ओशो ने बताया, मौन रखा नहीं जाता…यह तो हमेशा होता है
ओशो ने सभी शास्त्रों और महान विचारकों की पुनर्व्याख्या की और नवसंन्यास जैसी संकल्पना को सामने रखा.
बात 17-18 साल पुरानी है. मैं कॉलेज में पढ़ रहा था और कॉलेज के दौरान की फितरत मुझमें भी दौड़ रही थी, यानि किसी से भी उलझ जाना, बहस करना, सवाल करना और लोगों के मजाक उड़ाना. एक सुबह मैं कॉलेज जाने के लिए अपने घर से निकला और मोहल्ले के पास बनी दुकानों की कतार में लगी पान की दुकान पर एक शख्स नजर आए. चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी चढ़ाए हुए यह जनाब एक कत्थई-मरून रंग का गाउन जैसा चोगा पहने हुए थे. बस इस चोगे ने मुझे उनकी तरफ आकर्षित कर दिया.
वह शख्स जिस पान की दुकान पर खड़े थे, उससे लगी हुई एक आटा चक्की थी, जिसे चलाने वाले भाईसाब अच्छे-खासे पढ़े लिखे थे और पीएचडी करने को अग्रसर थे. चक्की इसलिए चला रहे थे, क्योंकि उन्हें मनमुताबिक काम नहीं मिला था या यूं कहिए कि वो जैसे काम की तलाश में थे, वैसा काम 'पैदा' नहीं हुआ था. इन सारी मुसीबतों को देखते हुए उन्होंने चक्की का सहारा लेते हुए अपने जिंदगी को महीन पीसना शुरू कर दिया था. वो शख्स जो कत्थई-मरून रंग का चोगा डाले हुए थे, वो अक्सर इनकी दुकान पर आते थे ऐसा मुझे बाद में मालूम चला था. खैर मैं उनकी तरफ आकर्षित हो चुका था. इसी आकर्षण के चलते मैं उनके पास पहुंचा और मैंने उनके सामने एक सवाल दाग दिया कि क्या वो ओशो के भक्त हैं? मुंह में पान दबाए उस शख्स ने अपनी उंगली की कोर में लगे हुए चूने को दांत से काटते हुए धीरे से मुस्कुरा दिया. बस उनका मुस्कुरा कर मेरे सवाल पर सहमति दर्ज करना था और मुझे मुद्दा मिल गया. मैंने उनसे दोबारा जानना चाहा कि वो कब से ओशो के भक्त हैं. उन्होंने एक कागज पर समय लिख दिया. उनके इस तरह से कागज पर लिखने को लेकर मैं थोड़ा अचकचाया तो चक्की वाले भैया ने उनके प्रवक्ता के तौर पर संवाद को आगे बढ़ाते हुए बताया कि चोगाधारी शख्स ने मौनव्रत रखा है. मैंने उनके सामने फिर एक सवाल दागा कि क्या उन्होंने मौन रखा है. उन्होंने फिर मुस्कुरा कर सहमति दर्ज की. मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या उन्होंने ओशो को पढ़ा या सुना है. इस जवाब में उन्होंने जिस तरह से हाथ उठाकर जवाब दिया, उसका मतलब यही था कि कैसी बात कर रहे हो, हम तो ओशो को घोल कर पी गए हैं.
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इस दस मिनट की चर्चा के बाद मैंने उनसे कहा कि उन्होंने अपने जीवन के दस बरस व्यर्थ कर दिए और वह ओशो को समझ नहीं पाए. मेरी बात का जो प्रभाव था, उसका असर ऐसा समझा जा सकता था कि पान के कत्थे और चूने से निकला रंग उनके पूरे चेहरे को लाल करने लगा था. शायद वो अपनी आलोचना से चिढ़ गए थे. मैंने पहले ही जिक्र किया है कि मैं कॉलेज में पढ़ रहा था और मेरे अंदर एक फितरत तैर रही थी, जो किसी को चिढ़ा कर आनंदित होती थी. तो कुल मिलाकर उन कत्थई चोगाधारी को लाल होता देखकर मुझे मजा आने लगा. जब उन्होंने ओशो का भक्त होने पर सहमति दर्ज की तब ही मुझे समझ आ गया था कि ये अगरबत्ती फिरा कर, चोगा पहन कर मोक्ष पहनने पर विश्वास रखने वाले हैं. बात पुख्ता तब हो गई जब उन्होंने कहा कि उन्होंने मौन रखा है.
