सच्चे साधकों ने भला कब अपनी साधना के दिन गिने हैं. लेकिन समय और समाज की आंखों ने उनकी तपस्या को कभी अलक्षित नहीं होने दिया. उनके सदकर्मों का लेखा-जोखा लिए वक्त के किसी मोड़ पर फिर किसी दिन आवाज़ें अपना घेरा बड़ा करती हैं और कृतज्ञता के रसभीने बोल झरने लगते हैं.


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संगीत के आधुनिक संसार में ओमप्रकाश चौरसिया के नाम, काम और सात दशकों के बीच फैली उनकी कीर्ति को इसी सदाशयता के साथ याद किया जा सकता है. लेकिन उम्र के इस आंकड़े से परे उपलब्धियों का मान अहम होता है. इसी बीच अपने पुरुषार्थ की सार्थकता को नापने का स्वाभाविक उपक्रम होता है. खुद की ओर से और ज़िंदगी की राहों में मिले-बिछड़े संगी-साथियों की ओर से एक सिलसिला शुरू होता है यह जानने का कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया?? बहरहाल, श्री चौरसिया के हिस्से आई आत्मीयता इस बात की ताईद करती है कि ईमानदार कोशिशों की उंगली थामे वे अपने शिखर लक्ष्यों की ऊंचाई नापते रहे. प्रतिसाद की बहुत अपेक्षा उन्हें कभी नहीं रही लेकिन अपने कर्म के सुदूर विस्तार के लिए वे सदा ही फिक्रमंद रहे. बावजूद इसके कि समय ने उनके उत्साह के पांव तले हमेशा चुनौतियों की पथरीली ज़मीन बिछाई, लेकिन वे बेसाख्ता अपनी रफ्तार में कायम रहे.


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सागर मध्यप्रदेश के निम्न मध्यवर्गीय कुटुंब में जन्में ओमप्रकाश चौरसिया की सुरीली ख्वाहिशों को संवारने का वक्त आया तो संगीत तीर्थ बनारस के विद्वान स्वर मनीषी पंडित लालमणि मिश्र गुरु के रूप में प्रकट हुए. सानिध्य पाकर शिष्य का सौभाग्य बोलने लगा. कंठ संगीत, संतूर और वृंदगान की त्रिवेणी ने चौरसिया की प्रतिभा का ऐसा प्रक्षालन किया कि कालांतर में यह उजास संगीत के विश्व में उनके कई सृजनात्मक स्वप्नों और कीर्तिमानों को नई आभा से मंडित करता रहा.


अपनी ज़िद और सपनों के बीच एक बेहतर तालमेल बनाते हुए आखिरी सांस तक वे संगीत के लिए फिक्रमंद रहे. बीमारियां बचपन से उन्हें घेरे रहीं और मृत्यु के मुहाने तक उन्होंने इस साधक को अपनी गिरफ्त से मुक्त नहीं किया. यूं जीवन की रंगभूमि पर अज़ीब जुगलबंदी और आरोह-अवरोह का खेल चलता रहा. पिछले आठ-दस सालों में चौरसिया जी काफी अशक्त हो गए थे. पैरों में ताकत न रही. आंखों का चिराग लगभग बुझ गया था. कंठ बेजान हो चला था. कांपती-थरथराती आवाज़ ही सहारा थी दूर-पास से किसी अपने को करीब बुलाने के लिए. भोपाल की आकृति गार्डन कॉलोनी के अपने घर के एक कमरे में अब वे प्रायः अकेले और कुछ-कुछ उदास से हो चले थे. पत्नी संध्या और बेटी देवना के पर्याप्त सानिध्य तथा खिदमत के बावजूद आंतरिक ऊर्जा का निरंतर सिमटता जाना उन्हें ख़ासा खामोश कर गया था. लेकिन चुप्पियों और तन्हाइयों में स्मृतियों का बवंडर उनके आसपास मंडराता. सागर... बनारस... भोपाल. बीता वक्त और वाकये एक-एक कर उनके जेहन में कौंधते. किस्मत और कर्म के पसीने की कहानी अचानक उनकी ज़ुबां से फूट पड़ती जब कोई अपना-सा उनके पहलू में आकर दो घड़ी चैन की गुजारता.


