नई दिल्ली: किसानों के नाम पर एक जहरीली जिद ने जैसे ठान रखा है कि देश को अराजकता हाथों के हवाले कर देना है. जैसे मान लिया गया है कि चाहे कुछ भी हो लेकिन अपने एजेंडे को तानने के लिए देश की राजधानी में ऐसी तस्वीर खड़ी करनी है कि दुनिया कहे हिंदुस्तान में ये कैसा महान लोकतंत्र है.
जी हिंदुस्तान (Zee Hindustan) बार-बार आपसे कह रहा है कि अचानक ये तस्वीर नहीं बनी है देश में. अचानक देश को अराजकता की तरफ धकेलने का मेगा प्लान नहीं तैयार हो गया है देश में. ये वो प्लान है जो 2014 के बाद से लगातार छोटे-छोटे प्रयोगों और प्रपोगंडा के जरिए खड़ा किया गया है.
- पहले धर्म के नाम पर मुस्लिमों को उकसाया गया, जब कट्टरपंथियों पर एक्शन हुआ तो
- यूपी में जातिगत हिंसा की गहरी साजिशें रची गईं जब उसका पर्दाफाश हुआ तो
- सीधे-सादे किसानों को बरगलाकर अराजकता को आंदोलन की शक्ल में उतार दिया गया
राकेश टिकैत का अड़ियल रुख, चूड़ी टाइट करेंगे
किसान नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) मीडियावालों से एनआईए का पता पूछते पाए जा रहे हैं. ये उनका वीरता तो नहीं है, बल्कि हेकड़ी है. इसी हेकड़ी के दम पर दिल्ली (Delhi) को बंधक बनाया गया है. टिकैत से जब पूछा जाता है कि बात कैसे बनेगी, अड़े रहने से या संवाद से, तो वो उसी ठेठ रपटीले लहजे में ठोक कर कहते हैं अड़े रहने से. वो कहते हैं गेंहू को बिना पीसे आटा नहीं निकलता. अभी तो चूड़ी टाइट करनी शुरू की है.
सरकार की चूड़ी कई जगह से ढीली है. तो क्या सरकार की चूड़ी टाइट करने निकले हैं कथित किसान और उनके नेता? दरअसल टिकैत वही भाषा बोल रहे हैं जिसकी जमीनी तस्वीर मीडियाकर्मियों से मारपीट और नोकझोंक के रूप में दिल्ली के बॉर्डर पर उतरती रही है. सवाल ये है कि आखिर राकेश टिकैत अराजकता और अति आक्रामकता की अतिरिक्त लीड क्यों ले रहे हैं?
क्या उन्हें मालूम नहीं कि भारत में एनआईए (NIA) के अफसरों को धमकी देना, उनको दिल्ली से बाहर देख लेने को धमकाने का मतलब क्या है? आप एक ऐसी संवैधानिक और आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी संस्था को खारिज कर रहे हैं जो देश में आतंकी गतिविधियों और ISI के नापाक साजिशों का तार-तार करती रही है.
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क्या राकेश टिकैत का सब्र अब जवाब दे रहा है?
इसका जवाब है हां, क्योंकि बात बार-बार घूमकर सिंघु बॉर्डर (Singhu Border) पर जमा वामपंथी खेमे के किसान नेताओं पर जाकर रुकती है. राकेश टिकैत इसी बात से बेचैन हो उठते हैं. दरअसल राकेश टिकैत, बाबा टिकैत (महेंद्र सिंह टिकैत) के बेटे हैं और 1992 से लगातार वो अपने पिता की जमीनी विरासत पर दावा ठोकते रहे हैं.
सच ये है कि आज तक वो किसानों के बीच में न तो बाबा टिकैत की न जगह ले पाए और न ही उनके मजबूत नेता के तौर पर खुद को काबिज कर पाए. बाबा टिकैत का आभा मंडल और उनकी स्वीकारोक्ति एक किसान नेता के तौर पर पूरे देश में रही है. याद करिए महेंद्र सिंह टिकैत के अवसान के बाद एक लंबे समय तक राकेश टिकैत उनकी ऊंचाई पर पहुंचने के लिए छटपटाते, चढ़ते और फिसलते रहे हैं.
कृषि बिलों (New Farm Laws) के खिलाफ उठ खड़े हुए किसान आंदोलन में राकेश टिकैत वास्तव में बाबा टिकैत की उसी ऊंचाई को हासिल करने के लिए आखिरी दांव खेल रहे हैं. जो सीधे सरकार को चुनौती दे रहा है बाबा टिकैत की तरह. लेकिन बाबा टिकैत और राकेश टिकैत में बड़ा अंतर ये है कि राकेश टिकैत के पैरों के नीचे जमीन नहीं है.
2007 के विधानसभा चुनावों और 2014 के लोकसभा चुनावों में राजनीति में भी करियर तलाश चुके राकेश टिकैत की लोकप्रियता उनकी जमानत तक जब्त करवा चुकी है.
