डियर जिंदगी : 'मेरे लायक कुछ हो तो बताना...' को भूल जाना...
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डियर जिंदगी : 'मेरे लायक कुछ हो तो बताना...' को भूल जाना...

समय, कुछ नहीं बस वादों का चौकीदार है.एकदम निष्‍पक्ष, निर्विकार.

मेरे लायक कभी कुछ हो तो बताना. यह एक विनम्र वादा, अक्‍सर कहा जाने वाला वाक्‍य है. लेकिन हममें से कितने लोग इस वाक्‍य को ईमानदारी के साथ निभाते हैं. अक्‍सर देखा जाता है कि ज़रूरत पड़ते ही यह सुनने को मिलता है कि काश! मुझे पहले बताया होता. मैं आपके लिए कुछ कर सकता था. लेकिन अब संभव नहीं. हर कोई दूसरे से यही कहता है, इस तरह हम एक ऐसा संसार रच रहे हैं, जहां दूसरे के लिए कोई चिंता नहीं है. सब इसी जुगाड़ में जिए जा रहे हैं कि किसी तरह अपना आज मज़े में बीत जाए, बस. दूसरे से कही गई बात का जब आप मोल बिसरा देंगे तो जिन्होंने आपसे कुछ कहा होगा, वह भला कब तक अपने वादे पर कायम रहेंगे. 

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हम दूसरों से किए वादे करते ही भूल जाते हैं , बस वही याद रखते हैं जो हमसे दूसरों ने किए हैं. कुल मिलाकर हम अपने ही हित का ध्‍यान रखते हैं, हमेशा. इस तरह की जीवनशैली से हम निरंतर अकेले, स्‍वार्थी होते जा रहे हैं. हम दूसरों को उस वक्‍त भुला देते हैं, जब वह परेशानी में होते हैं, जब उन्‍हें आशा, विश्‍वास के तिनकों की जरूरत होती है, लेकिन हम तिनका तक नहीं दे पाते, सहारा तो दूर की कौड़ी है. 

हम कुछ देना ही नहीं चाहते. देना तो दूर संवाद तक से मुंह मोड़ लेते हैं. और जैसे ही हम संकट में आते हैं ,वही सब कुछ हमारे साथ होने लगता है, जो अब तक हम दूसरों के साथ कर रहे थे. वादों के याद दिलाने पर वैसे ही डायलॉग हमें मिलने लगते हैं. यही प्रकृति का नियम है. प्रकृति के नियम किसी के लिए नहीं बदलते. हम नियमों को नहीं जानते इसलिए बस, शिकायतों के पिटारे लिए भटकते रहते हैं. 

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दूसरों के लिए सरोकार रखना, उनके लिए चिंतित रहना प्रकृति का सामान्‍य नियम है. हमने इसे एकदम भुला दिया है. अपनी चेतना से इन्‍हें बाहर निकाल फेंका है. सोचिए, जब हम दूसरों की चिंता नहीं करेंगे, मित्रों, परिचितों, अपरिचितों के सरोकार के प्रति जागरुक नहीं होंगे तो हमारे लिए प्रकृति कैसे उदार हो सकती है. दूसरों से जो हम चाहते हैं, वही तो दूसरों के लिए करना होता है. बस इतना सा नियम हम भूल गए हैं. 

हमेशा समय के पास शिकायतों का अंबार लिए पहुंच जाते हैं. पहले तो समय ऐसा था, पहले तो समय वैसा था. आज का समय कितना मुश्किल है. यह नितांत दकियानूसी विचार है, पाखंड है. समय हमेशा से एक जैसा था. वह निर्विकार, अपने नियमों से बंधा, सबके लिए एक समान है. यह केवल मनुष्‍य के पराक्रम की बात है कि वह समय के साथ कैसे पेश आए, समय की गति से चल सके. समय के हाथ में कुछ नहीं, सिवाए चलने के. समय एक ध्‍यानमग्‍न योगी की तरह निरंतर यात्रा पर  है, आपको उसके साथ तालमेल बिठाना है, समय को कुछ नहीं करना है, समय बस एक ही काम करता है. आपको आपकी इच्‍छा के अनुकूल निर्मित करने में सहयोग देता है. यह आप पर है कि आप उसकी सहूलियतों का इस्‍तेमाल करते हैं या उपयोग करते हैं.

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इस्‍तेमाल शब्‍द के साथ स्‍वार्थ का भाव है, जबकि उपयोग के साथ दूसरों के सरोकार की निष्‍ठा का जुड़ाव है. इसलिए हम जहां और जैसे भी है, हमें यह सोचना ही चाहिए कि हम दूसरों से 'मेरे लायक कुछ हो तो बताना...' जैसे छोटे-छोटे ही सही पर सहज वादों को कितना निभाते हैं. ध्‍यान रहे अगर आप दूसरों से किए वादे नहीं निभाएंगे तो आपसे जिनको वादे निभाने हैं, वह भी आपके साथ एकदम वैसा ही कर सकते हैं. समय, कुछ नहीं बस वादों का चौकीदार है. एकदम निष्‍पक्ष, निर्विकार. उसकी नोटबुक में आपके नाम के आगे क्‍या रिमार्क है, इससे ही आपका जीवन तय होता है.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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