Yasser Arafat Birthday: फिलिस्तीन और इजरायल विवाद को पूरी दुनिया के सामने रखने और फिलिस्तीन की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोड़कर शांति का रास्ता अख्तियार करने वाले इस नेता को अरब दुनिया में वही स्थान है, जो दुनिया में अन्य अंहिसावादी नेताओं का है.
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यरूशलमः आज यानी 24 अगस्त को फिलिस्तीनी मुक्ति संग्राम के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने वाले एक नायक यासिर अराफात का जन्म दिन है. 2004 में उनकी संदिग्ध तौर पर मौत हो गई थी, जिसकी गुत्थी आजतक नहीं सुलझ पाई कि आखिर उनकी मौत के पीछे कौन-सी ताकत थी. मध्य पूर्व के देशों में यासिर अराफात का कद और उनकी सियासत की विरासत इतनी समृद्ध है कि उनके मौत के सालों बाद भी दुनिया के लोग उनपर चर्चा कर उन्हें याद करते हैं. भारत से उनके बेहद अच्छे रिश्ते थे. कांग्रेस की सरकारों ने हमेशा से फिलीस्तीन की मांगों का समर्थन किया था. यही वजह थी कि यासिर अराफात भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी बहन मानते थे.
अरब मुल्कों और इज़राइल के बीच संबंधों और उनकी सियासत की जब भी चर्चा होगी, उस इलाके के इस सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली नेता को याद किया जाएगा. फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए उन्होंने शुरुआत में यह माना था कि सशस्त्र संघर्ष ही स्वतंत्रता का मार्ग है, लेकिन 1990 के दशक में उन्होंने सशस्त्र संघर्ष के बजाए संवाद के रास्ते को चुना. उनके इस कदम की फ़िलिस्तीनी समूहों द्वारा जमकर आलोचना की गई लेकिन अराफ़ात ने फ़िलिस्तीनी मुद्दे को दुनियाभर में लोक विमर्श का विषय बना दिया. उन्हें मध्य पूर्व के सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में से एक माना जाता था और वे अपनी आखिरी सांस तक अपने लोगों की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे.
इलाके में शांति के प्रयासों के लिए यासिर अराफात को 1994 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था.. लेकिन इसके बावजूद बदकिस्मती से वह मुक्ति समर्थक सभी फिलिस्तीनी संगठनों को एक छत के नीचे नहीं ला सके. हालाँकि, उन्होंने उन संगठनों के बीच दरार को और ज्यादा गहरा होने से जरूरी रोक दिया था. बाद में उनकी मृत्यु ने फ़िलिस्तीनी समूहों के बीच मतभेदों को और अधिक गहरा करने में भूमिका निभाई.
फ़िलिस्तीनी स्वतंत्रता के लिए समर्पित जीवन
अराफात का मानना था कि उनका जन्म 1929 में फिलिस्तीनी संघर्ष के केंद्र यरूशलेम में हुआ था, लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का दावा है कि उनका जन्म मिस्र की राजधानी काहिरा में हुआ था. महज 4 साल की उम्र में अपनी मां को खो देने के बाद अराफात का पालन-पोषण उनकी बड़ी बहन इनाम ने किया था. कम उम्र से ही इजरायली कब्जे के खिलाफ फिलिस्तीनी प्रतिरोध में योगदान देना शुरू करते हुए, उन्होंने 1948 के अरब-इजरायल युद्ध के दौरान फिलिस्तीनी सेनानियों को हथियार उपलब्ध कराने का काम किया. जंग के बाद, वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मिस्र गए और विभिन्न राजनीतिक संबद्धताओं और सहानुभूति वाले फिलिस्तीनी विश्वविद्यालय के छात्रों को एक साथ एक मंच पर लाने का काम किया.
सिविल इंजीनियरिंग में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह कुवैत चले गए, जहां उन्होंने 1959 में फतह नामक एक सैनिक संगठन की स्थापना की, जिसे पहले फिलिस्तीनी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के रूप में जाना जाता था. क्रांतिकारी विचारों वाले उन्होंने 1963 में अल्जीरिया में फतह की पहली शाखा खोली. फतह, ने सामाजिक लोकतंत्र और अरबवाद के विचार को अपनपा मकसद बनाया जिसने इजरायली कब्जे के खिलाफ फिलिस्तीनी संघर्ष को एक नई पहचान दिलाई.
उन्होंने 1969 में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) का नेतृत्व संभाला. उनका मानना था कि फिलिस्तीनी भूमि को इजरायली कब्जे से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संघर्ष जरूरी है. इज़राइल के अलावा, उनके नेतृत्व में फिलिस्तीनी प्रतिरोध को कभी-कभी जॉर्डन सहित अरब देशों से लड़ने के लिए मजबूर किया गया, जहां से वह 1971 में लेबनान के लिए रवाना हुए.
उन्होंने 1975 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में कहा था, “आज, मैं एक जैतून की शाखा और एक स्वतंत्रता सेनानी की बंदूक लेकर आया हूं. जैतून की शाखा को मेरे हाथ से गिरने मत दो. मैं दोहराता हूं कि जैतून की शाखा को मेरे हाथ से गिरने मत देना.’’
15 नवंबर, 1988 को, पीएलओ ने यरूशलेम में अपनी राजधानी के साथ फिलिस्तीन के स्वतंत्र राज्य की घोषणा की.
इसके बाद, उन्होंने घोषणा की कि उन्होंने फिलिस्तीनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के साधन के रूप में हिंसा को खारिज कर दिया है और उसी वर्ष इज़राइल के अस्तित्व के अधिकार को मान्यता दी, जो उनके जीवन के सबसे निर्णायक कदमों में से एक था.
ओस्लो समझौता
1990 के दशक की शुरुआत से, अराफात और प्रमुख पीएलओ अधिकारियों ने इजरायली हुकूमत के साथ गुप्त बातचीत और बातचीत की एक श्रृंखला शुरू की, जिसके नतीजे में 1993 ओस्लो समझौता हुआ. समझौते में पांच साल की अवधि में वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के कुछ हिस्सों में फिलिस्तीनी स्वशासन के कार्यान्वयन के साथ-साथ उन क्षेत्रों में इजरायली बस्तियों को फौरन रोकने और धीरे-धीरे हटाने की अपील की गई. लेकिन इजरायल द्वारा समझौते के उल्लंघन के बारे में बढ़ती फिलिस्तीनी हताशा और गुस्से ने आखिरकार 2000 में दूसरी जंग का मार्ग प्रशस्त किया.
2004 के आखिर में, इजरायली सेना द्वारा दो साल से ज्यादा वक्त तक रामल्ला में अपने परिसर में कैद रहने के बाद, 75 वर्षीय अराफात कोमा में पड़ गए और उनकी मौत हो गई.
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