देश की 8 लाख रुपया से कम सालाना आमदनी और 5 एकड़ से कम जमीन वाले सवर्णों को आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर 10% आरक्षण देने की सरकार घोषणा ने राजनीतिक सरगर्मी तेज कर दी है. सरकार ने विधेयक संसद में पेश भी कर दिया है. उल्लेखनीय है कि आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर संविधान में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है. अभी तक संविधान के अनुच्छेद 15 (4), 15 (5) और 16 (4) में केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर ही आरक्षण का प्रावधान है. सरकार संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करके आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण को संवैधानिक बनाने का रास्ता तलाश रही है. हालांकि इससे पहले गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 1 मई 2016 को इसी तरह से आर्थिक पिछड़ेपन के आधार सवर्णों को 10% आरक्षण देने की घोषणा की थी, जिसे अगस्त 2016 में गुजरात हाईकोर्ट ने असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने का फैसला किया था, जिसे 1992 में उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया था. इस तरह का प्रयास बिहार में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने भी किया लेकिन वह भी पटना हाईकोर्ट में टिक नहीं पाया था.


इस आरक्षण को लेकर सरकार का पक्ष है कि वह सेवानिवृत्त मेजर जनरल एस आर सिंहों की 2010 की रिपोर्ट को लागू भर कर रही है लेकिन यह अभी तक सामने नहीं आया है कि सरकार ने 10% का आंकड़ा किस जनसांख्यकीअध्ययन के आधार पर तय किया है. विरोध इस बात को लेकर भी है कि एक तरफ ओबीसी आरक्षण में क्रीमीलेयर का फार्मूला लागू है और दूसरी तरफ 8 लाख वार्षिक आमदनी वाले को सरकार गरीब मान रही है. इस आमदनी को आरक्षण का पैमाना तब बनाया जा रहा है, जब अर्जुन सेन गुप्ता की समिति ने देश की तीन चौथाई आबादी की रोज की आय 120 रुपया बताई थी.  


सरकार गरीबी दूर करने के लिए आज़ादी के बाद से ही सैकड़ों परियोजनाएं संचालित कर रही है. इसलिए यह समझ लेने की जरूरत है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. यह क्षेत्र विशेष की सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ी जातियों के लिए है. ऐसे में सामाजिक रूप से सशक्त जातियों को गरीबी के आधार पर आरक्षण देने के लिए प्रावधान करना देश में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी आबादी के साथ न्याय नहीं है.


उल्लेखनीय है कि गुजरात उच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में कहा कि आर्थिक वर्ग को पिछड़ेपन के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है. दूसरी तरफ उच्चतम न्यायालय ने पहले ही इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार वाद में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय कर रखी है.


वैसे भी केशवानन्द भारती बनाम भारत सरकार वाद में उच्चतम न्यायालय ने साफ किया है कि संविधान की बुनियादी संरचना में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 और 16 मौलिक अधिकार की श्रेणी में आते हैं जिसमें परिवर्तन का मतलब है संवैधानिक के ढांचे से छेड़छाड़. अगर सरकार इस संसोधन को नवीं अनुसूची में डालने का प्रयास करती है तो वह भी संवैधानिक समीक्षा का मुकबला नहीं कर पाएगा क्योंकि संविधान के बुनियादी ढांचे से जुड़े संसोधनों को नवीं अनुसूची में नहीं डाला जा सकता है. उच्चतम न्यायालय की 9 सदस्यीय पीठ ने जनवरी 2007 में आईआर कोहिली बनाम तमिलनाडु सरकार वाद में फैसला दिया था कि संविधान की नवीं अनुसूची का प्रयोग संविधान की बुनियादी संरचना को प्रभावित करने के लिए नहीं किया जा सकता है.


भारत ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों में भी जैसे अमेरिका में अफ़र्मेटिव एक्शन प्रोग्रामी के तहत सुविधाहीन प्रजातियों, नृजातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. इसी तरह इंग्लैंड, जापान, चीन, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, स्वीडेन, बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक बनावट के अनुसार आरक्षण देते हैं. इन देशों में भी कहीं भी आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं है, जहां प्रजाति के आधार पर भेदभाव होता है वह इसकी व्यवस्था उस आधार पर है, जबकि भारत में जाति के आधार पर वंचना हुआ है तो यहाँ इसकी व्यवस्था जाति के आधार पर है. इसके अलावा भारत समेत दुनिया भर के कई विकासशील देशों के नागरिक विकसित देशों में पढ़ने के लिए जो अवसर पाते हैं वह भी नस्लीय भेदभाव और वंचना के आधार पर ही मिलता है.


(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)