डियर जिंदगी : अपने कहे से दूर होते हम...
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डियर जिंदगी : अपने कहे से दूर होते हम...

हम अपने जीवन के चंद शुरुआती बरसों तक ही सत्‍य का साथ दे पाते हैं, क्‍योंकि झूठ हमें तब तक पढ़ाया नहीं जाता. हम असत्‍य के ग्रामर से तब तक दूर रहते हैं, जब तक जीवन के 'स्‍कूल' में दाखिल नहीं होते.

परस्‍पर हितचिंतक समाज की पहली और अंतिम शर्त यही है कि हर कोई अपने शब्‍दों का मोल समझे.

हम अपने निकटतम मित्रों, परिवार से जो संवाद निरंतर करते रहते हैं, अक्‍सर उसी को सत्‍य मानते हैं, क्‍योंकि हम उनके कहे को सत्‍य मानकर चलते हैं. आखिर ऐसा करने के अलावा हमारे पास दूसरा रास्‍ता क्‍या है. लेकिन रिश्‍तों का सच कई बार हमारी कल्‍पना से अधिक विचित्र और कड़वा होता है, क्‍योंकि हममें से हर कोई अब अपने कहे शब्‍दों के प्रति निष्‍ठावान नहीं है. जो कहा है, उस पर कायम रहने का हुनर समाज खोता जा रहा है. हर दिन, हर पल. इसकी गति समय की गति से भी तेज मालूम हो रही है.

डियर जिंदगी : आपकी अनुमति के बिना कोई आपको दुखी नहीं कर सकता...

हम अपने जीवन के चंद शुरुआती बरसों तक ही सत्‍य का साथ दे पाते हैं, क्‍योंकि झूठ हमें तब तक पढ़ाया नहीं जाता. हम असत्‍य के ग्रामर से तब तक दूर रहते हैं, जब तक जीवन के 'स्‍कूल' में दाखिल नहीं होते. जैसे-जैसे हम दुनिया को समझने का दावा करते हैं, हम उस दुनिया में गहरे धंसते जाते हैं, जिससे बच्‍चों को दूर रहने की चेतावनी देते हैं. हर समाज बच्‍चों को अपनी कथनी, करनी में अंतर न रखने का संदेश हर दिन जारी करता है. और फिर यही समाज हर दिन अपने ही बनाए नियम को तोड़ने का काम करता है.

इस तरह हम हर दिन अपने कहे से दूर भागते जा रहे हैं. एक-दूसरे को धोखा देने, एक-दूसरे से होड़ में आगे निकलने की तरकीबें बुनते रहते हैं. यह तरकीबें एक दिन हमें ऐसा योजनाकार बना देती हैं, जिसके पास जीवन में सबकुछ है, बस सुकून गायब है. यह समाज हर दिन प्रेम, अहिंसा और स्‍नेह से दूर होता जा रहा है, क्‍योंकि उसकी कथनी और करनी में इतना अंतर आ गया है कि उसे अगले ही क्षण अपने कहे को याद करना पड़ता है.

डियर जिंदगी: आपका भाग्‍य किसके भरोसे है...

मेरे गांव में बुजुर्ग कहते हैं कि दिन में एक बार हमारे मुंह से जो कहा जाता है, सच होता है. इसलिए कभी झूठ, अप्रिय मत कहिए, क्‍या पता आपकी कौन-सी बात सच हो जाए. इस धारणा के पीछे का सच यह रहा होगा कि हर कोई अपनी कही बात के प्रति निष्‍ठावान बने. एक-दूसरे का शुभचिंतक बने, एक-दूसरे के शुभ में हिस्‍सेदार बने.

लेकिन समय के साथ हम हर दिन उन बुनियादी बातों से दूर होते जा रहे हैं, जिन पर हमारे परिवार, समाज की नींव टिकी है. एक मूल्‍यविहीन समाज कितने भी संसाधन जुटा ले, वह अपने नागरिकों के लिए तब तक सुखमय समाज नहीं बना सकता, जब तक उन्‍हें परस्‍पर हितचिंतक न बना दे. 

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इस परस्‍पर हितचिंतक समाज की पहली और अंतिम शर्त यही है कि हर कोई अपने शब्‍दों का मोल समझे. जो कह रहा है, उसके सम्‍मान की रक्षा करे. इसी से ही हम ऐसी दुनिया बना पाएंगे, जिसके बारे में हम हर दिन सपने बुनते हैं.

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