मोमिन, मुख़लिस, ईमानदार, सच्चा शख़्स हमारे समाज का सबसे बेवक़ूफ़ शख़्स बना दिया गया है. धोखा, मक्कारी, अय्यारी, वादे पर खरा न उतरना, बात बात में झूठ बोलना इस दौर की ख़ासियतों में शामिल है.
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सैय्यद अब्बास मेहदी/नई दिल्ली: आज बात करेंगें निफ़ाक़ की. यानी मुनाफ़िक़ की. यानी उस अमल की जो किसी एक शख़्स का दोहरा किरदार पेश करता है. मुंह पर कुछ. पीठ पीछे कुछ. कुरान में सूरह हज की आयत नम्बर 38 में कहा गया है कि यक़ीनन सच्चे लोगों के दुश्मनों को अल्लाह ख़ुद हटा देता है. कोई ख़यानत करने वाला ना शुकरा अल्लाह को हरगिज़ पसंद नहीं है. अमानत में ख़यानत करने को नबी अकरम ने निफ़ाक़ की अलामत क़रार दिया है. निफ़ाक़ ऐसी ख़तरनाक बीमारी है कि आदमी इसमें मुब्तेला रहते हुए भी इस बीमारी का एहसास नहीं कर पाता.
होता ये है कि जब आदमी मुनाफ़िक़त का शिकार होता है. यानी चुग़लख़ोरी. पीठ पीछे साज़िश. मुंह पर दोस्ताना. दिलों में बुग़्ज़. जब इस मरज़ का शिकार होता है कोई भी शख़्स तो उसे बजाए पशेमानी होने के अपने आप पर गुमान होने लगता है कि वो बहुत बड़ा काम कर रहा है. लोगों की मदद कर रहा है. समाज की इस्लाह कर रहा है. हालांकि वो एक बड़ी बीमारी का शिकार हो चुका होता है. मुनाफ़िक़ों की क़ुरान में शदीद अल्फ़ाज़ में मज़म्मत की गई है. लेकिन इसे हक़ीक़त कहिए. सच्चाई कहिए. या फिर बहुत बड़ा अलमिया कहिए कि क़ुरान पढ़ने वाली क़ौम ही इस बीमारी का सबसे ज़्यादा शिकार है. ज़रुरतों के मुताबिक़ रिश्तों को अहमियत दी जाती है. किसी भी शख़्स की ख़ामियों, कमियों और बुराईयों को पश्ते पुश्त डाल उसकी समाजी हैसियत, ओहदा, दौलत इक़्तेदार को देखकर अहमियत दी जाती है.
मोमिन, मुख़लिस, ईमानदार, सच्चा शख़्स हमारे समाज का सबसे बेवक़ूफ़ शख़्स बना दिया गया है. धोखा, मक्कारी, अय्यारी, वादे पर खरा न उतरना, बात बात में झूठ बोलना इस दौर की ख़ासियतों में शामिल है. दूसरों को अच्छी अच्छी बातों का रात दिन पाठ पढ़ाया जाता है. लेकिन उन्ही बातों पर ख़ुद अमल नहीं किया जाता. अपने बच्चों को झूठ न बोलने का सबक़ दिया जाता है. लेकिन ख़ुद झूठ बोलना आदत बनी चुकी है. दूसरों को करप्शन न करने की हिदायत तो बड़ी आसान है. लेकिन अपने आप को करप्शन से दूर रखना मुशकिल और मुहाल है. दूसरों को कह दिया जाता है कि अपने मां बाप से अच्छा सुलूक करो. लेकिन ख़ुद का रवैय्या अपने मां बाप के लिए बहुत ही ख़राब होता है. ज़बान से अल्लाह की तौहीद का एलान तो होता है लेकिन उसपर अमल नहीं होता. अपने हुज़ूर की अहादीस तो पढ़ते हैं. लेकिन उनकी सुन्नतों पर अमल नहीं करते. हम क़ुरान को अपनी किताब तो मानते हैं लेकिन क़ुरान में जो लिखा है उसे नहीं मानते. इसी को मुनाफिक़ कहते हैं और ऐसे अफ़राद को दुनिया में कामयाब समझा जा रहा है. और ये तमाम ख़ामिया दूसरी क़ौमों के मुक़ाबिले मुस्लिम मुआशरे में ज़्यादा देखी जा रही हैं. इनसे हम तो क्या हमारे आमाल तो क्या हमारी इबादतें भी पाक नहीं हैं.
