ये पैग़ाम है क़ुरान का, यानी आप को अपने समाज के लिए, अपने मुआशरे के लिए, अपने रिश्तेदारों के लिए, ग़रीबों और मोहताजों के लिए, बहुत हक़ अदा करने हैं.
Trending Photos
सैयद अब्बास मेहदी: आज हम क़ुरान शरीफ़ की दूसरी सूरा सूरए बक़रा की आयत नंबर 188 से इस्तेफ़ादा करेंगे. एलान हुआ कि "नेकी सिर्फ़ ये नहीं कि तुम अपने मुंह मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर लो, बल्कि असल नेकी तो ये है कि कोई शख़्स अल्लाह पर, क़यामत के दिन पर, फ़रिश्तों पर, अल्लाह की किताब पर, पैग़म्बरों पर ईमान लाए और अल्लाह की मुहब्बत में अपना माल क़राबतदारों पर, यतीमों पर, मोहताजों पर, मुसाफ़िरों पर, मांगने वालों पर ख़र्च करे. साथ ही नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे, जब कोई वादा करें तो अपना वादा पूरा करने वाला हो और सख़्ती में, मुसीबत में सब्र करने वाले हों. यही लोग सच्चे हैं और यही परहेज़गार है".
समाज के हर फर्द की जिम्मेदारी तय करता है कुरान
ये पैग़ाम है क़ुरान का, यानी आप को अपने समाज के लिए, अपने मुआशरे के लिए, अपने रिश्तेदारों के लिए, ग़रीबों और मोहताजों के लिए, बहुत हक़ अदा करने हैं. आपकी ज़िम्मेदारी है कि मुशकिल वक़्त में आप सब्र से काम लें, आपकी ज़िम्मेदारी है कि अगर आपकी जेब में पैसे हैं और आपकी जानकारी में कोई भूखा सो रहा है तो उसकी भूख को मिटाएं. क़ुरान दरअसल समाज के हर फ़र्द की दो ज़िम्मेदारी तय करता है. एक ज़िम्मेदारी अपने पालनहार अपने परवरदिगार की इबादत और दूसरी ज़िम्मेदारी अपने समाज के लिए.
क्या होती है इबादत वाली जिम्मेदारी
इबादत वाली ज़िम्मेदारी तो बड़ी आसान है. आप ख़ुद इबादत करिए, ज़िक्र करिए, फ़िक्र करिए, उसकी यादों की महफ़िलें आरास्ता करिए, ये आपका और आपके अल्लाह के दरमियान का मामला है, इसमें कोई कोताही हो जाए तो उसकी माफ़ी मुम्किन है, अगर नमाज़ क़ज़ा हो गई है, रोज़े छूट गए हैं, इबादतों से गाफ़िल रहे हैं तो आप तौबा कर सकते हैं, आप अपने रहमानो रहीम परवरदिगार से माफ़ी मांग सकते हैं. यक़ीनन वो बड़ा माफ़ करने वाला है.
वो जिम्मेदारी जिनसे अल्लाह से तअल्लुक कम
लेकिन आपकी दूसरी ज़िम्मेदारी की मंज़िल बहुत सख़्त है. अब मामला आपका और आपने समाजी भाई का है. अगर आपने किसी को धोका दे दिया, अगर आपने किसी का दिल दुखाया. अगर आपने अपने पड़ोसी का हक़ अदा नहीं किया, अगर मां-बाप की ज़िम्मेदारियां अदा नहीं कीं तो मामला अब आपका और उस शख़्स का है जिससे आपके मामले ख़राब हो चुके हैं. अब अल्लाह तभी माफ़ करेगा जब वो शख़्स माफ़ कर दे जिसका आपने दिल दुखाया है, जिसको आपने धोका दिया है और अगर वो शख़्स मर गया तो फिर क्या होगा. उसे ज़िंदा किया नहीं जा सकता. उसका गड़ा मुर्दा उखाड़ा नहीं जा सकता, तो माफ़ी कैसे मिलेगी? अब तो माफ़ी के लिए रोज़े महशर का इंतेज़ार करना पड़ेगा और अल्लाह जाने उस रोज़ वो आपको माफ़ करे या न करे.
हज़रत मोहम्मद साहब ने बताया फकीर कौन है?
लिहाज़ा दूसरी ज़िम्मेदारी बड़ी सख़्त है. इस ज़िम्मेदारी को बड़े एहतियात के साथ अदा कीजिए. पैग़म्बरे आज़म की हदीस है. एक रोज़ आपने सहाबा से पूछा कि क्या तुम लोग जानते हो कि फ़क़ीर कौन है. सहाबा ने अर्ज़ किया कि फ़क़ीर तो वह है जिसके पास पैसा कौड़ी नहीं है. आप स.अ. ने फ़रमाया कि दरअस्ल फ़क़ीर वो है जो कल क़यामत के दिन नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज की तमाम इबादतें लेकर हाज़िर होगा, लेकिन दुनिया में किसी को गाली दी थी. किसी पर झूठा इल्ज़ाम लगाया था. किसी का नाहक़ माल लिया था, किसी की इज़्ज़त पर हमला किया था. किसी पर ज़ुल्म किया था. किसी को नाहक़ मार दिया था. अब क़यामत के दिन हर मज़लूम आदमी उस ज़ालिम की नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज के सवाब के मुक़ाबले अपना मुतालेबा करेगा. अब अगर उस ज़ालिम के अच्छे कामों के सवाब से सबका हक़ अदा होगा तो ठीक है वरना बाक़ी मज़लूमों के गुनाहों को समेट कर उस ज़ालिम पर डाल दिया जाएगा और जहन्नम में ढकेल दिया जाएगा. अगर किसी ने किसी की एक बालिश्त भी ज़मीन हड़प ली तो रोज़े महशर सातो ज़मीनों का उतना हिस्सा उसके गले का तौक़ बनेगा. अल्लाह हु अकबर. आप सोचिए क़ुरान, हदीस, इस्लाम अख़लाक़ियात पर कितना ज़ोर देते हैं.