दरअसल ओशो ने अपने हर लेख, भाषण, प्रवचन में एक बात पर विशेष जोर दिया कि मेरे भक्त मत बनो, क्योंकि भक्त बनना आपके खुद के विचारों को रोक देता है और आप दूसरे के विचारों के भरोसे खुद को छोड़ देते हैं. जैसे भगवान की भक्ति करते हुए हम अपनी सारी मुसीबतों को उस पर डाल देते हैं और खुद इस भरोसे बैठ जाते हैं कि भगवान सब ठीक करेगा. कुछ गड़बड़ हुई तो भगवान का किया धरा है. दूसरा, मौन कभी रखा नहीं जाता है. मौन हमेशा होता है, क्योंकि मौन एक स्वत: होने वाली प्रक्रिया है. यानि हमारे दिमाग में लगातार विचारों का ट्रैफिक जाम रहता है. हम उसे रोकते नहीं हैं. धीरे-धीरे करके जब हम उन विचारों पर निषेध नहीं लगाते हैं तो विचारों का जाम खुलने लगता है और धीरे से हमारे सामने एक खाली सड़क होती है, जिस पर कोई विचार नहीं दौड़ रहा होता है. ये प्रक्रिया मौन होने की, जिसमें आपने खुद को चुप करने का प्रयास नहीं किया. बस आपको बोलना व्यर्थ लगने लगता है.
कुल मिलाकर जब उन चोगाधारी के पास मेरे बात का जवाब नहीं था, तो उन्होंने एक पर्ची पर चक्की वाले भैया का नाम लिखा और साथ में नीचे लिखा कि चिंटू जी मेरे सचिव हैं आप उनसे बात कीजिएगा. इतना कहकर...मतलब लिखकर उन्होंने अपनी स्कूटर चालू की और वहां से निकल गए और जाते-जाते मुंह में भरा हुआ गाढ़ा लाल ‘मौन’ वहीं सड़क पर थूक गए.
ओशो को नापसंद करने वाले उन्हें अक्सर एक सेक्स गुरु के रूप में प्रचारित करते हैं, जबकि नीचे दिया गया एक उदाहरण ही बता देता है कि दरअसल उनका दर्शन 'संभोग से समाधि' तक जाने का था. जो यह कहता है कि बगैर दुनिया को भोगे आप समाधि नहीं पा सकते. यही वो मीमांसा है, जो ओशो को दूसरों से इतर और सहज बना देती हैं.
