ईरान: अमेरिका का दुश्मन लेकिन भारत का दोस्त है यह इस्लामिक देश
अमेरिका का कट्टर दुश्मन होने के बाद भी ईरान के भारत से गहरे और मजबूत संबंध हैं.
नई दिल्ली: पश्चिम एशिया का एक बड़ा देश ईरान आज अमेरिका का दुश्मन है लेकिन भारत का दोस्त है. अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज से ईरान मध्य पूर्व का एक महत्वपूर्ण देश है. अंतराराष्ट्रीय राजनीति में अकेला सा नजर आने वाला ईरान भू-रणनीतिक रूप से और प्राकृतिक तेल के भंडार के दृष्टिकोण से दुनिया की नजरों से अनदेखा नहीं रह पाता. इतिहास में यह क्षेत्र फारस (अंग्रेजी में पर्सिया, Persia) के नाम से जाना जाता था. 40 साल से इस्लामिक गंणतंत्र रहे इस शिया बहुल देश की राजनीति में आज भी कट्टरपंथियों का गहरा दखल है.
भौगोलिक स्थिति
16.5 लाख वर्ग किलोमीटर (636,313 वर्ग मील) में फैला ईरान उत्तर में कैस्पियन सागर और अजरबैजान, उत्तर-पूर्व में तुर्कमेनिस्तान, पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान तथा पाकिस्तान दक्षिण में फारस की खाड़ी, पश्चिम में इराक और तुर्की से घिरा है. इसके अलावा ईरान के पास फारस की खाड़ी के कई द्वीप भी हैं. ईरान के पश्चिम और दक्षिण में पहाड़ों की लंबी श्रंखला और इससे घिरीं घाटियां हैं. पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर जाते हुए जागरोस और उत्तर में अल्बर्ज पर्वत श्रृंखला है. दक्षिण में जागरोस पहाड़ों के नीचे पारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी के पास तटीय मैदान हैं. पश्चिमी हिस्से में पहाड़ों के पश्चिम में काविर और लुत रेगिस्तान हैं.
ईरान की आबादी 8 करोड़ है. 58% यहां के मूल फारसी निवासी हैं, इसके बाद 26% आबादी तुर्की प्रजातियों की है. इसके बाद 9 % कुर्दीश और 5% लूरी, अरबी, बलूची और अन्य लोग आते हैं. प्रमुख भाषा फारसी है. इस देश की भौगोलिक स्थिति सदियों से यहां की आर्थिक स्थिति को निर्देशित करती रही है. यहां के प्रमुख उद्योगों में पेट्रोलियम, कपड़ा, सीमेंट, खाद्य प्रसंस्करण, कालीन आदि शामिल हैं. इसके अलावा गेंहूं, चावल, फल, कपास, डेयरी उत्पाद, ऊन आदि यहां के प्रमुख कृषि उत्पाद हैं. ईरानी रियाल यहां की मुद्रा है. यहां का सबसे बड़ा शहर तेहरान यहां की राजधानी है.
संक्षिप्त इतिहास
ईरान का एक सपन्न इतिहास रहा है. य़हां प्रागैतिहासिक काल के (100,000 ई.पू.) तक के मानव अवशेष मिले हैं. इसके अलावा मैसोपोटामिया के पूर्व की बस्तियां भी पाई गई हैं. जब भारत में आर्यों का आगमन (3000-2000 ई.पू.) हुआ था, करीब उसी समय यहां भी आर्यों के गुजरने के प्रमाण पाये गए हैं, जो यहां उत्तर की ओर से आए थे. इसी के बाद से यहां पर सांस्कृतिक विकास हुआ. इसके बाद यहां मेदि, पर्थियन और पारसी प्रजातियां प्रमुख रूप से रहीं. ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में यहां असीरीयाई साम्राज्य का प्रभुत्व था. इसके बाद ईसा पूर्व छठी सदी में मिदियों का वर्चस्व रहा. पांचवी सदी में मकदोनिया के शासन के बाद हखामनी वंश का शासन रहा जिसने यूरोप तक अपना प्रभुत्व पहुंचा दिया. इसके बाद सिकंदर ने ईसा पूर्व तीसरी सदी में यहां से भारत तक अपना साम्राज्य फैलाया उसके बाद उसके सेनापतियों ने इस क्षेत्र का बांट कर यहां राज किया. इसमें सेल्युकस का यहां लंबे समय तक शासन रहा. दूसरी ईस्वी में यहां सासानी वंश के शापुर का कब्जा हुआ. शापुर वंश का पांचवी सदी तक राज रहा.