मध्यप्रदेश के संस्कृति महकमें और भारत भवन में अपनी आधिकारिक संगीत सेवाओं के दौरान चौरसियाजी ने सृजनात्मक और अकादमिक स्तर पर जो अद्वितीय प्रकल्प रचे उनका कोई सानी नहीं. ईमानदार, स्वाभिमानी, अनुशासित और समावेशी, सांस्कृतिकर्म की मिसाल उन्होंने गढ़ी. देशभर के गुणी, स्थापित और नव उदित कलाकारों के लिए आदर्श मंच तैयार किया. विरासत के धुंधले अतीत को रोशन किया और उसके प्रति मान और प्रेरणा का परिवेश रचा. ये ही वे मानक थे जिसकी वजह से मध्यप्रदेश दुनिया के नक्शे पर अपने सांगीतिक प्रयोगों के लिए अलग से चिह्नित हुआ. लेकिन दुखद कि चौरसियाजी के इस ‘अभूतपूर्व योगदान का कोई नोटिस उनके गृह प्रदेश की सरकार ने नहीं लिया. राष्ट्रीयता तो छोड़िए उन्हें राज्य स्तरीय शिखर सम्मान के योग्य भी नहीं माना. दुर्भाग्य से कलाकारों के चयन, प्रदर्शन और सम्मान को लेकर भी उस पारखी दृष्टि का विलोप हो गया जो इस सूबे की सांस्कृतिक गरिमा और महिमा का मानक हुआ करती.


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खैर... यह लेखा-जोखा कभी भी चौरसियाजी की प्राथमिकता नहीं रहा. वे बेलौस, बेफिक्र अपनी संचित क्षमताओं से सक्रिय रहे. संस्कृति विभाग की उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत अकादमी से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने अपना एक काबिल शिष्य तैयार किया- सत्येन्द्रसिंह सोलंकी. सत्येन्द्र ने संतूर वादन की बुनियादी तालीम को जिस तल्लीनता और गहराई से जज़्ब किया और आज जिस आत्मविश्वास के साथ पहचान-प्रसिद्धि के नए ज़मीन-आसमान वो तय कर रहा है, निश्चय ही उसका श्रेय गुरु-दीक्षा को ही है.


पंडित ओमप्रकाश चौरसिया की शख्सियत के कई पहलू रहे. सुरीला कंठ उन्हें प्रकृति ने दिया और इसी के चलते बचपन में ही गायन के प्रति रुझान हो गया. सागर में फिल्मी गीत और भजन गाते हुए परिवार के लोगों को उन्होंने इस बात के लिए राज़ी कर लिया था कि उन्हें गायन के विधिवत प्रशिक्षण के लिए रास्ता चुनना चाहिए. ख़स्ता माली हालातों के बावजूद मामा मदन चौरसिया के प्रोत्साहन और मदद से संगीत तीर्थ बनारस चले गए. बनारस में कुछ दिन बाद पेट की बीमारी ने ऐसा घेरा कि गायकी का स्वप्न असमय मर गया. फिर गुरु पंडित लालमणि मिश्र की सलाह पर संतूर सीखा. बनारस के सांगीतिक वातावरण ने चौरसियाजी को संगीत की अनेक शैलियों और प्रवृत्तियों को नज़दीक से देखने और अन्तक्रिया करने में मदद की. यही वजह रही कि नौकरी के सिलसिले में जब वे भोपाल आए तो उनका विज़न बिल्कुल साफ था. गतिविधियों की परिकल्पना, उनके क्रियान्वयन, स्वयं के संतूर वादन और वृन्दगान के साथ नाट्य संगीत में भी उनके अद्वितीय प्रयोग को बेहतर प्रतिसाद मिला.


पहला ज़िक्र वृन्दगान का ही करना चाहूंगा. साहित्य और संगीत को लेकर अपनी शैली का निहायत एक नया पहलू लेकर प्रकट हुए चौरसियाजी. उनका मानना था कि कविता का अपना भाषिक विन्यास होता है. वह अपनी सर्जना में परम स्वायत्त होती है. ठीक उसी तरह संगीत की सत्ता भी अपने आप में निराली होती है. उसका नाद अनहद के अनोखे क्षितिज खोलता है. उसके आस्वाद और आकलन की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति शब्दों की हदों से हमेशा फिसलती रही हैं, लेकिन जब शब्द और संगीत पास-पास आते हैं, तो इस आपसदारी से अर्थ और अभिव्यंजना की नई गूंज उपजती है. यूं कविता और संगीत का मेल हमेशा ही रहस्य और रमणीयता की नई परिभाषा रचता है.