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मस्जिदों में चंदे. मदरसों की मदद. यतीमों की सरपरस्ती. बेवाओं की किफ़ालत इस नीयत से नहीं की जाती कि ये हमारा दीनी और समाजी फ़रीज़ा है. बल्कि इस नीयत से की जाती है कि इससे अपनी हैसियत और अपनी दौलत का मुज़ाहिरा होगा. दिल में कहीं भी किसी के लिए रहम नहीं. बस सब कुछ दिखावे के लिए हो रहा है. ये तमाम अमल मुनाफ़िक़त और निफ़ाक़ के हिस्से हैं. इनको इबादत और अक़ीदत से कुछ लेना देना नहीं है. चमकती और फिसलती हुई इस दुनिया में कहां किसको किसकी फ़िक्र है. कहां कोई ये सोचता है कि हमारा परवरदिगार हमारे दिलों के हाल जानता है. किसको ये याद है कि हमारा अल्लाह हमारी शह रगे हयात से भी ज्यादा हमसे क़रीब है. वो हमारी नीयतों को समझता है. तो अपनी धुन में मस्त हैं. यक़ीन मानिए अगर हमारे दिलों में निफ़ाक़ ने घर बना लिया है तो फिर हम चाहे जितने सजदे कर लें. वो सजदा नहीं हमारे नसीब का टक्कर ही साबित होगा. हम जितने रोज़े रख लें वो फ़ाक़ा ही रहेगा. हम चाहे जितना झूम झूम कर क़ुरान पढ़ लें. इसका कोई फ़ायदा हमें नहीं मिलने वाला. क्योंकि हमारी नीयतों में खोट है. हम ज़बान से नेक होने का ढोंग रचते हैं और दिलों में हमारे बुग़्ज़ों हसद, जलन, तास्सुब भरा पड़ा है.
हुज़ुरे अकरम (स.अ.) ने फ़रमाया कि चार अलामते अगर किसी में पाई जाए तो वो मुनाफ़िक़ होगा. पहला जब अमानत दी जाए तो उसमे ख़यानत करे. यानी किसी ने कोई क़ीमती चीज़ आपको भरोसे पर दी और आप या तो उसे लेकर मुकर जाएं या उसमे चोरी कर लें. दूसरी अलामत आप ने बताई कि जब बात करे तो झूठ बोले. यानी बात बात में झूठे क़िस्से सुनाना मुनाफ़िक़त की अलामत है. तीसरी अलामत आपने बताई कि जब कोई वादा करे तो उस वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी करे. चौथी अलामत बताई कि जब किसी से झगड़ा करे तो गालिया बकने लगे.
तो ये जो चार अलामते हमने सुनी. सच बताईएगा कि क्या ये अलामतें हममें नहीं पाई जाती. बता न सकें तो सुकून से सोचिएगा और अपनी शख़्सियत का जायज़ा लीजिएगा. क्योंकि निफ़ाक़ की बीमारी से बचना. इसका इलाज करना और इससे दूर रहना बेहद ज़रुरी है. निफ़ाक़ अल्लाह को शदीद नापसंद हैं. इसी लिए अल्लाह ताअला ने क़ुरान में ऐसे लोगों का पर्दाफ़ाश किया है. उनके ऊपर चढ़ी क़लई को खोल कर रख दिया है. और अवाम को बेदार करते हुए ऐसे लोगों से मोहतात और होशियार रहने की तालीम दी है.
सूरह बकरा की आयत नम्बर 12 में इरशाद हुआ है कि जान लो बिला शुब्हा वही फ़साद करने वाले हैं. लेकिन वो शऊर नहीं रखते. यानी जिस को ये इस्लाह समझते हैं ये तो ऐन फ़साद है. लेकिन जेहालत की वजह से यह समझते ही नहीं कि ये फ़साद है. सूरए फ़ुरक़ान की आयत नम्बर 30 में फ़रमाया कि मेरी कौम इस क़ुरान को छोड़ बैठी है. इन्होंने क़ुरान को पसे पुश्त डाल रखा है. इनके दिलों में इमानी अलामतें मिट चुकी हैं. जिन्हें वो अब जानते ही नहीं. इन हज़रात ने अहले इमान का लेबादा ओढ़ रखा है. लेकिन दिलो दिमाग़ में गुमराही है. कजरवी और मकरो फ़रेब भरा हुआ है. सूरए बक़रा आयन नम्बर 16 में एलान हुआ कि ये वो लोग हैं जिन्होंने गुमराही को हिदायत के बदले में ख़रीद लिया है. बस न तो इनकी तिजारत ने इनको फ़ायदा पहुंचाया और न ये हिदायत वाले हैं. क़ुरान बार-बार मुनाफ़िक़ों की मज़म्मत करता है. लिहाज़ा हमें सबसे पहले ये देखना है कि हम निफ़ाक़ का कहां तक शिकार हैं. फिर हमें निफ़ाक़ से दूर रहने के लिए अच्छे दोस्तों और सोहबतों की तलाश करनी होगी. अपनी तन्हाई को पाक करना होगा. अपने समाज और अपने मुल्क की तामीरो तरक़्क़ी में किरदार अदा करना होगा.
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