नई दिल्लीः साल 1957 में आई मशहूर फिल्म थी अब दिल्ली दूर नहीं. राजकपूर की बनाई इस फिल्म ने एक तरफ बाल सुलभ मनोभावों को छुआ था तो दूसरी ओर मानवीय पहलुओं को भी करीने से रखा था. इस फिल्म का एक गीत तब काफी मशहूर हुआ था. गीत था चूं चूं करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया, जिसे मोहम्मद रफी ने अपनी मखमली आवाज से सजाया था.
प्रकृति से करीबी का अहसास कराता यह गीत बरबस ही आज फिर याद आ जाता है, जब मोबाइल रिमाइंडर याद दिलाता है कि उसके नाम आज विश्व गौरेया दिवस दर्ज है.
हालांकि इससे खुशी नहीं होती, बल्कि एक अफसोस होता है कि वह गौरेया, जिसने न जाने कितने सालों हमारे आंगन में दाने चुने.
कितनी दफा अमरूद के झुरमुटों में घोंसला बनाया और न जाने कितनी बार गर्मियों की दुपहरी में झुंड के साथ आकर मुंडेर की मटकी से पानी पीया है. वह आज लुप्त है, ओझल है और भूले से भी नहीं दिखती है. न जाने कहां है हमारे बचपन की वो चिरैया.
ऐसी है इससे जान-पहचान
आकार और रंग-रूप को याद करें तो गौरेया 14 से 16 से.मी. लंबी पक्षी है. पंख फैलाए को 25 सेमी का एरिया घेर लेती है. वजन 26 से 32 ग्राम और हल्की भूरी-मटमैली सी रंगत लिए यहां-वहां फुदकती नन्हीं जीव है गौरेया. गौरेया को हमेशा शरदकालीन एवं शीतकालीन फसलों के दौरान, खेत-खलिहानों में अनेक छोटे-छोटे पक्षियों के साथ फुदकते देखा जाता था.
इसकी सामान्य पहचान उस छोटी सी चंचल प्रकृति की चिड़िया से है जो हल्के रंग की होती है और चीं चीं करती हुई यहां से वहां फुदकती रहती है.
जितने शहर, उतने नाम
गौरेया को 1851 में अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीट्यूट ने पहचाना था. इसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है. गुजरात में चकली, मराठी में चिमनी, पंजाब में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, तमिलनाडु तथा केरल में कूरूवी, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी, तथा सिंधी भाषा में झिरकी कहा जाता है.
गौरेया पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ एवं रहस्यमय तरीके से गायब होती जा रही है. लेकिन अब तो रहस्यमय पक्षी बन गई है.
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2005 से ही गायब है गौरेया
बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी ( BNHS) के एक किए गए शोध के मुताबिक सर्वेक्षण जांच के आधार पर गौरेया की संख्या 2005 तक 97 प्रतिशत तक घट चुकी है. बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग, बढ़ता प्रदूषण और बड़े स्तर पर गौरेया को मारना जैसे कई कारक हैं जिनसे यह प्राणी आज लुप्त होने के कगार पर है.
आधुनिक युग में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोज्य-पदार्थ स्रोतों की उपलब्धता में कमी प्रमुख कारक हैं जो इनकी घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं. गौरेया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को भी समाप्त करने में सहायक होती है.
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सालिम अली ने भी जताई थी चिंता
मशहूर पक्षी वैज्ञानिक डॉक्टर सालिम अली ने भी गौरेया की गिरती संख्या को लेकर चिंता जताई थी. उनका कहना था कि अभी पृथ्वी के दो तिहाई हिस्से में उड़ने वाली प्रजातियों का पता लगाया जाना बाकी है लेकिन दुखद है कि जो प्रजातियां पहले बहुलता में थी, इतनी जल्दी लुप्त होने लगी हैं.
अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में डॉ. अली लिखते हैं कि गौरैया भगवान की बनाई निजी ऐसी मशीन है. वह फसलों के कीड़ों को खा जाती है, इसकी जगह मानव के आविष्कार से बनी कृत्रिम मशीन नहीं ले सकती है.
क्यों खतरे की घंटी है गायब गौरेया
पक्षी जो कि हमें रोज के व्यवहार में दिखते और जीवन शैली में शामिल होते हैं, दरअसल वह सीधे तौर पर हमारी जिंदगी चला रहे होते हैं. यह पूरी प्रकृति निर्भरता के सिद्धांत के काम पर करती है. इस आधार पर गौरेया हमारी जैव विविधता का हिस्सा रही है, और फूड चेन की खास कड़ी भी है. कृषि आधारित देश में गौरेया इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वह किसान से सीधे तौर पर जुड़ी थी. गौरेया की जिंदगी फसलों पर लगवे वाले कीड़ों से चलती थी और हमारी जिंदगी का आधार फसल है.
अब आलम है कि हमने खेत-बगीचे खत्म कर दिए हैं, लेकिन फसल अभी भी चाहिए, लेकिन गौरेया की जगह नहीं बची है.
लोक जीवन में चिड़ा-चिड़ी वाली कहानियों में रचा बसा हमारा समाज अब इंटरनेट पर ही इस पक्षी की शक्ल देख पाता है और वहीं कृत्रिम आवाज भी सुन सकता है.समय के साथ इनका संरक्षण तो किया जा रहा है,
लेकिन सवाल है कि जिस नई बसती सोसायटियों में हमारी आने वाली पीढ़ी को प्रकृति का खुलापन नसीब नहीं है, वहां हम चिड़िया के लिए क्या ही जगह बना पाएंगे. गौरेया दिवस के मौके को उम्मीद नहीं, अफसोस के साथ मनाइये.