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बकौल चौरसिया, बड़ा ही नाजुक और जटिल रिश्ता होता है कविता और संगीत का. कहा जा सकता है कि दोनों को एक-दूसरे के अवलम्बन की जरूरत नहीं, लेकिन कला के नवाचारी समाज में ऐसे सार्थक और साहसिक प्रयोगों को संगीतकारों तथा गायकों ने अपनी सूझ और संवेदना से संभव किया है. कविता को स्वर, लय, ताल के सांगीतिक आभूषण मिले हैं, तो संगीत की सतह को भी कविता ने बहुरंगी बनाया है. भारत की श्रुति परंपरा में शब्द और स्वर की यह नातेदारी सदियों से अपनी जड़ें जमाए हुए है.


संस्कृति की इसी अनमोल धरोहर को अपने अकिंचन प्रयासों में अक्षुण्ण रखने के लिए ‘मधुकली’ ने भोपाल में अपनी यात्रा करीब तीन दशक पहले शुरू की. जरिया चुना वृन्दगान. संगीत की प्राचीन परंपरा का वह रूप, जिसमें कभी वेदों की ऋचाएं गूंजती थीं, लोक और भक्ति पद, जिसमें पूरे समाज के प्रेरणादायी आश्रय बन जाते थे. ‘मधुकली’ ने गुजरे वक्त के इस भूले-बिसरे पन्ने को फिर से बांचना शुरू किया. नई सदी की नई नस्ल को इस ओझल, किन्तु अनमोल पाठ के लिए प्रेरित किया. ‘मधुकली वृंद’ ने वृन्दगान के साथ कविता को सहयात्री बनाया. प्राचीन और नई कविता को एक साथ सुर-संगीत में साधा. नए ज़माने को कविता और सरगम की नई तासीर से अवगत कराया. मिश्रण और प्रदूषण के दौर में सात्विक, मधुर और जीवनदायी श्रुतियों की सौगात दी.


इस कठिन, किन्तु महत्वपूर्ण अभियान के केन्द्र में जाहिर है, चौरसियाजी ही रहे. संगीत के सृजनात्मक और अकादमिक कार्यों में नासाज़ सेहत के बावजूद वे बरसों संलग्न रहे. ‘मधुकली’ को उन्होंने अपने गुरु मूर्धन्य संगीत मनीषी लालमणि मिश्र की स्मृति और वृन्दगान की स्थापना के लिए संस्थागत रूप दिया. मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि भारत भर में ‘मधुकली’ के पुरुषार्थ की सुगंध फैली. साहित्य और संगीत के कई समारोहों तथा अन्य तकनीकी माध्यमों के ज़रिए उनकी वृन्दगान संगीत रचनाओं तथा मौलिक प्रयोगों को सराहा गया है. दिलचस्प यह है कि इस सांगीतिक यात्रा में वृन्दगान के साथ परंपरागत छांदिक काव्य ही नहीं, नई कविता को भी उन्होंने अपनी कलात्मक कल्पनाशीलता से गेय बनाया. अपने इस उपक्रम में दर्जनों आधुनिक हिन्दी कवियों की रचनाओं को संगीत की ऐसी सोहबत दी कि इन कविताओं में अनुपस्थित नियमित छंद का अभाव महसूस नहीं होता. यूं एक तरह से ओमप्रकाश चौरसिया साहित्य में पड़ी छंद और छंद-विहीन कविता की फांक को संगीत के सौहार्द से पाटने के सफल सेतु कहे जा सकते हैं. साहित्य के आधुनिक परिवेश में जब प्रायः नई कविता का ही साम्राज्य बोल रहा है, तो उसे वाचिक-शक्ति अर्जित करने तथा जन-संवादी बनाने के लिए संगीत से हाथ मिलाना हितकर होगा. बकौल चौरसिया नई कविता को संगीत का जामा पहनाना उनके लिए उलझन नहीं रहा. उनके अनुभव में नई कविता, संगीत के सांचे में अधिक सुगम और सुग्राह्य साबित हुई. इन कविताओं में अपने तरह से धुन का मीटर तय किया जा सकता है और शब्द-विशेष पर स्वरों को आघात देकर प्रभावी बनाया जा सकता है. भाषा, भाव और कथ्य की दृष्टि से अलहदा तेवरों की इन कविताओं में सांगीतिक विचारशीलता के नए आयाम आप खुले हैं. मधुकली के वृन्दगान की आवृत्ति में कबीर, तुलसी, पद्माकर से लेकर टैगोर, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन, नागार्जुन, निराला, मुक्तिबोध केदारनाथ सिंह और अशोक वाजपेयी तक कवियों की एक बड़ी पांत है जो अपनी रची कविताओं के साथ एक नए तेवर में संवाद करते हैं.


