नई दिल्लीः कोरोना के मामलों में गिरावट आने के साथ ही देश में सियासत की घटनाएं अब सुर्खियां बंटोरने लगी हैं. यूपी, राजस्थान और बंगाल में पिछले कुछ दिनों से सियासी हलचल तेज है, लेकिन इसी बीच पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (SAD) और बहुजन समाज पार्टी (BSP) के गठबंधन की खबरों ने एक नया माहौल बना दिया है. पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस में अदरूनी कलह की खबरें किसी से छिपी नहीं हैं. इसी बीच शिअद और बीएसपी के गठबंधन ने कई तरह की अटकलों को जन्म दिया है. 


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शिअद लंबे समय तक सत्ता में रही है और उसे पंजाब की राजनीति की बारीकियां बखूबी पता हैं. लेकिन दूसरी ओर बीएसपी जिसका उदय तो पंजाब से है लेकिन गढ़ यूपी उसकी जमीनी हालत इन दोनों राज्यों में हिली हुई है. ऐसे में बड़ा सवाल ये उठता है कि आखिर पंजाब में इस गठबंधन का कितना असर होने वाला है. आइए जानते हैं कि दलित, बीएसपी और शिअद का ये गठजोड़ पंजाब की कुर्सी पाने में कितना असरदार होगा.पंजाब में अगले साल ही विधानसभा के चुनाव हैं.


गठबंधन किन शर्तों पर हुआ
शिअद और बीएसपी की कहानी पर आने से पहले ये जान लेते हैं कि आखिर ये गठबंधन किन शर्तों पर हुआ है. दरअसल, शिअद ने कुछ समय पहले ही खेती कानूनों के मुद्दे पर बीजेपी से अपना पुराना गठबंधन तोड़ा था. शिअद और बीएसपी का ये गठबंधन करीब 25 सालों के बाद हुआ है. तय ये हुआ है कि अकाली दल ने बीएसपी के लिए 20 सीटें छोड़ने का ऐलान किया है.



मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बीएसपी माझा में 5, दोआबा में 8 और मालवा इलाके में 7 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. इनके अलावा बची हुई 97 सीटों पर अकाली दल अपने उम्मीदवार उतारेगी. पंजाब में कुल 117 विधानसभा सीटें हैं. इससे पहले दोनों दलों ने 1996 के विधानसभा चुनाव में एक साथ चुनाव लड़ा था. लेकिन यह गठबंधन एक साल ही चला और अकाली दल 1997 में बीजेपी के साथ आ गया था.


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पंजाब में दलित कितना असरदार
अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर पंजाब में दलित वोट बैंक कितना असरदार है. अगर संख्या के हिसाब से देखेंगे तो आप पाएंगे की पूरे देश में पंजाब ऐसा राज्य है जहां दलितों की आबादी का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. पूरे राज्य की करीब 32 फीसदी आबादी दलित है. अब इस संख्या को आप सियासत की कसौटी पर उतारें तो लगेगा की 32 फीसदी वोट अगर किसी भी एक पार्टी को मिलें तो ये तय है कि राज्य में सरकार उसी की बनेगी.


क्योंकि आमतौर पर जिस भी पार्टी की सरकार बनती है उसके वोटों का प्रतिशत इसी के इर्द गिर्द होता है. लेकिन अब तक पंजाब के राजनीतिक इतिहास में ऐसा वाकया कभी नहीं हुआ है कि कोई दलित राज्य का मुख्यमंत्री बना हो या इसके आस-पास भी फटका हो.


इसका कारण भी दलित ही हैं
अब सवाल उठता है कि इतनी बड़ी दलित आबादी लेकिन सियासत में कोई पहचान नहीं. इसका कारण तलाशेंगे तो आप पाएंगे की यहां का दलित आपस में बंटा है. पंजाब के कई जानकारों ने अपने लेखों में साफतौर पर कहा है कि- पंजाब में जाति का उस तरह से कभी उभार नहीं हो पाया जैसे उत्तर प्रदेश में है. इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि पंजाब का दलित बंटा हुआ है. कुछ तबकों की वफ़ादारी अकाली दल की तरफ़ और कुछ की कांग्रेस की तरफ़ रही है. 



रोटी-बेटी का भी रिश्ता नहीं
बीबीसी में छपी एक खबर के मुताबिक आज़ादी से पहले से ही पंजाब में दलित अलग अलग टुकड़ों में रहे हैं. इनमें बंटवारे की खाईं बहुत गहरी है. दूरियां इतनी है कि दलितों के अलग-अलग गुट आपस में रोटी-बेटी का भी रिश्ता नहीं रखते."अगर एक गुट के साथ कुछ ग़लत हो जाए तो दलितों का दूसरा तबका उनका साथ नहीं देता. ऐसे में दलित एकजुटता तो दूर की कौड़ी है.


अब आते हैं बीएसपी के सवाल पर
बीएसपी के सवाल पर आने से पहले इस पार्टी के नायक की कहानी पर चलना होगा. दरअसल, हम बात कर रहे हैं कांशीराम की. कांशीराम जिन्हें दलितों के बड़े नेता के रूप में देखा जाता है. उनका जन्म पंजाब के होशियारपुर में ही हुआ था. उनका परिवार आज भी पंजाब में ही रहता है. लेकिन कांशीराम खुद भी दलितों को पंजाब में लामबंद नहीं कर पाए. वहीं, उनकी बनाई पार्टी बीएसपी यूपी में कई सालों तक सत्ता में रही. 


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पंजाब में बीएसपी के सवाल को देखें तो इस राज्य में बीएसपी की पकड़ धीरे-धीरे कमजोर सी होती गई है. 1992 की विधान सभा चुनाव में बसपा को नौ सीटें मिलीं थीं. जबकि वोटों का प्रतिशत 16 था लेकिन जबकि 2014 के लोक सभा चुनाव में पार्टी का वोट शेयर 1.9 फ़ीसदी रह गया था .जबकि 2019 में उनका वोट प्रतिशत 2 से भी कम हो गया. 


लेकिन एक कहानी ऐसी भी
ये सच है कि पंजाब की दलित आबादी कभी लामबंद नहीं हो सकी है. लेकिन वो अंग्रेजी की एक मशहूर लाइन है- 'Politics is the art of the possible' यानी राजनीति संभावना की कला है. कभी भी कुछ भी हो सकता है. पंजाब में दलितों पर दांव लगाए जाते रहे हैं. पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी दलितों पर बड़ा दांव खेला था. उन्होंने तो यहां तक कहा था कि अगर वो सत्ता में आए तो उपमुख्यमंत्री भी दलित ही होगा. वहीं, पंजाब की सामाजिक हलचल को देखेंगे तो पिछले कुछ समय से धीमे-धीमे से ही दलित वर्ग अब अपनी आवाज़ उठाने लगा है. ऐसे में ये गठबंधन कितना असर दिखाएगा ये तो वक्त ही बताएगा.


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