नवरात्र विशेषः जानिए, शुंभ-निशुंभ के अत्याचार से देवी ने कैसे दिया भक्तों को अभयदान

देवी भगवती के जितने भी स्वरूप हैं, सभी के अलग-अलग तात्पर्य हैं और हर रूप में माता भक्तजनों का कल्याण करती हैं. नवरात्र के पांचवे दिन भक्त स्कंदमाता की पूजा करते हैं तो अगला छठवां दिन देवी कात्यायनी को समर्पित होता है. देवी भागवत से निकले भगवती के इन दोनों स्वरूपों की कथा, जिन्होंने देवताओं को अभयदान दिया और शुंभ-निशुंभ जैसे दानवों का वध किया. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Mar 30, 2020, 08:12 AM IST
    • नवरात्र के पांचवें दिन देवी स्कंदमाता और छठवें दिन कात्यायनी देवी की होती है पूजा
    • स्कंदमाता ममता स्वरूप और कात्यायनी देवी दुख व संकटनाशिनी हैं
नवरात्र विशेषः जानिए, शुंभ-निशुंभ के अत्याचार से देवी ने कैसे दिया भक्तों को अभयदान

नई दिल्लीः चैत्र नवरात्र के पांचवें दिन देवी स्कंदमाता की पूजा की जाती है. देवी का यह स्वरूप जननी स्वरूप है और पालन-पोषण के साथ दुखहर्ता के निर्मल रूप का प्रतीक है. यही शक्ति स्वरूप श्रीहरि की पालक शक्ति की प्रेरणा है. स्कंद देवी पार्वती और महादेव के पुत्र कार्तिकेय का एक नाम है.

इसलिए देवी को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है. देवताओं ने जब आर्त स्वर में दैत्यों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की तो माता ने इसी पुण्य सलिला स्वरूप में उन्हें अभयदान दिया. इस कथा का संपूर्ण वर्णन देवी भागवत और श्रीदुर्गा सप्तशती में होता है. 

इंद्र ने किया नमुचि का वध
महिषासुर के वध के बाद देवों ने अपना राज्य संभाल लिया, लेकिन संकट टला नहीं था. आसुरि शक्ति बिखर गई थी, जिसे दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने एक बार फिर संगठित किया और समुद्र में जा छिपे असुर नमुचि को फिर से राजा बनाया. नमुचि को सुझाव दिया कि सैन्य बल तो उसके पास है ही, लेकिन उसे आध्यात्मिक शक्तियां भी एकत्रित करनी होंगी.

शुक्राचार्य के समझाने पर नमुचि ने तपस्या का मार्ग अपनाया और एक बार फिर इंद्रासन डोलने लगा. देवराज इंद्र ने खतरा जानकर नमुचि पर वज्र प्रहार कर दिया और इसे रास्ते का कांटा हटा समझकर प्रसन्न होने लगे. असुरलोक में एक बार फिर नीरव सन्नाटा छा गया. लेकिन यह तूफान से पहले की शांति थी. 

शुंभ-निशुंभ ने लिया जन्म
प्रजापति दक्ष की दो बड़ी पुत्रियों दिति व अदिती का विवाह वैष्णव भक्त ऋषि कश्यप से हुआ था. अदिति के पुत्र देव हुए और दिति के पुत्र दैत्य कहलाए. देवी दिति ने एक बार प्रदोष काल में हठ करके कश्यप ऋषि को संसर्ग के लिए बाधित किया, उस दिन अमावस्या का अंधकार भी फैलने वाला था.

कश्यप ऋषि को आभास हो गया कि एक बार फिर उनकी संतान दानवराज दनु के यश को आगे बढ़ाएगी. नियति के मानकर वह उस समय की प्रतीक्षा करने लगे, जब विधाता का यह लेख सत्य होने वाला था. नियत समय पर देवी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया. दोनों जन्म लेकर रोए नहीं, बल्कि अट्टहास करने लगे.

उनके इस अट्टहास में वन के दुर्दांत पशुओं ने भी सुर मिलाए और फिर सियारों की आवाज गूंजने लगी. यह सृष्टि से आकाश तक सूचना थी कि शुंभ-निशुंभ का जन्म हो गया था. 

शुक्रचार्य ने फिर संगठित की शक्ति
शुंभ-निशुंभ का जन्म होने के बाद शुक्राचार्य एक बार फिर उत्साह से भर गए. वे शुंभ-निशुंभ को ले आए और आसुरि विद्या के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देने लगे. जल्द ही किशोर और फिर युवा हुए दोनों दानवों ने सभी विद्या सीख ली और गुरु आज्ञा से ब्रह्म तपस्या में लीन हो गए.

