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यह कोई प्राचीन समय की कथा नहीं है, जब 'संतोष' के बारे में स्कूल, समाज में समझाया, पढ़ाया जाता था. उस 'संतोष' का साथ जिंदगी से कभी-कभार ही छूटता था. 'संतोष' के मायने थे, अपनी कोशिश से संतुष्ट रहना. दूसरों की चीजों को देखकर उसकी कामना में तो कोई बुराई नहीं लेकिन हां, उससे जलन, ईर्ष्या की मनाही थी. हमें 'संतोष' का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा का नाम नैतिक शिक्षा होता था. कुछ राज्यों में इसे सहायक वाचन के नाम से भी जाना जाता था.
यह 'संतोष' नाम का मंत्र किताब से कम शिक्षक और माता-पिता से संवाद से अधिक मिलता था. कुल मिलाकर माता-पिता, स्कूल बचपन से ही एक ऐसे 'गुण' से मित्रता करा देते थे, जिसका हाथ थामकर इस देश ने 2008 और उससे पहले की आर्थिक मंदियों तक का सफलता से सामना किया था. लेकिन अब जरा सी मुश्किल आते ही ऐसा लगता है, पूरे अस्तित्व पर संकट गहरा गया है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारा 'संतोष' से साथ छूट गया.
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'संतोष' हमें छोड़कर, रूठकर चला गया. उसका पता, ई-मेल, फेसबुक पेज कुछ नहीं है. उसके लापता होते ही समाज, घर-परिवार, रिश्तों में संघर्ष शुरू हो गया है. देश में कलह, ईर्ष्या खतरनाक स्तर से काफी ऊपर पहुंच गई है. 'संतोष' का साथ एक दिन में नहीं छूटा. इसे हमसे अलग करने में हजारों विज्ञापन, अधकचरी फिल्में, किताबों को बहुत मेहनत करनी पड़ी. 'संतोषम् परम सुखम्' एक नीति वाक्य, धरोधर की तरह जीवन में था. जो हमें दूसरों के साथ सहजीवन, सुख-दुख साझा करने का सबक देता था.
'संतोष' का अर्थ महत्वाकांक्षा को न कहना नहीं, बल्कि अपने प्रयास के प्रति निष्ठा, हासिल के प्रति प्रेम था. इसमें जिसे मिला उसके प्रति आदर, सम्मान शामिल था. परिवार कम में गुजारा करते थे, लेकिन क्रेडिट कार्ड, पर्सनल लोन के 'कूल' फैशन से दूर थे. वह अपनी मूल जरूरत, दूसरों को देखकर पैदा हुई जरूरत में अंतर करना जानते थे. इसलिए, बैंकों में वसूली के लिए कर्मचारी कम थे, जो दो-चार थे, वह भी दिन में घर जाकर झपकी ले ही लेते थे. इसलिए कंपनियों ने विज्ञापनों के साथ हसरतों को किसी भी कीमत पर पाने का मायाजाल रचा. जिसमें जीवन के मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रहा, बस जो इच्छा हुई उसे तुरंत हासिल करें.
यह 'संतोष' के मूल गुणों से एकदम उलट था. इधर, हमारे भीतर बाजार ने प्रोडक्ट की चाहत कुछ ऐसे ठूंस-ठूंस कर भरी कि कई बार समझना मुश्किल हो जाता है कि यह इच्छा हमारी है या पड़ोसी से ईर्ष्या का कारण. पहले माता-पिता हमारी लालसा, अनुचित चाहतों की लगाम थाम लेते थे. यथासंभव इच्छा और जरूरत में संतुलन बनाए रखते थे. जब से यह संतुलन गड़बड़ हुआ, जीवन में सुनामी आ गई. हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए धैर्य, संघर्ष हमारे पास नहीं है. इसलिए एक इच्छा की पूर्ति होते ही हम बाजार की बोई दूसरी इच्छा के फेर में पड़ जाते हैं. अपना मन असंतोष, विकार से भर लेते हैं. इसके बाद पर्सनालिटी डेवलपमेंट की क्लास में एडमिशन, मेडिटेशन की ओर जाते हैं. जबकि यह सब हमारे अपने मन से उपजा है. इसलिए, इसका उपाय हमारे अंतर्मन में है, बाहर नहीं.
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तो आइए...अपने मित्र 'संतोष' से निवेदन करें कि वह लापतागंज से लौट आए. कोई उससे कुछ नहीं कहेगा! उसके जाने का कारण भी नहीं पूछेगा, बस उसके साथ रहने की पूरी कोशिश करेगा...
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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