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मेरे पिताजी को उनके एक मित्र ने ओशो की किताब दी, जो उन्होंने घर में रखी और दफ्तर चले गए. मैंने आदतन सामने किताब देखकर जब उसे खोला तो उसके नाम ने ही मुझे सबसे पहले आकर्षित किया. उस किताब का नाम था, 'संभोग से समाधि' तक. चूंकि किताब का नाम कई तरह की कल्पनाएं पैदा कर देता है और ऐसा ही हुआ. एक सहज मानवीय प्रवृत्ति के तहत मैंने वो किताब पढ़ी और पढ़ता गया. मैं विज्ञान का छात्र था लेकिन दर्शन का इतना रोचक प्रस्तुतिकरण था कि सब कुछ गले से उतरता चला गया. किताब में एक जगह ओशो लिखते हैं कि खजुराहो के मंदिर की बाहरी दीवारों पर जो चित्र उकेरे गए हैं, उन्हें लेकर देश के बुद्धिजीवियों का कहना था कि इसे इसलिए नहीं हटाया जाए क्योंकि यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है. वहीं कलाकार इन मूर्तियों के पक्ष में इसलिए थे क्योंकि उसमें उन्हें कला नजर आ रही थी. लेकिन उन मूर्तियों में दिखाए गए काम के बारे में बात करने से हर कोई बचता रहा. उस मंदिर के बनाने के पीछे यही दर्शन था कि अगर ईश्वर को पाना चाहते हो तो पहले इन सब से निबट लो, क्योंकि तुम मंदिर में आओगे और साथ में सेक्स ले आओगे, भगवान की मूर्ति में भी तुम्हें वही दिखेगा. इसी कारण से पहले उसे अच्छी तरह से देख लो फिर अंदर आओ. दरअसल यह मंदिर में प्रवेश नहीं, खुद के भीतर प्रवेश करना है.
ओशो के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है. काफी कुछ अच्छा-बुरा कहा गया है. उनके पास इतनी रॉल्स रॉयस कार थीं, उन्हें ऑरेगॉन में 16 हजार एकड़ ज़मीन दान में दी गई थी. उनके प्रभाव को देखकर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने उन्हें जेल करवा दी थी, जहां उन्हें आर्सेनिक देकर छोड़ दिया गया था. यह भी कि वह बचपन में उफनती नदी में कूद गए थे. सागर के हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी को उन्होंने पूरी तरह से छान लिया था. उनकी क्लास में प्रोफेसर आने से हिचकिचाते थे. या जब वो पढ़ाने लगे तो दूसरी क्लास के छात्र भी उनकी क्लास में आ जाया करते थे. ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं जो इंटरनेट के रास्ते या किसी ओर रास्ते अक्सर हम तक पहुंच जाती हैं. जो कहीं ना कहीं ओशो को या तो कोई चमत्कारी इंसान बना देती हैं या फिर समाज से विरोध करने वाला एक विवादित व्यक्तित्व बना देता है.
दरअसल यह इस दुनिया की विडंबना है कि हम वही बातें सुनते हैं या पालन करते हैं जिन्हें करने में हमें आसानी होती है. जैसे हमें भक्त बनना आसान लगता है, अगरबत्तियां जलाना सरल लगता है. हम वही करने लगते है और उस अगरबत्ती के धुएं में विचारक की बातों का मर्म, धुआं बनकर उड़ जाता है. गौतम बुद्ध जीवन भर मूर्तिपूजा का विरोध करते रहे और आज दुनिया में सबसे ज्यादा मंदिर और मूर्तियां उन्हीं की हैं.
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ओशो ने सभी शास्त्रों और महान विचारकों की पुनर्व्याख्या की और नवसंन्यास जैसी संकल्पना को सामने रखा. दरअसल भारत जहां आदिकाल से यह बताया गया है कि त्याग से बढ़कर कोई तप नहीं है. गृहस्थ जीवन मोह-माया है. वहां ओशो ने परिवार को छोड़कर जाने को पलायन माना है. ओशो के मुताबिक यह मुसीबतों से भागना है और जो इन्हें छोड़ कर यह कहता है कि उसने संन्यास ले लिया, वह सबसे बड़ी गलती कर रहा है. संन्यास कभी लिया नहीं जा सकता है. जिस तरह ज्ञान होता है, उसी तरह संन्यास भी होता है. इसी तरह ओशो को हमेशा अमीरों का गुरु माना जाता रहा, क्योंकि उनका कहना था कि दुखवादी नहीं, सुखवादी बनो. ऐसी कई बातें और कहानियां हैं, जिन्होंने ओशो के जीवन को विवादित बनाया. मैं उन कहानियो में घुसना नहीं चाहता हूं, क्योंकि अनुभव वह होता हो जो किया जाता है, उसे सुना नहीं जाता है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)