नई दिल्ली: ब्रिटेन की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी की ओर से की गई एक रिसर्च के मुताबिक लैपटॉप, मोबाइल फोन और बेबी सीट में इस्तेमाल होने वाले हानिकारक केमिकल्स आसानी से आपकी की त्वचा के जरिए शरीर के अंदर ब्लडस्ट्रीम में पहुंच सकती है. ये केमिकल पसीने के जरिए हमारे स्किन तक पहुंचते हैं.
शरीर पर ऐसे डालता है बुरा असर
रिसर्च के मुताबिक फर्नीचर, घरेलू सामान और इलेक्ट्रॉनिक आइटम जैसे फ्लेमप्रूफ चीजों में इस्तेमाल किए गए पॉलीब्रोमिनेटेड डिफेनिल ईथर (PBDEs) नाम के केमिकल हमारे थाइरॉइड फंक्शन, ओवेरियन फंक्शन, कॉग्निटिव डेवलेपमेंट और मोटर स्किल्स पर बुरा असर डालते है. यहीं नहीं इससे कैंसर का खतरा भी होता है. रिसर्चर्स के मुताबिक उन्हें पहले से ही पता था कि ये केमिकल भोजन-पानी के जरिए हमारे शरीर में पहुंच सकता है, लेकिन उन्हें पहली बार पता चला कि ये केमिकल हमारे स्किन में भी घुस सकता है.
रिसर्च में हुआ ये खुलासा
रिसर्च को लेकर वैज्ञानिकों ने पॉलीब्रोमिनेटेड डिफेनिल ईथर (PBDEs) युक्त माइक माइक्रोप्लास्टिक्स को 3डी मानव त्वचा पर रखा और इसे 24 घंटे के लिए भीगने रख दिया. इस दौरान वैज्ञानिकों ने पाया कि पसीने से तर त्वचा माइक्रोप्लास्टिक से 8 प्रतिशत PBDEs को एब्जॉर्ब कर सकती है. हमारा पसीना इस जहरीले केमिकल को आसानी से ब्लडस्ट्रीम में प्रवेश करने में मदद करती है.
क्या है PBDEs?
पॉलीब्रोमिनेटेड डिफेनिल ईथर यानी PBDEs एक तरह का केमिकल है, जिसे घरेलू प्रोडक्ट्स में मिलाया जाता है ताकी इनमें आग न लगे या फिर ये ज्यादा हीट के संपर्क में आने से न जलें, हालांकि वैज्ञानिकों ने अब इस केमिकल को नुकसानदायक बताया है. वैज्ञानिकों के मुताबिक जिन लोगों को ज्यादा पसीना आता है उनकी स्किन में इस केमिकल के ज्यादा एब्जॉर्ब होने का खतरा है.
शरीर में धीरे-धीरे जमा होते हैं केमिकल्स
बर्मिंघम यूनिवर्सिटी में रिसर्च करने वाले शोधकर्ता और लेखक डॉ. ओवोकेरॉय अबाफे ने रिसर्च को लेकर कहा,' माइक्रोप्लास्टिक पर्यावरण में हर जगह हैं, हालांकि इसके बावजूद हमें इससे होने वाले स्वास्थय समस्याओं के बारे में बेहद कम जानकारी है. उन्होंने कहा,' हमारी इस रिसर्च से पता चलता है कि माइक्रोप्लास्टिक हानिकारक केमिकल्स के कैरियर के रूप में भूमिका निभाते हैं, जो त्वचा के जरिए ब्लडस्ट्रीम तक पहुंचते हैं. ये केमिकल लगातार बनते रहते हैं. ऐसे में इसके लगातार संपर्क में आने से ये शरीर में धीरे-धीरे जमा होने लगते हैं, जिससे शरीर को नुकसान पहुंचता है.' बर्मिंघम यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के एसोशिएट प्रोफेसर डॉक्टर मोहम्मद अब्दुल्लाह के मुताबिक रिसर्च के ये परिणाम पॉलिसी मेकर्स और नीति निर्माताओं को माइक्रोप्लास्टिक से जुड़े कानून में सुधार करने और इसके हानिकारक खतरों को लेकर लोगों को जागरुक करने के लिए जरूरी सबूत प्रदान करती है.'
Disclaimer: यहां दी गई जानकारी रिसर्च पर आधारित है, लेकिन Zee Bharat इसकी पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.
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