‘ऑपरेशन गुलमर्ग’: जब पाकिस्तानी साजिश से मारे गए थे 40 हजार कश्मीरी
पाकिस्तान के प्यार की पींगे बढ़ाने वाले महबूबा मुफ्ती और फारूख अब्दुल्ला जैसे नेता कश्मीरियों के दुश्मन हैं. क्योंकि इस नापाक देश के सिर पर लाखों कश्मीरियों के कत्ल का इल्जाम है. अब से कोई 73 साल पहले पाकिस्तान ने ऐसी साजिश रची थी जिसमें कश्मीरियों का खून पानी की तरह बहा था.
नई दिल्ली: कश्मीर (kashmir) का नाम सुनते ही खूबसूरत वादियों की तस्वीरें जेहन में तैरने लगती हैं. लेकिन आतंकवाद (Terrorism) ने दुनिया की जन्नत को ऐसा लहूलुहान किया है कि घाटी में हर तरफ बारूद की गंध महसूस होती है. करीब 73 साल पहले जिन्ना (mohammed ali jinna) की जिद और नए नए आबाद हुए पाकिस्तानी हुक्मरानों की बेवकूफी ने कश्मीर को जहन्नुम बना दिया.
जानिए ऑपरेशन गुलमर्ग की कहानी
करीब 73 साल पहले वो अक्टूबर की 22 तारीख थी, जिसने कश्मीर के इतिहास को रक्तरंजित कर दिया. इसी दिन पाकिस्तानी हुक्मरानों ने जन्नत की आजाद फिजाओं में बारूद की गंध बिछाने की शुरूआत की और इसे नाम दिया 'ऑपरेशन गुलमर्ग' (Operation gulmarg).
पाकिस्तान (Pakistan) के तत्कालीन मेजर जनरल अकबर खान ने अपनी किताब ‘रेडर्स इन कश्मीर’ में अब जाकर इसका खुलासा किया है. उन्होंने अपनी किताब में खुलकर लिखा है कि कश्मीर में आतंकवाद की पौध पाकिस्तान ने ही लगाई थी. पाकिस्तान लगातार वहां के युवाओं को गुमराह कर आतंक की राह पर ले जाने का काम करता रहा है.
अकबर खान ने जो बातें अपनी किताब ‘रेडर्स इन कश्मीर’ में लिखी हैं, उन पर यूरोप के थिंकटैंक ने भी मुहर लगा दी है. यूरोपीय फाउंडेशन फॉर साउथ स्टडीज यानी EFSAS ने 1947 में पाकिस्तान की बर्बरता की यादें ताजा करते हुए कहा है कि 1947 के हमले में पाकिस्तानी परस्त कबाइली लड़ाकों ने करीब 40 हजार कश्मीरियों का कत्ल किया.
जिन्ना और लियाकत की साजिश का राज खुला
पाकिस्तान सेना के अफसर जो बाद में वहां के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के सहयोगी बने उन्होंने 73 साल बाद किताब लिखकर सबसे बड़ा कबूलनामा किया है. 1947 में मजहब के आधार पर जिन्ना और लियाकत अली खान ने कश्मीर को हड़पने के लिए कबाइली लड़ाकों को कश्मीर भेजा. तब से अबतक कश्मीर में पाकिस्तान खून खराबा करने में लगा हुआ है.
इस दौरान 1947 में खून खराबे के सबसे ज्यादा शिकार कश्मीरी मुसलमान ही बने थे. हालांकि 90 के दशक में जब पाकिस्तान ने आतंकवादियों की मदद से प्रॉक्सी वॉर शुरू किया तो हिंदुओं और सिखों को निशाना बनाया गया और एक दिन ऐसा आया कि कश्मीरी पंडितों को जान बचाने के लिए घाटी ही छोड़नी पड़ी.
ऐसे हुई ऑपरेशन गुलमर्ग की साजिश
कश्मीर हाथ से निकल जाने से पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना तिलमिलाए हुए थे. 1947 में अगस्त के दूसरे हफ्ते में जिन्ना ने लाहौर में एक बैठक बुलाई. जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन मेजर जनरल अकबर खान को शामिल होने के लिए बुलाया गया. जहां उन्हें पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत खान से मिलने को कहा गया. इसी बैठक में पाकिस्तानी हुक्मरानों ने ऑपरेशन गुलमर्ग का प्लान बनाया.
लाहौर की इसी बैठक में जिन्ना के बेहद करीबी सरदार शौकत हयात खान भी शामिल थे. जिन्होंने पाकिस्तान के हालात और कश्मीर की जंग पर बाद में एक किताब 'द नेशन दैट लॉस्ट इट्स सोल' लिखी है. इस किताब में हयात खान ने खुलासा किया है कि मेजर जनरल अकबर खान ने ही साल 1947 में 'ऑपरेशन गुलमर्ग' की कल्पना की थी. ऑपरेशन गुलमर्ग की कल्पना से जिन्ना और तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान इतना खुश थे कि 28 अक्टूबर को अकबार खान को प्रधानमंत्री का सलाहकार बना दिया गया.