इस बार इंद्रासन डोलता रहा, लेकिन देवराज का हर प्रयास विफल रहा. वज्र का प्रयोग करना चाहा तो आकाशवाणी ने रोक दिया कि बार-बार तपस्या रत व्यक्ति पर वज्र प्रहार तुम्हारे पुण्य का क्षरण करेगा. भयभीत इंद्र लौट आए. इस तरह दोनों दैत्य भाइयों की तपस्या सम्पन्न हुई. ब्रह्मदेव ने प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा-

शुंभ-निशुंभ ने मांगा अमरता का वरदान
ब्रह्मदेव के प्रकट होने के बाद शुंभ-निशुंभ ने उनसे अमरता का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मा ने इसे प्रकृति विरुद्ध बताकर मना कर दिया. तो बहुत सोच-विचार कर दोनों ने एक सुर में वर मांगा कि उन्हें किसी कुमारी कन्या के हाथों मृत्यु का वरदान दीजिए.

देव-दानव, पुरुष-पशु, नाग, किन्नर, गंधर्व और यक्ष उन्हें बिल्कुल न मार सकें. यहां तक की त्रिदेवों के चलाए अस्त्र-शस्त्र भी उन पर प्रभावहीन हो जाएं. ब्रह्मदेव तथास्तु कहकर अन्तर्ध्यान हो गए और देवता आक्रमण की आशंका में चिंतित हो उठे.

शुंभ-निशुंभ ने छीना स्वर्ग और पृथ्वी पर मचाया हाहाकार
शुक्राचार्य ने जब इस तरह के वरदान का समाचार सुना तो बड़े भाई शुंभ का राजा बना दिया और निशुंभ को सेनापति नियुक्त सेना संगठित करने आदेश दिया. शुंभ-निशुंभ चारों दिशाएं जीतने निकल पड़े और धीरे-धीरे अहंकारी होते चले गए. उन्होंने गांवों के गांव उजाड़ दिए और अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मणों के कंधे से सिर हटाते चले गए.

यज्ञ में भाग ने मिलने से देवता कमजोर हो लगे. यह स्थिति देख शुक्राचार्य ने अब स्वर्ग विजय का इशारा किया. देवराज की आशंका सच निकली. भयंकर देवासुर संग्राम हुआ, जिसमें देवताओ के हाथ एक बार पुनः हार लगी. स्वर्ग छिन गया और धरती से आकाश तक चीत्कार की आवाज उठने लगी. 

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देवताओं ने आदिशक्ति को पुकारा
अपनी यह स्थिति देखकर देवता ब्रह्मदेव के पास गए. ब्रह्मदेव जानते थे कि यह उनके वरदान का परिणाम है. इसलिए वह देव सहायता करने में सक्षम नहीं थे, लेकिन योगमाया की कृपा से उन्हें महिषासुर वध का प्रसंग स्मरण हो आया. जब देवी स्वरूपा शक्तिपुंज ने आश्वासन दिया था कि संकट की घड़ी में वह पुकारने पर जरूर आएंगी.

तब सभी देवताओं ने आर्त स्वर में उनकी आरती की और पुकार लगाई, हे आदिशक्ति, परमशक्ति, महाशक्ति, देवी भगवती, प्रकट हों, कृपया प्रकट हों. हे भवतारिणी, हे जगतजननी मां प्रकट हों. अपनी संतति की रक्षा करो देवी. 

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प्रकट होकर देवी ने दिया आश्वासन
देवताओं का यह स्वर सुन शक्ति स्वरूपा पार्वती की आद्याशक्ति द्रवित हो उठीं. जगतजननी मां संबोधन सुनकर उनका हृदय विह्वल हो गया. इसलिए भावातिरेक में वह स्कंदमाता के करुण रूप में प्रकट हुईं. उन्होंने देवताओं का सारा हाल सुना और उनके ममतास्वरूप को देखकर ही देवताओं का भय जाता रहा.

तब देवी ने आश्वासन से भरे, लेकिन पूरी दृढ़ता से यह शब्द कहे, उन्होंने कहा-हे अदिति पुत्रों, अब शोक न करो, विधि के वरदान के अनुसार शुंभ-निशुंभ का वध कुमारी कन्या से ही हो सकता है, इसलिए मैं पुत्री स्वरूप में जन्म लूंगी और ऋषि कात्यायन का वात्सल्य प्राप्त कर कात्यायनी कहलाऊंगी. देवता यह आश्वासन सुनकर हर्षित हो उठे. 

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