नई दिल्ली: Haryana Result 2024 Analysis: हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस को अपनी रणनीति पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है. एग्जिट पोल, एक्सपर्ट्स और इंटरनल सर्वे कांग्रेस की जीत दिखा रहे थे, फिर भी पार्टी सूबे में चुनाव हार गई. कांग्रेस ने अपना प्रचार किसान, पहलवान, जवान और संविधान के इर्द-गिर्द बुना, लेकिन वोटर इन मुद्दों से कनेक्ट नहीं कर पाया. पार्टी ने ग्राउंड पर साइलेंट वोटर को पहचानने में भूल की, जिसका नतीजा प्रदेश की सत्ता गंवाकर चुकाना पड़ा.
तीन राज्यों में ओल्ड गार्ड्स पर भरोसा पड़ा भारी
हरियाणा में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जिताने की पूरी जिम्मेदारी भूपेंद्र हुड्डा के कंधों पर रख दी थी. हुड्डा प्रदेश में कांग्रेस के सबसे बड़े पॉवर सेंटर बन गए. इससे पहले लोकसभा चुनाव में भी हुड्डा की रणनीति पर पार्टी चली. हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब कांग्रेस ने किसी एक नेता को सूबे का सर्वेसर्वा बना दिया हो. इससे पहले राजस्थान और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव (2023) में भी कांग्रेस ने अपने ओल्ड गार्ड्स पर भरोसा जताया था. राजस्थान में अशोक गहलोत और मध्यप्रदेश में कमलनाथ पार्टी के सिपहसालार थे. टिकट बंटवारे से लेकर रणनीति तैयार करने में इन्हीं का हाथ था. आइए, जानते हैं कि तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के पीछे ओल्ड गार्ड्स कैसे जिम्मेदार माने जा रहे हैं?
भूपेंद्र हुड्डा (हरियाणा)
भूपेंद्र हुड्डा साल 2005 से लेकर 2014 तक हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे. 2005 में भजनलाल पार्टी के बड़े नेता थे, उनका CM बनना लगभग तय था. लेकिन आलाकमान की पहली पसंद हुड्डा थे, लिहाजा हुक्म की तामील हुई और वे CM बन गए. 2005 में कांग्रेस को 90 में से 67 सीटें मिलीं, ध्यान रहे कि पार्टी ने ये चुनाव हुड्डा के नेतृत्व में नहीं लड़ा था. 2009 का चुनाव पार्टी ने हुड्डा के चेहरे और 5 साल के कार्यकाल में हुए कामों पर लड़ा, इसमें कांग्रेस की सीटें घटकर 40 हो गईं. लेकिन निर्दलीयों का समर्थन पाकर प्रदेश में सरकार बन गई. 2014 का विधानसभा चुनाव फिर हुड्डा के नेतृत्व में लड़ा गया, तब कांग्रेस महज 15 सीटों पर ही रह गई. 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी 31 सीटें ही ला पाई, तब सबसे बड़ा विपक्षी दल बनी. हुड्डा नेता प्रतिपक्ष बनाए गए. 2024 के लोकसभा चुनाव में हुड्डा के कहने पर ज्यादातर टिकट बांटे गए, पार्टी ने 10 में से 5 सीटें जीती. ये बीते चुनाव परिणाम के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन था. लेकिन सूबे में पार्टी की ही दिग्गज नेता कुमारी सैलजा ने कहा कि टिकट बंटवारा ठीक होता तो हम और भी सीटें जीत सकते थे. माना गया कि वे हुड्डा पर सही टिकट नहीं देने का आरोप लगा रही थीं. विधानसभा चुनाव 2024 के पहले हुड्डा ने प्रदेश कांग्रेस को अपने कंट्रोल में कर लिया था. पार्टी पहले ही उनकी पसंद के नेता उदयभान को PCC का चीफ बना चुकी थी. 90 में से 72 टिकट हुड्डा के कहने पर बंटे, प्रचार की पूरी कमान उन्होंने ही संभाली. AAP से गठबंधन नहीं करने का फैसला भी हुड्डा का ही बताया जाता है. प्रदेश में ये मैसेज गया कि कंग्रेस ने एक जाट नेता को बहुत प्रभावी कर दिया है, इससे बाकी जातियां बिदक गईं. सैलजा और सुरजेवाला जैसे अन्य नेता भी इससे खफा थे, वे अपने समर्थकों की सीटों के अलावा कहीं चुनाव प्रचार करने नहीं गए. लिहाजा कांग्रेस का चुनावी रथ 37 पर ही रह गया. भाजपा ने 48 सीटें जीतकर हैट्रिक लगा दी.