सारी इबादतें हो सकती हैं बकार
आपकी इबादतों पर आपके बुरे आमाल भारी पड़ सकते हैं. आपके मामलात अगर दुरुस्त नहीं हैं तो सारी इबादतें बेकार हो जाती हैं. ये पैग़ाम है क़ुरान का लेकिन अल्लाह जानता है कि हम अपनी रोज़ की ज़िंदगी में कितने गुनाहों को अंजाम देते हैं. कितनी बुराईयां हमसे सरज़द हो जाती हैं, जाने अनजाने में हम कितनों का दिल दुखा देते हैं. किसी को मारना. किसी को क़त्ल करना. किसी का ख़ून बहाना तो बहुत बड़ी बात है. अगर हमने किसी का दिल भी दुखा दिया तो वो हमारे नामाए आमाल में दर्ज हो जाता है लेकिन अफ़सोस ये है कि हमारे अंदर दुनिया बस चुकी है. सारी जद्दोजेहद दुनिया को हासिल करने की है. हम अपने हुक़ूक़ क्या अदा करेंगे. हम तो दूसरों के हुक़ूक़ को कुचलने में मसरुफ़ हैं. हम दूसरों की दौलतों पर क़ब्ज़ा कैसे किया जाए इसके मंसूबे बनाते हैं. हालात तो ये है कि इस तेज़ी से बदलते ज़माने में रिश्तों के सारे भरम टूट चुके हैं. भाई-भाई का हक़ मार रहा है. बेटा मां बाप की ना फ़रमानी कर रहा है. एक रिश्तेदार दूसरे रिश्तेदार को ज़लीलो रुस्वा करने की चालें चल रहे हैं. ज़मीनों की हदों को हर रोज़ बढ़ा रहा हैं. खेतों में अपनी मेड़ों को दूसरे के खेतों में बढ़ा रहा हैं. 10 रुपए के जले कटे नोटों को चला कर अपनी चालाकी के क़िस्से सुना रहा है. दुकानों और आढ़तों पर डंडी मार रहे हैं. यानी कम तोल रहे हैं. ख़ालिस माल में मिलावट कर रहे हैं. गोया मुआशरे की हर बुराईयों में हम बुरी तरह से मुलव्विस हैं.
आज समाज की हर बुराई में शामिल हैं हम लोग
हद तो ये है कि क़ुर्बानी के जानवर में इंजेक्शन लगा कर उसका वज़न बढ़ा रहे हैं और कहते हैं कि हम कामयाब हैं, हम कामयाब नहीं हैं, हम अपनी ज़िदंगी के हर महाज़ पर नाकाम हैं. ये ज़ाहिरी कामयाबी हमारे साथ न जाने कितनी ख़राबियां लेकर आती हैं. घर के फ़र्द बीमारियों में मुब्तिला हो जाते हैं. बने काम बिगड़ने लगते हैं. तन्हा रह जाते हैं. अपने साथ छोड़ जाते हैं. बड़ा क़रीबी अज़ीज़ धोका दे जाता है. लिहाज़ा हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि ख़ल्के ख़ुदा की जान-माल इज़्जतो आबरु की हिज़ाफ़त की जाए. दौलत, इज़्ज़त और इल्म जैसी नेमतें जो हमें मिली हैं उसको ज़्यादा से ज़्यादा तक़सीम किया जाए. लोगों में बांटा जाए. वालेदैन, रिश्तेदार, पड़ोसी और ज़रुरतमंदों की ख़िदमत करें, उनकी मुशकिलात में सहारा बनें, किसी का माल न खाएं. अपने मातहतों से हमदर्दी करें और उनके आरामो ज़रुरियात को पेशे नज़र रखें. हक़ तो ये है. क्योंकि अगर आप सेहतमंद समाज चाहते हैं. अगर आप अपनी और अपने आसपास की ज़िदंगियों में सुकून चाहते हैं, तामीरे तरक़्क़ी और फ़लाहो बहबूदी चाहते हैं तो आपको हुक़ूक़े इंसानी का ख़्याल रखना होगा. आपको हुक़ूक़ुल इबाद को अदा करना होगा. इसकी शुरुवात आपको ख़ुद से करनी होगी. अपने आप से इसका आग़ाज़ करना होगा. मुख़्तलिफ़ तहज़ीबों और मज़हबों में अपने किरादर को बेमिसाल बनाना होगा.