डियर जिंदगी : क्‍या घर पर भी आप ऑफि‍स जैसे हैं...
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डियर जिंदगी : क्‍या घर पर भी आप ऑफि‍स जैसे हैं...

घर पर भी उनके चेहरे पर मुस्‍कान तलाशना मुश्‍किल काम है. गिनती के शब्‍द, बमुश्किल होठों पर हंसी. यही उनकी जीवनशैली है. ऐसे लोखों किरदार हमारे आसपास हैं. जिन्‍होंने जिंदगी को अपनी 'वर्किंग ऑवर' वाली छवि में कैद कर लिया है.

 जो घर में दिनभर के दायित्‍व वाली आदतों के साथ प्रवेश करेंगे, उनके लिए जिंदगी मुश्किल होती जाएगी.

घर पर भी उनके चेहरे पर मुस्‍कान तलाशना मुश्‍किल काम है. गिनती के शब्‍द, बमुश्किल होठों पर हंसी. यही उनकी जीवनशैली है. ऐसे लाखों किरदार हमारे आस-पास हैं. जिन्‍होंने जिंदगी को अपनी 'वर्किंग ऑवर' वाली छवि में कैद कर लिया है. मैं ऐसे ही एक सज्‍जन से आपको आज मिलवाने जा रहा हूं. वह बेहद सख्‍त आईपीएस अफसर हैं. उनकी छवि, उनका प्रोफेशन ऐसा है कि रात दिन वह अपराध की छानबीन, उससे जुड़े मामलों में शामिल रहते हैं. इसका असर यह हुआ कि घर पर भी उनका रूप, रवैया ऑफिस के अवतार से बाहर नहीं आ पाया है. यहां तक कि उन्‍हें रिटायर हुए दो बरस हो चुके हैं, फि‍र भी उनका मिजाज एकदम पहले वाला ही है. इससे उनका परिवार बेहद परेशान रहता है. परिवार की शिकायत है कि पहले भी उन्‍हें उनका समय, साथ नहीं मिलता था और अब रिटायरमेंट के बाद भी, वह अपने प्रोफेशनल स्टेटस से बाहर नहीं निकल पाएं हैं. परिवार में तनाव बढ़ता जा रहा है, क्‍योंकि उन्‍हें उम्मीद थी कि रिटायरमेंट के बाद कुछ माहौल बदलेगा, लेकिन तस्‍वीर जरा भी नहीं बदली.

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हममें से अधिकांश ऐसे लोग हैं जो अपने प्रोफेशन की छवियों में कैद होकर रह जाते हैं. इन्‍हीं की तरह एक प्रोफेसर हैं, जो कॉलेज के दिनों में इतने सख्‍त थे कि स्‍टूडेंट्स  के चेहरों से रौनक छूमंतर हो जाती थी. रिटायरमेंट के बाद उनका घर उनकी मौजूदगी में कॉलेज के स्‍टॉफ रूम जैसा ही रहता है, जहां उनके आते ही चुप्‍पी पसर जाया करती थी. 

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किसी भी प्रोफेशन की अपनी जरूरतें, अनुशासन होते हैं. उसका पूरा सम्‍मान होना चाहिए, लेकिन अगर आप अपने घर-आंगन में प्रवेश करते समय उसे बाहर रखकर नहीं आएंगे तो जिंदगी मुश्किल हो जाएगी. बच्‍चों, परिवार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप बाहर क्‍या काम करते हैं, घर के भीतर आप उनके लिए बस माता-पिता ही हैं, उससे अधिक कुछ नहीं. इसलिए छवियों का घर पर प्रवेश वर्जित होना चाहिए. यह घर पर संवाद की कमी का कारण होने के साथ ही खुद को अपनी छवि में कैद करने, अपने जैसा अन्‍याय करने जैसा भी है. हम एकदम वैसे ही हमेशा रहने लगते हैं, जैसे हम दिन के लगभग नौ से बारह घंटे तक ऑफि‍स में रहते हैं. 

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छोटी सी बोध कथा से गुजरते हैं, शायद कभी काम आ जाए..
किसान ने अपने खेतों की रखवाली के लिए पहले एक पुतला खड़ा किया लेकिन परिंदों ने थोड़े दिन में समझ लिया कि यह नकली है. यह तो बस बनाया हुआ डर है. इसलिए इसकी ओर ध्‍यान ही नहीं देना. तो किसान ने गांव के ही एक खुशमिजाज युवा से पुतले की भूमिका निभाने की पेशकश कर दी. अच्छा वेतन ऑफर किया. वह मान गया. लेकिन कुछ महीनों के बाद उसके परिवार में इस पेशे को लेकर परेशानी होने लगी. वजह वही जिस पर हम लेख के शुरुआत में चर्चा कर रहे थे. वह युवक जैसा खेत पर रहता वैसा ही घर पर रहने लगा. उसे दिन भर अकड़कर खड़े रहना था. हंसना मना था, डरावनी आवाजें निकालनी थीं, चिल्‍लाते रहना था. कुल मिलाकर वह सब करना था, जिसके बदले किसान से वेतन मिलता था. इस तरह वह अपने काम पर जैसा था, वैसा ही घर पर हो गया. उसकी प्रसन्‍नता, आनंद, स्‍वभाव सब डर के अभिनय, नौकरी करने में खप गया. 

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ऐसा लगता कि यह युवक हम सबके भीतर थोड़ी बहुत मात्रा में प्रवेश कर गया है. जिनके साथ ऐसा नहीं हो रहा, वह खुशकिस्‍मत हैं. जो घर में अपने दिनभर के दायित्‍व वाली आदतों के साथ प्रवेश करेंगे, उनके लिए जिंदगी हर दिन मुश्किल होती जाएगी. चौबीस घंटे खुद के 'कुछ' होने का बोझ उठाए घूमने वाले लोगों के तनाव, डिप्रेशन में घिरने का खतरा सबसे अधिक होता है. इसलिए जिंदगी को प्रेम, सरलता दें, उसे 'कुछ' होने के भार से मुक्‍त रखें, इससे ही मनुष्‍य, मनुष्‍यता का बचाव और जिंदगी का 'डियर' बनने रहना संभव है.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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