्रकाशित हुई. इनके अलावा सैकड़ों चित्र, स्केच और कोलाज बनाए हैं. इन किताबों के गुजराती, मराठी, अंग्रेज़ी अनुवाद भी उपलब्ध हैं. मूल गुजराती में लिखे नर्मदा यात्रा वृत्तांत पर उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है. यह बताना जरूरी है कि वेगड़ ने 50 वर्ष की उम्र में 1977 में पहली बार नर्मदा परिक्रमा की थी और तब से लेकर 82 वर्ष की उम्र तक यात्राओं को जारी रखा.
नर्मदा उनके कार्यों में प्रतिबिंबित होती रही है. कथावाचक जैसी रोचक शैली में नर्मदा परिक्रमा के अनुभव वास्तव में साहित्य और पर्यावरण हितैषी समाज की धरोहर हैं. वेगड़ ने एक मुलाकात में बताया था कि उनके गुरु ने उन्हें कहा था- ‘जीवन में सफल मत होना, यह बेहद आसान है. तुम अपने जीवन को सार्थक बनाना.’ आज जब 90 वर्षीय वेगड़ के अवसान पर यह बात याद करते हैं तो महसूस होता है कि उन्होंने अपने गुरु को सार्थक जीवन की ही गुरु दक्षिणा प्रदान की है. वे बार-बार कहते रहे हैं – ‘नर्मदा को समझने-समझाने की मैंने ईमानदार कोशिश की है और मेरी कामना है कि सर्वस्व दूसरों पर लुटाती ऐसी ही कोई नदी हमारे सीनों में बह सके, तो नष्ट होती हमारी सभ्यता और संस्कृति शायद बच सके.’
वेगड़ ने बताया था कि प्रकृति और सौन्दर्य से प्रेम करने की प्रकृति उन्हें उनके पिता से मिली थी. अपने चित्र बनाने के लिए वे नर्मदा तट के आसपास जाते रहते थे. चित्र और स्केच के लिए बेहतर दृश्य की खोज में वे पहले आसपास फिर दूर-दराज के गांव-देहात तक पहुंचे. इस तरह उन्हें नर्मदा किनारे का सौंदर्य दिखाई दिया. नर्मदा परिक्रमा करते लोग मिले तो परिक्रमा को लेकर जिज्ञासा जागी. ऐसे ही दृश्यों से यह संकल्प दृढ़ हुआ कि नर्मदा की परिक्रमा की जाए. वे अपनी प्रथम पुस्तक ‘सौंन्दर्य की नदी नर्मदा’ में लिखते हैं- ‘कभी-कभी मैं अपने आप से पूछता हूं, यह जोखिम भरी यात्रा मैंने क्यों की? और हर बार मेरा उत्तर होता है अगर मैं यह यात्रा न करता तो मेरा जीवन व्यर्थ जाता. जो जिस काम के लिये बना हो, उसे वह काम करना ही चाहिये. और मैं नर्मदा पदयात्रा के लिये बना हूं. किन्तु, जब तक इस सत्य का पता मुझे चलता, मैं 50 के करीब पहुंच चुका था. प्रथम पदयात्रा मैंने 1977 में की और अंतिम 1987 में.
नर्मदात्रयी की तीसरी पुस्तक 'तीरे-तीरे नर्मदा' के पीछे वेगड़ दम्पत्ति का फोटो है. इस चित्र के नीचे है - ‘अगर सौ या दो सौ साल बाद किसी को एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे, पति के हाथ में झाड़ू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फेंकती हो और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों, तो समझ लीजिए कि हमीं हैं - कान्ता और मैं (वेगड़ जी). कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जन्म में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे. परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे.’
वेगड़ के इस कथन और कृत्य में ही तो पूरा अनुभव सार छिपा हुआ है. हमारी चिंता सिर्फ नदियों को पूजने की न होनी चाहिए, बल्कि हम यह फिक्र करें कि नदियां कैसे सदा नीरा रहें. वेगड़ ने बहुत पीड़ा के साथ कहा था- ‘हम हत्यारे हैं, अपनी नदियों के हत्यारे. क्या हाल बना दिया है हमने नदियों का? नर्मदा तट के छोटे-से-छोटे तृण और छोटे-से-छोटे कण न जाने कितने परिव्राजकों, ऋषि-मुनियों और साधु-संतों की पदधूलि से पावन हुए होंगे. यहां के वनों में अनगिनत ऋषियों के आश्रम रहे होंगे. वहां उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा, जीवनमूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा. हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही. लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है. धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है.’
आज जब वेगड़ जी हमारे बीच सदेह नहीं हैं तो अपने इस हत्यारेपन पर थोड़ा चिंतन कर प्रायश्चित करने का जतन करना ही उन जैसे नर्मदा पुत्र को हमारी श्रद्धांजलि होगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)