Kerala: जिस मृदंग की ताल पर थिरक उठते हैं पांव, क्या उसका मुद्दा जिता पाएगा चुनाव
पलक्कड़ पर निगाह डालें तो उसका भाग्य तय करने वाले यहां कई फैक्टर मौजूद हैं. जो कम से कम खुद को चुनावी मुद्दा बनाए जाने का इंतजार कर रहे हैं. सबसे बड़ा मुद्दा पलक्कड़ की सांस्कृतिक विरासत ही है. यहां के पेरुवेम्बा में कड़ची कोल्लन समुदाय के लोग मृदंग बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं. क्या उनका दुख चुनावी मुद्दा बनेगा?
नई दिल्ली: जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें से एक केरल भी है. भारत के दक्षिणी छोर पर बसे इस राज्य के लिए यह चुनाव कई मायनों में महत्व रखता है. पीएम मोदी मंगलवार को यहां के पलक्कड़ में एक जनसभा को संबोधित कर रहे हैं.
मेट्रोमैन ई श्रीधरन के समर्थन में की जा रही यह जनसभा भाजपा की मजबूत पकड़ वाले इस शहर से पार्टी के विधानसभा तक पहुंचने का रास्ता तय करेगी. साथ ही ई श्रीधरन पर जीत का सेहरा बंधेगा या नही उसका भाग्य-भविष्य भी यहां से निर्धारित होगा.
केरल की सांस्कृतिक विरासत पलक्कड़
इन सबसे अलग पलक्कड़ पर निगाह डालें तो उसका भाग्य तय करने वाले यहां कई फैक्टर मौजूद हैं. जो कम से कम खुद को चुनावी मुद्दा बनाए जाने का इंतजार कर रहे हैं. सबसे बड़ा मुद्दा पलक्कड़ की सांस्कृतिक विरासत ही है, जो एक तरह से केरल की धन्य संस्कृति को पहचान दिलाने का जिम्मा अपनी ऊपर रखती है.
दरअसल जब भी दक्षिण भारत की प्रसिद्ध कर्नाटक संगीत की शैलियों और विशेषताओं की बात होती है तो राग और लय के साथ ताल के अद्भुत संगम का जिक्र आता है.
केरल के मंदिरों में आरती या गान के समय बजते मृंदगम हों या किसी संगीत सभा में तबले की धा धिं पर नृत्यांगना के थिरकते पांव, खोखली लकड़ी पर मढ़े खाल पर उंगलियों की चोट पड़ने पर निकली तिरकिट सुनने वालों को अपने साथ केरल के पलक्कड़ ले जाती है.
यहां थोड़ा ठहराती है. कुछ-कुछ दूरी पर कहीं खोखली लकड़ियों के ढेर रखे हैं. इनका सिरा पकड़े हुए अच्छी धुनें खोजने वाले पहुंच जाते हैं पेरुवेम्बा.
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पेरुवेम्बा क्यों है इतना खास
पेरुवेम्बा, पलक्कड़ जिले से महज 14 किमी दूर एक ग्रामीण बस्ती सरीखा है. यहां रहने वाले तकरीबन 300 परिवारों के छोटे-छोटे घर हैं और हर घर के सामने फैली हुई दालान नुमा जगह है. इनमें कहीं-कहीं जमीन पर जानवरों की खाल सूख रही हैं, जो सूख चुकी हैं, उन्हें रस्सियों पर फैलने के लिए लटका दिया गया है.
चमड़ा गर्मी पाकर फैलता है और फिर जब मढ़े जाने लायक हो जाता है तो खोखली लकड़ियों पर चढ़कर मृदंगम बन जाता है या फिर तबले की शक्ल ले लेता है. फिर यहां से वह मंदिर पहुंचता है या किसी ऑडिटोरियम. संगीत के साथ पवित्र हो जाता है.
पीछे रह जाता है, पेरवेम्बा. ये कारीगर कई पीढ़ियों से तबले और मृदंग बना रहे हैं. आंकड़ों में बात करें तो 200 सालों से उनका यह काम लगातार जारी है.
वे कहते हैं कि हम अच्छे कलाकार नहीं हैं. हमें मृदंग बजाने भी नहीं आता, लेकिन हम यह जानते हैं कि चमड़ा कितना कसा और कितना ढीला हो कि कलाकार इसे बजाकर अपने हिस्से का सम्मान पा सकता है. मृदंग और कलाकार को सब याद रखते हैं. इन्हें मलाल नहीं कि इन्हें लोग पूछते नहीं.
कड़ची कोल्लन समुदाय कौन हैं?
मृदंग बनाने वाले यह सभी कड़ची कोल्लन समुदाय के लोग हैं. एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पेरुवेम्बा के कड़ची कोल्लन मृदंगम, मद्दलम, चेंडा, तबला, ढोल, गंजीरा और अन्य वाद्ययंत्र बनाते हैं जिनका उपयोग अधिकतर मंदिरों के संगीत और कर्नाटक संगीत में होता है. 200 साल पहले यह समुदाय लोहे का काम करता था.