18 अक्टूबर 1947 को एबटाबाद में हत्यारों ने की बैठक
लाहौर में मीटिंग के बाद तय हो गया कि पाकिस्तान कश्मीर को हासिल करने के लिए बर्बर लड़ाकू जनजातीय कबीलों की मदद लेगा. पाकिस्तान की हुकूमत ने कबायली सरदारों को 18 अक्टूबर को एबटाबाद में इकट्ठा होने के लिए कहा. पाकिस्तान की साजिश को अंजाम देने के लिए एबटाबाद में 22 कबायली जनजातियों के लड़ाके इकट्ठे हुए थे. दरअसल ये लूट खसोट करने वाले कबीले थे.
22 अक्टूबर को ये बर्बर कबीलाई लड़ाके कश्मीर में दाखिल हुए. पाकिस्तानी सेना के अफसर भी वहां मौजूद थे. पाकिस्तान के तत्कालीन वित्त मंत्री गुलाम मोहम्मद खान ने कश्मीर पर हमले के लिए 3 लाख का फंड कबायली सरदारों को दिया. इसके अलावा उन्हें हथियार और रसद की आपूर्ति का जिम्मा भी पाकिस्तानी सेना ने संभाला. 24 अक्टूबर को कबायलियों ने सबसे पहले मुजफ्फराबाद और डोमेल में हमला किया. डोगरा फौज खूनी कबायलियों का मुकाबला नहीं कर पाई और दो दिन की ही जंग में मुजफ्फराबाद और डोमेल में पाकिस्तान का कब्जा हो गया.
बर्बर नरसंहार से कांप उठा कश्मीर
कबाइली लुटेरों ने मुजफ्फराबाद और डोमेल पर कब्जा करने के बाद 26 अक्टूबर 1947 को बारामूला पर धावा बोला. जहां उन्होंने जमकर लूटपाट की और नरसंहार को अंजाम दिया. तब बारामूला की आबादी करीब 14 हजार थी जिसमें 11 हजार लोगों को कत्ल कर दिया गया. महिलाओं और बच्चियों से बलात्कार किया गया. घरों को आग लगा दी गई. हालात इतने बदतर हो गए कि बारामूला में सिर्फ 3 हजार लोग जिंदा बचे. बर्बादी की ऐसी दास्तान पहले कभी कश्मीर ने नहीं देखी थी. जिन फिजाओं में चिनार और गुलदार की खुशबू महकती थी अब वहां बारूद की गंध भर चुकी थी.
श्रीनगर पर भी कब्जे का प्लान था
बारामूला में कत्लेआम करने के बाद 26 अक्टूबर 1947 को कबाइली लड़ाकों ने श्रीनगर की तरफ कूच किया. कबाइलियों और श्रीनगर के बीच सिर्फ 35 किमी. का फासला था. अब कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के पास वक्त कम था. 25 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह जम्मू पहुंचे और 26 अक्टूबर को उन्होंने भारत के साथ विलय के समझौते पर दस्तखत किया.
महाराजा हरिसिंह के विलयपत्र पर दस्तखत के फौरन बाद भारतीय सेना कश्मीर में मोर्चा संभालने उतर पड़ी. रात के अंधेरे में बिना किसी नक्शे के भारतीय जांबाज दुनिया की जन्नत को बचाने युद्ध भूमि पर कूद पड़े. जब भारतीय सेना की पहली टुकड़ी श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरी तो कबीलाई लड़ाके महज 1 मील दूर थे. भारतीय सेना ने सबसे पहले श्रीनगर के इर्दगिर्द सुरक्षा घेरा बनाया और फिर शुरू हुई कश्मीर को बचाने की असली जंग. 3 महीने के अंदर 2 तिहाई कश्मीर पर भारत का कब्जा हो चुका था.
धरती के स्वर्ग के टुकड़े हो गए
5 जनवरी 1949 को युद्धविराम का ऐलान कर दिया. इसी के साथ कश्मीर का मुस्तकबिल भी तय हो गया जिसकी सेनाएं उस वक्त जहां मौजूद थीं वो हिस्सा उसके कब्जे में चला गया. मुजफ्फराबाद, मीरपुर, गिलगिट बाल्टिस्तान पाकिस्तान के पास चले गए और बाकी कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया.
तब से 73 साल बाद भी पाकिस्तान बाज नहीं आ रहा. कश्मीर पर कब्जे की उसकी साजिश जारी है. तीन बार मुंह की खाने के बाद भी जिन्ना के जेहादी अब भी जन्नत को लहूलुहान करने में लगे हैं. हालांकि कश्मीर पर कब्जे का उनका सपना न पूरा हुआ और न होगा .
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