पंजाब-हरियाणा के किसानों की कठपुतली टिकैत
गाज़ीपुर बॉर्डर (Gazipur Border) पर अपने कुनबे के साथ जमा राकेश टिकैत की पहचान बस इतनी सी है. जो सबको देख लेने का ताकीद अपनी सभाओं में करते हैं. वो कहते हैं एक भी मंदिर से भोजन नहीं आया, औरतें खूब दूध मंदिरों में चढ़ाती हैं पर एक चाय नहीं पिलाई आंदोलन में. वो आगे कहते हैं एक भी पंडित नहीं आया, सब देख रहे हैं सबका हिसाब करेंगे. ये किसकी भाषा और कैसा संकेत है? समझना मुश्किल नहीं. जहां धर्म और जाति के खांचे तय किए जा रहे हैं.
जरा खुद से पूछिए ऐसा क्यों है? जवाब राकेश टिकैत की उसी छटपहाट में मिलेगा जो उन्हें एनआईए को धमकाने में और सरकार की ईंट से ईंट बजा देने के ऐलान के पीछे है. कुल मिलाकर राकेश टिकैत की किसान आंदोलन (Farmers Protest) में मौजूदगी एक चौकी को बचाए रखने की है. वार रूम कहीं और है और खुद राकेश टिकैत को नहीं पता कि वॉर रूम में क्या साजिश चल रही है.
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तिरंगे से 'राष्ट्रद्रोह' को ढकने की कोशिश?
तिरंगे (Tricolour) को हाथ में लेकर ऐसी अराजकता को पवित्र आंदोलन बताने की साजिश रची गई है. 26 जनवरी को हर हाल में दिल्ली की सीमाओं पर धावा बोलने का प्लान कथित किसान कर चुका है. राकेश टिकैत जैसे नेता उकसाने बरगलाने और धमकाने की हर वो भाषा बोल रहे हैं जिससे अशांति फैले. किसान नेता पंजाब वाले बार बार ये बात कहते हैं कि 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली निकलेगी ही निकलेगी.
टिकैत कहते हैं कि 'देखते हैं कौन रोकता है, हमें खालिस्तानी कह रहे हैं न हम तिरंगा हाथ में लिए निकलेंगे.' इसी झूठ और परसेप्शन के जरिए किसान नेता भोले-भाले किसानों को वामपंथी किसान नेता उकसा रहे हैं. वो किसानों को कहते हैं कि सरकार किसानों का खालिस्तानी बता रही है.
अर्बन नक्सल झूठे किसान नेताओं से लेकर शातिर खालिस्तानी (Khalistan) चेहरे तक ऐसे ही किसानों को भड़का रहे हैं. बीते 55 दिनों में यही घुट्टी राकेश टिकैत को पिला दी गई है. नहीं तो नवंबर महीने तक राकेश टिकैत सिर्फ एमएसपी और एपीएमसी पर गारंटी चाहते थे. सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस ले इसमें उनकी दिलचस्पी कम थी.
याद रखिए सरकार किसानों का खालिस्तानी नहीं कह रही, बल्कि वो ये कह रही है इस आंदोलन को खालिस्तानी हाईजैक कर चुके हैं. और इसके सबूत हैं सिंघु बॉर्डर पर आंदोलन की ज़मीन पर लगाए गए खालिस्तान मूवमेंट से जुड़े आतंकियों के पोस्टर. लेकिन राकेश टिकैत जैसे नेता बड़े शातिर तरीके से इस सच पर पर्दा डाल देते हैं जो कैमरे में कैद होता है. और किसानों को ये कह कर भड़काते हैं कि सरकार उन्हें खालिस्तानी कह रही है. सवाल ये है कि
- तो अगर ट्रैक्टर रैली (Tractor Rally) में हिंसा फैली तो किसान नेता ज़िम्मेदारी लेंगे?
- क्या सरेआम खून बहाने के धमकीबाज़ों की ज़िम्मेदारी लेंगे
- खालिस्तानी झंडों और ज़ुबान पर खामोश क्यों रहते हैं किसान नेता ?
समीकरण इतना कठिन नहीं कि समझ न सकें
लेकिन इस सबके बाद भी राकेश टिकैत और दूसरे वामपंथी किसान नेताओं को सबूत चाहिए. सवाल पूछने पर ये या तो मीडिया को निशाना बनाते हैं या धमकाते हैं. सच ये है कि दिल्ली पर साजिशों की लंबी स्क्रिप्ट जा रही है. ताकि दिल्ली से निकली तस्वीर और आवाज को दुनिया की स्क्रीन पर प्रोपेगेंडा में तब्दील कर फैलाया जा सके...ध्यान रखिए इस सबके पीछे एक गठजोड़ तैयार हो चुका है....
- शाहीन बाग (Shaheen Bagh) वाला जिहादी थिंक टैंक
- टुकड़े-टुकड़े गैंग वाला अर्बन नक्सल
- पाक परस्त खालिस्तानी अराजकतावादी
किसान का तो बस मुखौटा भर है ताकि दिल्ली के बॉर्डर पर रची जा रही इस अराजकता को, एक नैतिक आंदोलन का मुलम्मा चढ़ा दिया जाय. तिरंगा हाथ में लेकर राष्ट्रद्रोह की साजिश को राष्ट्रभावना बता दिया जाए. याद रखिए शाहीन बाग के आंदोलन में भी ऐसे ही तिरंगा लहराया गया था और बाद में दिल्ली (Delhi) जला दी गई थी. इसलिए समझना जरूरी है कि आंदोलन की आड़ में ये आग से खेलने की साजिश है, इसलिए सावधान रहना जरूरी है.
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