ये लोग कृषि उपकरण बनाते थे. कर्नाटक संगीत के केंद्र के रूप में पलक्कड़ की पहचान ने पेरुवेम्बा गांव (पलक्कड़ जिले में शामिल पेरुवेम्बा ग्राम पंचायत के अंतर्गत) कड़ची कोल्लन को इस क्षेत्र में हाथ आजमाने का मौका दिया. यह उनकी बेहतर आय का जरिया भी बना.
उस्ताद पालघाट के नाम से मशहूर टीएस मणि अइयर (1912-1981) ने पेरुवेम्बा में निर्मित मृदंगम को बजाया और इससे वह खुद तो प्रसिद्ध हुए ही पेरुवेम्बा की भी ख्याति कर्नाटक संगीत में काफी बढ़ गई. इसके बाद से यह यह आज तक मृदंग बनाने वालों का एक केंद्र माना जाता है.
क्या है इनका दुख?
कड़ची कोल्लन समुदाय के लोग पहली नजर में अपने काम में उलझे हुए और संतुष्ट नजर आते हैं. दरअसल उनका काम इतना जटिल और गंभीर है कि उससे अलग कुछ नहीं सोच सकते. लेकिन वक्त मिलने पर उनकी एक टीस जरूर नजर आ जाती है. दरअसल, केरल सरकार ने 2019 में कड़ची कोल्लन जाति को अनुसूचित जनजाति (एसटी) की सूची से हटाकर इसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची में शामिल कर दिया था.
तब से, इस समुदाय के लोगों को राज्य से समर्थन और अन्य लाभ मिलना बंद हो गया है. यह उनका मुख्य दुख है कि संस्कृति का हिस्सा होते हुए भी वह राज्य कोई अनुदान नहीं पा सकते हैं, न ही उनके संरक्षण की ओर कदम उठाए जा रहे हैं. उन्हें अब सरकार से कोई वित्तीय मदद या सहायता नहीं मिल रही है.
Lockdown में हालात से हुए मजबूर
2019 में किए गए इस बदलाव का असर 2020 में हुए Lockdown में ही दिख गया था. इस दौरान देशभर में स्थिति गंभीर थी. सब कुछ बंद था. केरल के मंदिर में होने वाले धार्मिक आयोजन नहीं हुए. फरवरी के बाद कोई भी ग्राहक पेरुवेम्बा नहीं आया. गर्मियां इनके लिए वाकई सूखी रहीं जो कि आम तौर पर हर साल वाद्ययंत्र की सबसे अधिक बिक्री का समय होता है.
लेकिन न तो कई नया ऑर्डर मिला और न ही अक्टूबर 2019 में दिए गए ऑर्डर की बिक्री हुई. 2020 में पेरुवेम्बा से केवल 23 वाद्ययंत्रों की बिक्री हुई और वह भी लॉकडाउन से पहले. केवल मृदंगम और तबला की ही बिक्री हुई, चेंडा (बड़ा ढोल) एक भी नहीं बिका.
विधानसभा चुनाव से यह है आशा
केरल में गर्मियों में होने वाले मंदिरों वार्षिक उत्सव में तबला वादक बड़ी संख्या इकट्ठे होते हैं. वे एक बार में घंटों तक पंचरी मेलम और पंचवाद्यम जैसे पारंपरिक आर्केस्ट्रा करते हैं. ऐसे में उनकी मांग बढ़ जाती है, लेकिन 2020 में ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. अब नए साल से कुछ आशाएं हैं, लेकिन ओबीसी में जाने के कारण वित्तीय सहायता न मिलना उनके लिए बड़ा संकट है.
मंगलवार को जब पीएम मोदी यहां से जनसभा को संबोधित करेंगे तो 14 किलोमीटर दूर पेरुवेम्बा के ये कलाकार कारीगर नए चुने जाने वाले निजाम से अपने अच्छे दिन की उम्मीद जरूर करेंगे.
पलक्कड़ में भाजपा की स्थिति एक नजर में
केरल की पलक्कड़ सीट से मेट्रोमैन ई श्रीधरन भाजपा उम्मीदवार हैं. 50 फीसदी से ज्यादा हिंदू वोटरों वाली इस सीट पर भाजपा मजबूती से चुनाव लड़ रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी यहां दूसरे नंबर पर रही थी. तब भाजपा की शोभा सुरेंद्रन कांग्रेस प्रत्याशी शाफी पारांबिल से 17 हजार वोट से हारी थीं.
बीते साल हुए स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत करते हुए 54 फीसदी वार्ड (52 से 28 वार्ड) जीते थे. इसके चलते भाजपा और श्रीधरन जीत के लिए आश्वस्त हैं.
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