डियर जिंदगी : प्रेम की सूखी नदी और तनाव का शोर ...
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डियर जिंदगी : प्रेम की सूखी नदी और तनाव का शोर ...

ऐसा लगता है, मानो प्रेम लापतागंज की ओर चला गया है, जिसका कोई गूगल मैप नहीं है.

पत्‍नी के जन्‍मदिन पर पति ने अपनी जमापूंजी से तोहफे में कार खरीदी. घर की पहली कार. सरप्राइज के लिए कार सीधे अपने घर भिजवा दी. साथ में यह संदेश भी कि इसे लेकर वह उन्‍हें रिसीव करने उनके ऑफिस आ जाएं. पत्‍नी थोड़ी ही देर में कार लेकर बताए गए पते की ओर रवाना हो गईं. दुर्भाग्‍य से रास्‍ते में एक्‍सीडेंट हो गया. नई कार को पहले ही दिन खूब चोट लगी. लेकिन वह पूरी तरह सकुशल रहीं.

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पुलिस आई. दस्‍तावेज मांगे गए. उन्‍होंने पति को फोन लगाया तो उन्‍होंने बताया कि कार के सारे दस्‍तावेज एक पैकेट में वहीं हैं. पैकेट खोला और दस्‍तावेज दिखाने के बाद जब वह भारी उदासी और दुख के साथ कार के पेपर अंदर रख रहीं थीं, तभी उनकी नजर एक कार्ड पर पड़ी. कार्ड में लिखा था.. 'जिसे मैं प्रेम करता हूं, वह तुम हो, यह कार नहीं. किसी भी दिन कार में डेंट लग सकता है, लेकिन मुझे तुम्‍हारी फ्रि‍क होगी. जब भी ऐसा हो शांत मन से कार में बैठिए और मंजिल तक पहुंचिए.'

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यह बात पढ़ने और सुनने में जितनी आसान लगती है, उतनी ही मुश्किल है. कितने लोग ऐसा कर पाते हैं, बताना मुश्किल है. मैं इन्‍हें निजी रूप से जानता हूं.. वह कोई बहुत बड़े लखपति नहीं है. बड़ी मुश्‍किलों से उन्‍होंने यह कार खरीदी थी. वास्‍तव में आपकी सोच पर बजट का कोई पहरा नहीं होता. प्रेम एक बेहद गहरी नदी की तरह है, आप जितनी गहराई से उसमें प्रवेश करेंगे, आपको उतनी ही शीतलता मिलेगी. 

हमारे साथ परेशानी यह है कि हर कार के साथ हम 'बड़े' होने की जगह 'छोटे' होते जा रहे हैं. हम बचपन में कार टूटने पर रोते हैं. वहां तक तो ठीक है, लेकिन मजे की बात है कि बड़े होने पर भी हमारी यह आदत जाती नहीं. हम वस्‍तुओं के मायाजाल में फंसे हुए लोग हैं. यह उस भारत की दशा है जिसे हम त्‍यागी और बैरागी समाज मानते हैं.

हमें व्‍यक्‍तियों से प्रेम करना है और वस्‍तुओं का उपयोग करना है. लेकिन हम वस्‍तुओं से प्रेम कर रहे हैं और व्‍यक्‍तियों का उपयोग कर रहे हैं. हमने आसपास का सारा वातावरण उपयोग पर आधारित बना दिया है. यदि आप मेरे काम के हैं तो बहुत अच्‍छा और अगर नहीं तो आप एकदम कबाड़ हैं. दरअसल हमने एक दूसरे को प्रोडक्‍ट ही बना लिया है, ऐसा निरंतर करते रहने से हमारे आसपास ऐसे लोगों के समूह बन गए हैं, जो एक दूसरे के लिए केवल और केवल प्रोडक्‍ट हैं. एक दूसरे का उपयोग हैं और उपयोग लायक न होने पर कबाड़.

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एक मनुष्‍य का दूसरे के लिए 'कबाड़ कॉन्सेप्‍ट' ही मनुष्‍यता का सबसे बड़ा संकट है. यही हमारे आसपास डिप्रेशन, तनाव और बढ़ती हुई आत्‍महत्‍या का सबसे बड़ा कारण है. प्रेम विहीन समाज हिंसा और तनाव की ऐसी जमीन तैयार कर रहे हैं, जो हमें निरंतर एकाकी, हिंसक समाज की ओर धकेल रहा है.

हम प्रेम-प्रेम कहते दुनियाभर में भटक रहे हैं. उसके गुम जाने के विज्ञापन जारी कर रहे हैं. वर्कशॉप्‍स कर रहे हैं. पहाड़, नदी और मैदान सब जगह भटक रहे हैं. ऐसा लगता है, मानो प्रेम लापतागंज की ओर चला गया है, जिसका कोई गूगल मैप नहीं है. जबकि वह तो हमारे अंदर की गहराई में है. एकदम कस्‍तूरी और मृग जैसा रिश्‍ता है, मनुष्‍य और प्रेम का. 

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हम घर बनाते समय तो नींव का बड़ा ध्‍यान रखते हैं. वैज्ञानिक पद्धति से सारे काम करते हैं, लेकिन प्रेम जो कि इस शरीर की नींव है, उसकी गहराई का कोई ख्‍याल नहीं रखते. बस बाहर-बाहर की साज-सज्‍जा पर ध्‍यान देते हैं. तो जिस शरीर की नींव कमजोर होगी, उसका भविष्‍य कैसा होगा, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है. कबीर ने कितनी खूबसूरत बात कही है.. 

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ
जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ.

हम प्रेम को खोजने के सारे जतन बाहर-बाहर कर रहे हैं. जबकि हमारे भीतर की प्रेम नदी सूखी है, तनाव का शोर इतना बढ़ गया है कि आत्‍मा तक प्रेम की स्‍वरलहरियां आ ही नहीं पाती. हम हर छोटे-मोटे कारण से अंदर तक हिल जाते हैं. छोटी-मोटी बातों पर टूट जाते हैं, खुद को नुकसान पहुंचा लेते हैं. अपना अस्तित्‍व दांव पर लगा देते हैं. क्‍यों, क्‍योंकि हमारे अंदर सबकुछ बस अपने लिए है, सबकुछ स्‍वकेंद्रि‍त है. अगर मुझ पर दूसरों का अधिकार है, मैं सबके लिए हूं तो मैं खुद को खत्‍म करने जैसा कदम कैसे उठा सकता हूं. 

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

(https://twitter.com/dayashankarmi)

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