व्यापम घोटाले की व्यापकता और इसका सामाजिक व सांस्कृतिक दुष्प्रभाव
व्यापम घोटाले में राजनीति से जुड़े लोगों के नाम हैं, तो नौकरशाही से जुड़े नाम भी. नौकरशाहों के सहयोग के बिना तो यह संभव था ही नहीं. जाहिर है कि व्यावसायिक वर्ग पीछे क्यों रहता. इन सभी की सफलता की कहानियां मुझ तक जैसे लोगों को प्रेरित करती हुई मालूम पड़ती थीं, लेकिन कुछ संदेह के साथ.
सन् 1989 में जब मैं तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा जी के साथ मारीशस गया था, तब वहां के लोगों को यह बताने पर कि ‘उपराष्ट्रपति जी भोपाल के रहने वाले हैं, उन्होंने मेरे इस जवाब की तस्दीक इन शब्दों में की थी, ‘अच्छा, वही यूनियन कार्बाइड वाले भोपाल से’. अब इस साल जब मैं लंदन गया, तब मेरे यह बताए जाने पर कि ‘मैं भोपाल से हूं', उन्हें मेरे इस उत्तर की तस्दीक इन शब्दों में करनी चाहिए, ‘अच्छा, क्या वही व्यापम वाला भोपाल.’ यानी देश के बीच में बसा मेरा प्यारा सा शहर भोपाल विदेशों में पहले यूनियन कार्बाइड के नाम से जाना जाता था, और अब व्यापम (घोटाले) के नाम से. जबकि 1985 से पहले यह जाना जाता था- झीलों की नगरी के नाम से.
यहां मैं केवल एक शहर की बात नहीं कर रहा हूं. मैं उस देश की भी बात नहीं कर रहा हूं, जिस देश में भोपाल नाम का यह शहर है. बल्कि इसके माध्यम से मैं पूरी दुनिया की बात कर रहा हूं. भोपाल तो यहां मात्र दुनिया का प्रतिनिधित्व कर रहा है. और मैंने इस शहर को प्रतीक के रूप में इसलिए चुना है, क्योंकि यह मेरा अपना शहर है. यानी कि मैं यहां रहता हूं. इसलिए मैं इससे अच्छी तरह वाकिफ हूं.
विदेश तक में चर्चित यह व्यापम घोटाला दो मुख्य कारणों से आज देश के कई कुख्यात कृत्यों में से एक बन गया है. पहला कारण है- इस घोटाले से जुड़े लोगों की श्रृंखलाबद्ध तरीके से की गई हत्याएं, जिनकी संख्या अर्द्धशतक तक पहुंचने वाली है. समय-समय पर होने वाली रहस्यमयी हत्याओं ने इसे इतना अधिक रोमांचक और सनसनीखेज बना दिया है कि बहुत से फिल्म निर्माताओं ने इस पर अपनी आंखें गड़ा ली हैं.
दूसरा मुख्य कारण है- इस घोटाले से बड़े-बड़े लागों के नामों का जुड़ना, उनका जेलों में बंद होना, लेकिन कुछ समय बाद धीरे-धीरे अपराधमुक्त हुए बिना ही जमानत पर बाहर आ जाना. और उनके इस खाली स्थान को भरने के लिए फिर कुछ रसूखदारों का अंदर जाना. जाने-आने का यह सिलसिला एक लंबे वक्त से जारी है, और इस बात का अनुमान लगाना फिलहाल मुश्किल है कि यह कब तक जारी रहेगा.
अब सबसे महत्वपूर्ण बात पर आते हैं. इसमें जिन बड़े महारथियों के नाम सामने आए हैं, ‘महान सदी’ के शुरू होने से पहले ये कुछ विशेष नहीं थे. सन् 2000 के तुरन्त बाद से इन लोगों ने जिस तरह से उभरना शुरू किया, वह आश्चर्यजनक था, और लोगों के बीच चर्चा तथा यहां तक कि ईर्ष्या का कारण भी. इन लोगों की सफलताओं की कहानियां सुनाई जाने लगीं. अर्थात ये अपने समय के विकास के मॉडल बन गए. इनमें राजनीति से जुड़े लोगों के नाम हैं, तो नौकरशाही से जुड़े नाम भी. नौकरशाहों के सहयोग के बिना तो यह संभव था ही नहीं. जाहिर है कि व्यावसायिक वर्ग पीछे क्यों रहता. इन सभी की सफलता की कहानियां मुझ तक जैसे लोगों को प्रेरित करती हुई मालूम पड़ती थीं, लेकिन कुछ संदेह के साथ. संदेह इसलिए कि विकास की इस रफ्तार का कोई वैधानिक आधार पकड़ में नहीं आता था. निःसंदेह रूप से विकास का यह चेहरा पूंजीवाद की देन था, जो बेहद घिनौना है.
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अब अंतिम बात. न्यायालय ने कुछ नए तथा तथाकथित बड़े चेहरों को यह कहकर जमानतें देने से इंकार कर दिया कि 'इस घटना का समाज पर पड़ने वाला प्रभाव बहुत नकारात्मक है.' स्पष्ट है कि पिछले लगभग तीन दशकों से आर्थिक उदारवाद ने पूंजीवाद के चेहरे को जितनी तेजी से और जितना अधिक विकृत किया है, उसके घृणित सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्प्रभाव समाज के शरीर पर उभरे हुए फफोलों के रूप में दिखाई देने लगे हैं. क्या यह किसी के लिए चिंता का विषय है?
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)