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सातवीं सदी में इस्लाम का प्रभाव यहां पहुंचा और धीरे-धीरे यह इस्लाम का वर्चस्व बढ़ता गया. 13वीं सदी में मंगोलों के आक्रमण के बात ईरान कमजोर ही बना रहा और 15वीं सदी में मंगोलों के कमजोर होने के बाद सफावी वंश के शासन के दौरान ईरान शिया बहुल क्षेत्र हो गया. 18वीं सदी में सवाफियों का पतन होने के बाद नादिर शाह ने यहां कब्जा कर लिया और 1739 में भारत पर हमला कर कोहिनूर हीरा सहित बड़ी संपदा लूट कर ले गया. इसके बाद कजार वंश का शासन में यूरोप का प्रभाव ज्यादा रहा. 19वीं सदी में ईरान रूस से युद्ध में उलझा रहा. 1870 के सूखे के दौरान करीब 15 लाख लोग मारे गए थे. इसके बाद 20 सदी के आरंभ में यहां क्रांति के बाद पहला संविधान लागू किया गया. प्रथम विश्व युद्ध के बाद यहां रेजा शाह ने पहलवी वंश की स्थापना की. 1935 तक यह देश फारस के नाम से जाना जाता था जिसके बाद इसे ईरान नाम दिया गया. ईरान का अर्थ होता है आर्यों की भूमि.
आधुनिक इतिहास
1930 के दशक में ईरान में आधुनिकरण के कई प्रयास हुए. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ईरान पर सोवियक संघ का प्रभाव रहा. विश्व युद्ध के बाद ईरान को संप्रभु राष्ट्र भी घोषित किया गया, लेकिन 1953 मोहम्मद मोजद्देक को अमेरिका के समर्थन से प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया. इसके बाद ईरान के शाह तानाशाह की तरह हो गए और लंबे समय तक ईरान के अमेरिका के साथ गहरे संबंध रहे. 1970 के दशक में ईरान में तेल की वजह से पैसा तो बहुत आया लेकिन देश में महंगाई और बेरोजगारी की वजह से असंतोष बढ़ता गया जिसकी परिणति मशहूर ईरान की इस्लामिक क्रांति के रूप में हुई.
1979 की क्रांति और उसके बाद
1978 से ईरान के शाह के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ और 1979 में पहलवी वंश का पतन हो गया. ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना जिसका शीर्ष नेता एक धार्मिक मौलाना को बनाया गया. इसी साल ईरान के धार्मिक नेता अयातोल्ला रुहुल्लाह खोमैनी, जिनकी 15 साल के निर्वासन के बाद ईरान वापसी भी हुई थी, को शीर्ष नेता का पद मिला. ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद से अमेरिका का प्रभाव खत्म हो गया. यहीं से अमेरिका और ईरान के बीच गहरी दुश्मनी हो गई जो कि आज तक दिखाई देती है.
1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया जिससे ईरान-इराक युद्ध की शुरुआत हुई. 8 साल चले इस युद्ध का अंत 1988 में हुआ और 1989 में अयातोल्ला खोमैनी की मृत्यु हो गई. इसके बाद ईरान में अकबर हाश्मी रफसन्जानी (1989-1997) मोहम्मद खतामी (1997-2005), मोहम्मद अहमदीनेजाद (2005-2013), हुसैन रुहानी 2013 से अब तक) ईरान के राष्ट्रपति रहे. हालांकि इन सभी के कार्यकाल के दौरान ईरान की सत्ता पर इस्लामिक कट्टरपंथियों का गहरा प्रभाव रहा जो कि आज भी कायम है.
ईरान में प्रमुख नेता की भूमिका
ईरान की सर्वोच्च सत्ता यहां की धार्मिक प्रमुख में निहित की गई है. पहले नेता अयोतुल्लाह खुमैनी 1989 तक यहां के प्रमुख रहे. इसके बाद से यह पद अयोतुल्लाह खामेनेई को मिला जो आज तक ईरान के प्रमुख हैं उनके बाद सबसे शक्तिशाली पद राष्ट्रपति का है. धार्मिक प्रमुख देश की सेना, न्यायपालिका और मीडिया प्रमुख की नियुक्ति करता है और उसी की इजाजत से राष्ट्रपति का चुनाव होता है. खामनेई 1989 से पहले देश के राष्ट्रपति भी रहे.