बीच के बरसों में खामोश रही ‘मधुकली’ ने वृन्दगान की आवाज़ को लौटाते हुए पिछले दिनों ही भोपाल में कुछ नई-पुरानी कविताओं की प्रस्तुति की. कलाकारों का एक उत्साही संकुल फिर मुखर हुआ. विरासत के प्रति नई पीढ़ी का रुझान लौटा. अजीब इत्तफाक कि मृत्यु से करीब एक महीना पूर्व संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली ने चौरसियाजी को त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में आयोजित वृन्दगान के राष्ट्रीय समारोह में ‘मधुकली’ के साथ प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया. यह आमंत्रण चौरसियाजी के योगदान की राष्ट्रीय स्वीकृति का प्रमाण भी था. वे ख़ासे प्रसन्न थे और बीमारी की विवशता के बावजूद उन्होंने ‘मधुकली’ के कलाकारों को स्वयं फोन कर समारोह के लिए राज़ी भी कर लिया. युवा संगीतकार उमेश तरकसवार के संयोजन में मधुकली वृंद का अभ्यास शुरू हो गया. इसी बीच चौरसियाजी के निधन की दुखद ख़बर ने सबको चैंका दिया. लेकिन ‘वृन्दगान’ शायद उनकी अंतिम हसरत साबित हुआ. स्मृति शेष चौरसिया को श्रद्धासुमन अर्पित कर मधुकली के कलाकारों ने अगरतला की उड़ान भरी. सशरीर न होकर भी वृन्दगायकों के ‘भाईजी’ सबकी रूह में महक रहे थे.


पंडित चौरसिया का एक अन्य पक्ष उनका नाट्य संगीत था. भोपाल में रंगकर्मी अलखनंदन के नाटकों को अक्सर संगीत की मीठी धुनों के लिए पहचाना जाता रहा. इस प्रतिष्ठा का श्रेय उनके संगीत निर्देशक को जाता है. अलखनंदन इस लिहाज से सौभाग्यशाली रहे कि उन्हें ओमप्रकाश चौरसिया जैसे योग्य और संजीदा संगीतकार की सोहबत मिल सकी.


चौरसिया की पहचान एक संतूरवादक और कंपोजर की रही. उनके अकादमिक कार्यों की अलग श्रृंखला है लेकिन इस मसरूफियत के बीच नाट्य संगीत की ओर अगर उनका रुझान रहा तो उसकी भी कुछ खास वजहें हैं. वे बताते हैं कि नाट्य संगीत का चस्का तो बनारस में उन दिनों ही लग गाया था, जब अपने गुरु महान संगीत मनीषी पं. लालमणि मिश्र के सानिध्य में रहकर वे शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण और शोध कार्य कर रहे थे.


तभी बनारस से कुछ दूर डिज़ल लोकोवेटिव वर्कर्स ने एक नाटक ‘अबू हसन’ करने की इच्छा जताई और उसमें संगीत रचनाएं तैयार करने का प्रस्ताव दिया. चौरसियाजी के अनुसार उन्होंने अपनी शर्तों पर वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. एक माह के अभ्यास के बाद जब नाटक मंचित हुआ तो शास्त्रीय राग-रागिनियों के आधार पर बनाई धुनें दर्शकों ने बेहद पसंद की. संयोग से बंदिशों को गाने के लिए तब राजेश्वर आचार्य जैसे प्रशिक्षित गायक भी मिल गए थे. उसके बाद बादल सरकार का ‘पगला घोड़ा’ और ‘राजा हरिश्चन्द्र’ नाटकों का संगीत भी तैयार किया.