कमलनाथ (मध्यप्रदेश)
मध्यप्रदेश में 2023 में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भी चौंकाया था. हरियाणा के चुनाव में PM मोदी बार-बार कहते रहे कि कांग्रेस के साथ यहां वही होगा, जो मध्यप्रदेश में हुआ था. हरियाणा में मध्यप्रदेश की नजीर क्यों दी गई, ये भी समझते हैं. दरअसल, साल 2018 में मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जीती थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने ओल्ड गार्ड कमलनाथ पर भरोसा जताया. मार्च 2020 में सिंधिया ने बगावत की, अपने समर्थित विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए. कमलनाथ की सरकार गिर गई. 2023 में प्रदेश में फिर चुनाव हुए, तब कमलनाथ PCC के चीफ थे. एग्जिट पोल इशारा कर रहे थे कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है. पार्टी ने कमलनाथ को फ्री हैंड दिया था. कमलनाथ ने अपने मनचाहे लोगों को टिकट दिए, प्रचार की रणनीति भी खुद ही बनाई. इस चुनाव में ऐसा लगा जैसे केंद्रीय नेतृत्व छोटा पड़ गया और कमलनाथ बड़े हो गए. लेकिन नतीजों में कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हारी. भाजपा ने 163 सीटें जीती और कांग्रेस महज 66 पर सिमट गई. हार का ठीकरा कमलनाथ के सिर फूटा, पार्टी ने उनसे PCC चीफ के पद से इस्तीफा ले लिया. लोकसभा चुनाव 2024 में चर्चा चली कि कमलनाथ भाजपा में जा सकते हैं, इससे उनकी छवि केंद्रीय नेतृत्व की नजरों में खराब हुई. रही-सही कसर कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ ने छिंदवाड़ा से लोकसभा चुनाव हारकर पूरी कर दी.
अशोक गहलोत (राजस्थान)
अशोक गहलोत को सियासत का जादूगर कहा जाता है. उन्हें कांग्रेस का क्राइसिस मैनेजर भी माना जाता है. गहलोत 1998 में पहली बार राजस्थान के CM बने थे. तब पार्टी ने गहलोत के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ा था. कांग्रेस को 200 में से 173 सीटें मिली, जो प्रचंड बहुमत था. 5 साल तक गहलोत मुख्यमंत्री रहे, पार्टी 2003 में उनके काम पर चुनाव में उतरी, लेकिन 56 सीटें ही जीत पाई. भाजपा की वसुंधरा राजे 120 सीटों के साथ CM बनीं. 2008 में फिर चुनाव हुए, सीपी जोशी PCC के चीफ थे. कांग्रेस को 96 सीटें मिलीं, निर्दलीयों का समर्थन लेकर सरकार बनी. माना जा रहा था कि जोशी राजस्थान के मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन नाथद्वारा से वे 1 वोट से चुनाव हार गए. सत्ता की कमान एक बार फिर गहलोत के हाथों में आई. 2013 में हुए चुनाव में पार्टी गहलोत के चेहरे के साथ चुनावी मैदान में उतरी. भाजपा को 163 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला, जबकि कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे खराब प्रदर्शन के साथ 21 सीटों पर ही सिमट गई. 2018 में कांग्रेस ने PCC चीफ सचिन पायलट की अगुवाई में चुनाव लड़ा, 99 सीटें जीतीं. निर्दलीयों ने कांग्रेस को समर्थन दिया. पार्टी ने गहलोत को एक बार फिर सत्ता सौंप दी. पायलट नाराज हुए और 2020 में बगावती तेवर दिखाए, लेकिन गहलोत की सूझबूझ से क्राइसिस मैनेज हो गया. इसके बाद 2022 में पार्टी ने गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने और राजस्थान में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला किया. लेकिन गहलोत गुट के विधायकों की बगावत के कारण हाईकमान को पांव पीछे खींचने पड़े. ऐसा कहा गया कि विधायकों ने गहलोत के कहने पर बगावत की, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सचिन पायलट मुख्यमंत्री बनाए जाएं. कांग्रेस की आपसी खींचतान के बीच 2023 के विधानसभा चुनाव आए. गहलोत की योजनाओं के दम पर पार्टी चुनावी समर में कूदी, सरकार रिपीट करने के दावे किए गए. लेकिन कांग्रेस 70 सीटें जीतकर विपक्ष में चली गई. इस चुनाव में ज्यादातर टिकट गहलोत के कहने पर बांटे गए थे. उन्होंने अपनी सोशल सिक्योरिटी वाली योजनाओं को चुनावी मुद्दा बनाया था, जो फेल साबित हुआ. फिर लोकसभा चुनाव 2024 में गहलोत के बेटे वैभव भी जालोर-सिरोही से हार गए.
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