नई दिल्ली. ट्रम्प प्रशासन ने घोषणा की थी और अब उस पर अंतिम कार्यवाही होने वाली है. इस घोषणा के पीछे के उद्देश्यों पर विशेषज्ञों की एक राय हो या अलग-अलग, अपने उस वादे पर जो अमेरिका ने आतंक के खिलाफ किया था और अफगानिस्तान में निभाया था - कुल मिला कर ये घोषणा जितनी अच्छी लगती है उतनी ही असफल भी दिखाई देती है. कहने का तात्पर्य इतना ही है कि थोड़ा पहले होने जा रही है ये कार्यवाही जो थोड़ा रुक कर होनी चाहिए थी.
अब बचेंगे बस दो हज़ार जवान
अभी तक जिस अफगानिस्तान में एक लाख अमेरिकी जवान थे, अब वहां सिर्फ दो हजार ही बाकी रह जायेंगे. ऐसे में जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अमेरिकी सेना यहां थी, अब उस उद्देश्य की पूर्ति कैसे होगी? हालांकि ट्रम्प ने लोक-रूचि का निर्णय लेते हुए अपनी सेनाओं को वापस बुलाने का ऐलान किया था और उसके पीछे हर साल अपनी सेना पर खर्च होने वाले चार बिलियन डॉलर्स की बचत करने की मंशा थी ट्रम्प की.
निभाया वादा ट्रम्प ने
अलग किस्म के राष्ट्रपति बनने और अमेरिकी जनता और अमेरिकी सेना की पसंद का फैसला करके उनके पसंदीदा राष्ट्रपति बनने की डोनाल्डी मंशा पर काम किया ट्रम्प ने. उन्होंने अमेरिका के लोगों से वादा किया था कि अपनी सेना को अब अपने देश वापस बुलाएंगे. वहां अब तक सैकड़ों अमेरिकी सैनिक अपने अभियान के कार्य में बलिदान हो चुके हैं जो अमेरिका की जनता और सेना दोनों को ही रास नहीं आया है.
फौजें हैं अमेरिकी नेताओं का दिखावा
अमेरिकी जनता और सेना दोनों को ही ये लगता है कि अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकियों से लड़ाई उनकी अपनी लड़ाई नहीं है. किसी दूसरे देश में चल रही अशांति के लिए वे कहाँ तक जिम्मेदार हैं. ऐसे में अफगानिस्तान में सेना को रोकना सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपतियों का वैश्विक नेता बनने का दिखावा मात्र ही है - अमेरिकी लोगों और अमेरिकी सेना के अतिरिक्त ऐसा सोचना पाकिस्तान जैसे कई देशों का भी है जो अफगानिस्तान में अपनी खिचड़ी पकाने की घात लगाए बैठे हैं.
लगभग बीस बिलियन डॉलर्स का खर्च
अफगानिस्तान में अपनी सेना पर अब तक बीस बिलियन डॉलर्स का खर्चा अमेरिका कर चुका है. 2002 से अब तक के अठारह वर्षों में परिस्थितियां अब काफी बदल चुकी हैं. वैश्विक आतंकवाद काफी हद तक नियंत्रित किया जा चुका है. रूस का तालिबान को समर्थन भी अब नहीं है. पाकिस्तान की अफगानिस्तान से मैत्री भी अब शत्रुता की दहलीज पर जा खड़ी हुई है ऐसे में अमेरिका को लगता है कि अब आतंक के खिलाफ कमर कसने से बेहतर है कि पैसे बचाये जाएं.
ओबामा ने भी किया था यही वादा
ट्रम्प ने जो वादा किया था उनके पहले ओबामा ने भी किया था किन्तु ओबामा थोड़ा आरामतलब किस्म के राष्ट्रपति थे जिन्होंने ओसामा को खत्म करके अपने कर्तव्यों से अपनी इतिश्री समझ ली थी. इसलिए जब ट्रम्प ने यही वादा किया और उसे निभाया भी तब अमेरिका के जनमन से उन्हें समर्थन भी प्राप्त हुआ. ट्रम्प की आलोचना करने वालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि ट्रंप ने फौजों की वापसी तेज करने के लिए अपनी कूटनीतिक तैयारी का होमवर्क भी पूरा किया था.
ट्रम्प ने बातचीत शुरू कराई
डोनाल्ड ट्रम्प ने जलमई खलीलजाद के जरिए तालिबान और काबुल की गनी सरकार के मध्य संवाद का दौर शुरू करवाया. इतना ही नहीं, दक्षिण एशियाई महाशक्ति भारत को भी ट्रम्प ने इस कार्रवाई में जोड़ा था. फिलहाल स्थिति ये है कि काबुल सरकार और तालिबान के बीच समझौता हो गया है किन्तु ये समझौता कागज से सड़क तक नहीं पहुँच पाया है. और अब अक्सर दहशतनाक वारदातों की गूंज आती सुनाई देती हैं अफगानिस्तान से.
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सैन्य-संख्या और गतिविधियां व्यवस्थित हों
जाने से पहले एक अंतिम और पूरी कोशिश अमेरिका को ज़रूर करनी चाहिए ताकि कोई उसे पलायनवादी या वादाफरामोश न कह सके और खुद अमेरिका को भी लगे कि वो जो कहते हैं, करते हैं. फिलहाल स्थिति ये है कि अफगान के सैनिकों की संख्या अभी लगभग पौने दो लाख है, नाटो देशों के बारह हजार सैनिक वहां हैं और अमेरिका के एक लाख सैनिक मिला कर कुल तीन लाख सैनिक अफगानिस्तान में अस्तित्वमान हैं. किन्तु तालिबानी आतंकियों से लड़ने के लिए पांच लाख से कम फौजियों में काम नहीं चलने वाला है. अतएव अब अमेरिका को गंभीर हो कर इस शांति-युद्ध का नेतृत्व पूरी क्षमता और समर्पण से करना होगा और एक पूरा कोर्स ऑफ़ ऐक्शन तैयार करके उसके विरुद्ध सेना को व्यवस्थित करके एक अंतिम लड़ाई सफलता के साथ लड़नी होगी. उसके बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी अमेरिका ही नहीं, दुनिया भी सराहेगी.
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दूसरा विकल्प भी सकारात्मक ही है
यदि उपरोक्त कार्रवाई अफगानी भूगोल के व्यवहारिक धरातल पर सफल दृष्टिगत न हो तो दूसरा और अंतिम सकारात्मक विकल्प ये है कि यहां संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से कुल पांच लाख सैनिकों की संख्या-पूर्ति की जाए जो यहां दो साल तक रुके और योजनाबद्ध ढंग से अपना लक्ष्य हासिल करे. अमेरिका का यह निर्णय अमेरिका की छवि को चीन के मुकाबले एक सच्चे वैश्विक नेता के रूप में सशक्त करेगा. क्योंकि सारी दुनिया में अब आतंक और आतंकियों का सबसे बड़ा गढ़ अफगानिस्तान ही है जो दुनिया के हर देश के लिए संकट का कारण बन सकता है.
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