अस्सी के दशक में जब चौरसिया ने भोपाल के भूगोल में कदम रखा तो यहां भी नाट्य परिवेश उनसे अछूता नहीं रहा. 1982 में मुकेश शर्मा ‘अबू हसन’ के मंचन की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने चौरसियाजी से संपर्क किया. यह नाटक पुरानी धुनों के साथ यहां भी बेहिसाब सराहा गया. चौरसिया अपने नाट्य अनुभवों के साथ ब.व. कारंत जैसे लब्धप्रतिष्ठ रंगकर्मी को याद करते हुए बताते कि भारत भवन रंगमंडल में बाबा के रंग-संगीत को गहराई से देखा-गुना. वे खुद संगीत के जानकार थे, लेकिन जब अलखनंदन जबलपुर से भोपाल आए तो उनकी सोहबत चौरसियाजी के लिए सतत रचनाशीलता का एक सबब बन गई. लगभग तीन दशक पहले भोपाल की सांस्कृतिक जमीन पर अपनी रंग-इबारत रचने आए अलखनंदन ने शुरुआती तीन नाटकों के संगीत के लिए सीधे चौरसियाजी से संपर्क किया. ये सभी प्रहसनशैली के नाटक थे और संगीत इनका प्राण था. तब ‘अमरू का कुर्ता’ अपने अनोखे संगीत के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ था. उसके बाद अलखनंदन के साथ उन्होंने बुंदेली लोक कथा पर आधारित नाटक ‘चंदा बेड़नी’ की धुनें तैयार की. यह एक गंभीर नाटक था, लेकिन उसमें लोकतत्वों की प्रचुरता के कारण संगीत का धरातल, मिट्टी की सौंधी महक और लयात्मक ऊर्जा की मांग करता था. चौरसिया ने नाटक की भावधारा को मद्देनजर रखते हुए सारी धुनें तैयार की. ‘चंदा बेड़नी’ के मंचन को अप्रत्याशित सफलता मिली. नाटक का संगीत दर्शकों की जुबान पर चढ़ गया. इस नाटक के भारतभर में दर्जनों मंचन हुए और यह प्रयोग अलखनंदन की पहचान बन गया. कारवां आगे बढ़ा और बाद के सभी नाटकों ‘बांझ घाटी’ (1986), सलोनी गोरैया, ‘आगरा बाज़ार’ (1987), ‘मुर्गा देसी बांग विदेशी’ (1988), ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में (1997) तथा ‘स्वांग शकुंतला (2003) का संगीत भी चौरसियाजी ने ही रचा.


नाट्य-संगीत की रचना प्रक्रिया के संबंध में चौरसिया का मानना रहा कि सबसे अहम बात तो नाटक के निर्देशक से आपकी आपसदारी तय होना. फिर सवाल आता है आपके सांगीतिक मिजाज़ और नाटक की स्क्रिप्ट का. इस दृष्टि से कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आई. चौरसिया के अनुसार अलखनंदन ने मुझे हमेशा काम करने की स्वायत्ता प्रदान की. कोई हस्तक्षेप अपनी तरफ से नहीं किया. मैंने सदा संगीत का अभ्यास कराते समय कलाकारों को अपने अनुशासन में रखा. धुनें सदा ही सरल, लेकिन नाटक के कथानक के अनुरूप देने की कोशिश की. चौरसिया का संगीत, नाटक में कभी भी पार्श्व संगीत के रूप में नहीं होता. वह नाटक का हिस्सा भी होता है और उसका अपना स्वतंत्र वजूद भी होता.


वे स्वीकारते थे कि अक्सर उन्हें अपनी धुनों के माफिक कलाकारों की आवाज या समझ का अभाव खलता है, लेकिन वे यह भी कहते कि नाटक मूलतः नाटक है. उसमें संगीत अनगढ़ होकर भी प्रभाव उत्पन्न कर सकता है. चौरसिया हिन्दी रंगमंच की दुनिया में नाट्य संगीत निर्देशक की स्वतंत्र जगह और सम्मान की कमी स्वीकारते थे. उनके अनुसार नाट्य संगीत की प्रशिक्षण की स्कूल हर हिन्दी राज्य में होना चाहिए.


इन सबके अलावा ओमप्रकाश चौरसिया स्वयं द्वारा संपादित संगीत के दुर्लभ ग्रंथों के लिए भी याद रहेंगे. दूरस्थ संगीत शिक्षा, संगीत, रस, परंपरा और विचार तथा वीणा वाणी जैसी अनेक कृतियों का प्रकाशन संगीत के शोधार्थियों और रसिकों के लिए उपयोगी है.


चौरसियाजी अपने अनन्य कृतज्ञ-भाव के लिए भी याद किए जाएंगे. अपने मामा मदन चौरसिया, प्रताप मास्टर, पंडित लालमणि मिश्र और अशोक वाजपेयी को उन्होंने गुरु का दर्ज़ा दिया. जब भी कोई प्रसंग आता, वे इन चारों के उपकार जरूर गिनाते. मृत्यु से कुछ ही माह पूर्व भोपाल में चौरसियाजी ने अशोक वाजपेयी का सार्वजनिक अभिनदंन कर उनका कविता पाठ आयोजित किया था. व्हील चेयर पर सभागार में बैठे चौरसिया के लिए उस दिन कान ही श्रुति और दृष्टि थे.


बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना
तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते...

(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)