विश्व पुस्तक मेला : नीरस दुनिया से चौथी दुनिया का सफर
मान लीजिए कि मैंने अपनी जिंदगी में सौ अच्छी किताबें पढ़ीं, तो एक प्रकार से मैंने अपनी एक ही जिंदगी में सौ लोगों की जिंदगियां जी लीं. इन किताबों को पढ़े बिना ऐसा कर पाना क्या किसी के लिए भी संभव है?
आमतौर पर लोगों को यह कहते हुए अक्सर सुना जा सकता है कि ‘अब किताबें कोई नहीं पढ़ता’ या फिर यह कि ‘पुस्तकें मर रही हैं.’ यदि किसी को इस बात की तस्दीक करनी हो, तो उन्हें किसी भी पुस्तक मेले में जरूर जाना चाहिए. ऐसा ही एक मौका 14 जनवरी तक है. इन दिनों नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला चल रहा है.
इस पुस्तक मेले में भारत की सभी भाषाओं तथा दुनियाभर के लगभग 1200 प्रकाशक भाग ले रहे हैं. यहां न केवल अनेक भाषाओं में अनेक विषयों की किताबें मिलती हैं, बल्कि किताबों की दुनिया के जरूरी सभी महत्वपूर्ण और सामयिक विषयों पर जमकर चर्चा भी होती है. यह अवसर लेखकों, विद्वानों, प्रकाशकों और पाठकों के एक अनोखे संगम-पर्व की तरह होता है. यहां जाने के बाद इस विचार पर फिर से विचार करने की जरूरत पड़ने लगती है कि ‘किताबें मर रही हैं?’
आमतौर पर किताबों को सूचना और ज्ञान का खजाना ही माना जाता है. विद्यार्थी इसलिए किताब पढ़ते हैं, क्योंकि उन्हें परीक्षा पास करनी है. प्रोफेसर और शिक्षक इसलिए किताब पढ़ते हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञान प्राप्त करके दूसरों को पढ़ाना है. बुद्धिजीवी इसलिए पढ़ते हैं, क्योंकि उन्हें किताब लिखनी होती है. आम आदमी इसलिए किताब पढ़ता है, क्योंकि उसे ज्ञान की थोड़ी बहुत भूख होती है. लेकिन सब ऐसे नहीं होते. बहुत से लोग तो इसलिए पढ़ते हैं, क्योंकि उन्हें किताब पढ़ना अच्छा लगता है. मैं यहां आपके सामने इसी ‘अच्छा लगना’ के बारे में कुछ बातें करने जा रहा हूं.
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दरअसल, जब ऐसे लोग किताब पढ़ते हैं, तो उन्हें वह पढ़ना इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि वे उस किताब को पढ़ते-पढ़ते किसी दूसरी, तीसरी और चौथी दुनिया में चले जाते हैं. यह दूसरी, तीसरी और चौथी दुनिया किताब में लिखी हुई दुनिया नहीं होती है. वहां जो कुछ भी लिखा होता है, उससे भिन्न एक दुनिया उनके मन और मस्तिष्क में धीरे-धीरे उभरने लगती है.
सच पूछिए तो यह कितनी मजेदार बात है कि किताब पढ़ने के दौरान वे अपनी उस दुनिया से बाहर चले जाते हैं, जिसको वे रोज-रोज देखकर ऊब चुके हैं. यह नई दुनिया उन्हें बहुत सुख और राहत पहुंचाती है. कुछ समय के लिए यहां रहना, इसको जानना और इसका अनुभव करना उनके लिए बहुत आल्हादकारी होता है. और सबसे बड़ी बात यह है कि वे यह सब बिना किसी खर्च, बिना किसी अतिरिक्त व्यवस्था और बिना कोई तकलीफ उठाए ही हासिल कर लेते हैं. आप सोचकर देखिए कि किसी नई जगह जाने पर कितना अधिक इंतजाम करना पड़ता है. गांठ ढीली होती है, वह अलग.
लोग योग की बात करते हैं. इससे मन शांत होता है और शरीर स्वस्थ रहता है. लेकिन जब कोई अपनी मनपसंद किताब पढ़ रहा होता है, तो सच मानिए कि तब वह एक प्रकार से योग ही कर रहा होता है. उसका मन इसमें इतना डूब जाता है और खुशी से बल्लियों-बल्लियों उछलने लगता है कि उसे अपने वर्तमान सुख-दुख और स्थान का ध्यान ही नहीं रह जाता. जब आप वर्तमान से बाहर हो जाएं, तो वही तो योग है. इस प्रकार किताबें पढ़कर लोग एक प्रकार से अपना डॉक्टर खुद बनकर अपना इलाज कर रहे होते हैं. और यह इलाज भी इस तरह का नहीं है कि जिसे बीमारी होने के बाद किया जाए. बल्कि यह इलाज एक ऐसा अनोखा इलाज है, जो बीमारी को होने ही नहीं देता.
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किसी किताब को लिखने वाला उसमें अपनी जिंदगी के सारे निचोड़ डाल देता है. यदि तुलसीदासजी ने सत्तर साल की उम्र में ‘रामचरितमानस’ रची, तो इसका मतलब यह हुआ कि अपने सत्तर साल के जीवन को उन्होंने उस ‘रामचरितमानस’ में उड़ेल दिया. जब कोई इस ‘रामचरितमानस’ को पढ़ता है, तो पढ़ने में उसे मात्र सत्तर घंटे लगते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि जिसको रचने में तुलसीदासजी को सत्तर साल लग गए, उसे आपने केवल सत्तर घंटे में पा लिया. क्या दुनिया का कोई भी व्यापार इतने अधिक गुना फायदा देने वाला हो सकता है?
एक बात और भी है. तुलसीदासजी ने एक किताब लिखी तथा अन्य लोगों ने भी एक-एक, दो-दो किताबें लिखीं. मान लीजिए कि मैंने अपनी जिंदगी में सौ अच्छी किताबें पढ़ीं, तो एक प्रकार से मैंने अपनी एक ही जिंदगी में सौ लोगों की जिंदगियां जी लीं. इन किताबों को पढ़े बिना ऐसा कर पाना क्या किसी के लिए भी संभव है? एक जिंदगी में सौ जिंदगी का यह समीकरण सचमुच कितना विलक्षण है.
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इसलिए मुझे लगता है कि किताबें हमारी जिंदगी को सजाने-संवारने वाली सबसे खूबसूरत मित्र हो सकती हैं. यह हमें रास्ता दिखाती हैं. ये हममें निर्णय लेने की क्षमता पैदा करती हैं. ये हमें आनंदित करती हैं. ये हमारे अकेलेपन को दूर करती हैं. ये हमारे थैले में चुपचाप दुबककर दुनिया के दूर से दूर और एकांत गुफा तक में भी हमारे साथ जाने को तैयार रहती हैं. और सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये कभी भी धोखा नहीं देतीं.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)