वर्तमान परिदृश्य
आज ईरान अमेरिका के साथ तनावपूर्ण संबंधों को लेकर चर्चा में है. अमेरिका ने हाल ही में उसके साथ 2015 में हुई परमाणु कार्यक्रम संबंधी संधि तोड़कर उस पर व्यापक प्रतिबंध लगाए हैं. ईरान के अमेरिका से 40 साल से खटास भरे संबंध रहे हैं. इसके अलावा पड़ोसियों से भी ईरान के मधुर संबंध नहीं रहे. यह देश ज्यादातर खुद में ही सीमित रहा है. अमेरिका के लंबे समय (द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से 1979) तक ईरान में दखल से यहां के लोग अमेरिका से नाराज रहे हैं. अमेरिका की पश्चिम एशिया में विस्तारवादी नीति और प्राकृतिक तेल के लिए वर्चस्व कायम करने की नीति का विरोध किया.
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अमेरिका ने ईरान-इराक युद्ध में इराक का समर्थन किया था. अमेरिका से शत्रुता और इराक से युद्ध ने ईरान को अपना खुद परमाणु कार्यक्रम करने के लिए प्रोत्साहित किया. 20वीं सदी में अमेरिका की नीति बदली और इराक से दुश्मनी ने इस क्षेत्र के समीकरण तो बदल दिए, लेकिन अमेरिका-ईरान के बीच तनाव में कमी नहीं आई. अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने ईरान के एक्सिस ऑफ इविल देशों में शामिल बताते हुए उसे दुनिया के लिए खतरा बताया. इसी बीच ईरान के परमाणु कार्यक्रम की जानकारी बाहर आ गई और अमेरिका को ईरान पर दबाव बनाने का मौका मिल गया. अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध की रणनीति अपनाई.
2015 में अमेरिका ने ईरान के साथ एक समझौता करने में सफलता पाई जिसके तहत ईरान ने यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम से पीछे हटने और अपना परमाणु कार्यक्रम रोकने का वादा किया और दूसरी तरफ ईरान को अतंरराष्ट्रीय प्रतिबंधों से राहत दी गई. लेकिन 2018 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के खिलाफ प्रतिबंध लगाते हुए 2015 का परमाणु समझौता रद्द कर दिया. हालांकि इस मामले में ईरान को रूस का साथ जरूर मिला लेकिन इससे अमेरिका के रुख में कोई बदलाव नहीं आया.
भारत-ईरान संबंध
भारत और ईरान के बीच गहरे मजबूत कूटनीतिक संबंध रहे हैं. ईरान दूसरा देश है जिससे भारत सबसे ज्यादा कच्चा तेल आयात करता है. पहला स्थान इराक का है. ईरान के लिए भारत भी सबसे ज्यादा तेल आयात करने वाले देशों में चीन के बाद दूसरा स्थान रखता है. इस वजह से दोनों देशों के बीच मजबूत संबंध हैं. इसके अलावा भारत आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ भी ईरान को अपना साझेदार पाता है. ईरान और पाकिस्तान के बीच कभी भी मधुर संबंध नहीं रहे. पाकिस्तान की भारत विरोधियों गतिविधियों के खिलाफ ईरान भारत का साथ देते रहा है. इसके अलावा पिछले साल ही ईरान के चबाहर में बंदरगाह के निर्माण करवाने में भारी निवेश किया है. इससे भारत को समुद्र के रास्ते अफगानिस्तान को भी सहायता देने में आसानी होगी.
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ईरान पड़ रहा है अकेला
इस समय ईरान को दुनिया भर में एक तरह का विरोध का सामना करना पड़ रहा है. उसके अमेरिका और यूरोपीय देश विरोधी हैं. पश्चिम एशिया में कोई उसका दोस्त या सहयोगी नहीं है. वहीं उसको भारत का साथ केवल व्यापारिक मालमों में साथ मिल रहा है. इसके अलावा भारत ने अमेरिकी प्रतिबंधों का भी विरोध किया है जिसका असर भारत के तेल आयात पर विपरीत पड़ रहा था. महाशक्तियों में अब ईरान को केवल रूस का साथ मिल रहा है. जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2015 का परमाणु समझौता रद्द करने के बाद ईरान पर प्रतिबंध लगाए थे, तब रूस ने अमेरिका को चेताया था कि अगर अमेरिका समझौता रद्द करता है, तो हालात गंभीर हो जाएंगे. इस आशंका का अमेरिका पर कोई असर नहीं पड़ा था. हाल ही में रूस और ईरान ने कैस्पियन सागर में एक संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया था.