मान लेना चाहिए कि हमारी जान हमारे हाथ में है
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मान लेना चाहिए कि हमारी जान हमारे हाथ में है

हम खुद भी एक भीड़ की तरह व्यवहार करते हैं, भीड़ के साथ भी कुछ भी हो सकता है और भीड़ किसी के साथ कुछ भी कर सकती है.

मान लेना चाहिए कि हमारी जान हमारे हाथ में है

अमृतसर ही क्यों, जरा एक पल को सोच लीजिए, क्या ऐसा ही कोई हादसा आपसे होकर नहीं गुजर सकता. कल जब दशहरा मैदान से लौटते वक्त तो यही अहसास हुआ कि इस भीड़ का नियंत्रक कौन है. क्या सचमुच हजारों की संख्या वाले किसी कार्यक्रम में लोगों के जान—माल की गारंटी होती है, क्या वाकई प्रशासन इस स्थिति में होता है कि ऐसे कार्यक्रमों में वह कुछ भी होने से रोक सके, या सब कुछ दैवीय शक्ति के भरोसे ही चल रहा होता है. इसी भीड़ से लगभग घबराकर हमने अपने शहर में और भी जगह घूमकर रावण दहन और झांकी देखने की योजना को विराम दिया, और घर पहुंचते-पहुंचते यह अमृतसर की मनहूस खबर भी आ गई.

खुशियों की तस्वीर दिखाते न्यूज चैनलों पर दर्द पसरा हुआ था, सवाल थे, आखिर किसकी लापरवाही, पर सच पूछिए तो यह कहीं भी किसी भी रूप में हो सकता है, क्योंकि हम खुद भी एक भीड़ की तरह व्यवहार करते हैं, भीड़ के साथ भी कुछ भी हो सकता है और भीड़ किसी के साथ कुछ भी कर सकती है जैसा कि हमने पिछले महीनों में पीट-पीट एक दो नहीं कई कई जान लेने वाली घटनाओं को मॉब लिंचिंग शीर्षक से पढ़ा है.

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क्या हिंदुस्तान के अंदर किसी व्यक्ति की जान उतनी मूल्यवान होती है, जितनी की होना चाहिए. भारत के संविधान की उद्देश्किा में व्यक्ति की गरिमा के लिए वास्तव में राज्य की कोशिशें हैं, और क्या वास्तव में इसमें हम भारत के सभी लोग समाहित हैं, जब हम इस पर सोचते हैं तो लगता है कि हम भारत की भीड़ में परिवर्तित हो गए हैं और मानवाधिकार आधे—अधूरे हैं. इन्हें संरक्षित करने वाली व्यवस्था मुंह देखकर काम करती हैं, और उनके केन्द्र में आमजन नहीं है, जो भीड़ को मानव इकाईयों का समूह मानकर उनके लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता हो.

केवल प्रशासन ही क्यों, समाज की कमजोर होती नींव में एक—दूसरे की जड़ों में मठ्ठा डालते समाज में हमारा वसुधैव कुटुम्बकम का ताना—बाना भी तो बिखर ही रहा है. इसीलिए हमारी स्मृति से यह घटनाएं इतनी तेजी से आती और जाती रहती हैं, कि कुछ ठहरकर उनसे सबक ले पाने भर का वक्त भी नहीं है. व्यवस्था बहुत ज्यादा आक्रोश हो जाने पर मुआवजे का मलहम पोत दिया जाता है, लेकिन किसी इंसानी जीवन का कोई मुआवजा हो नहीं सकता.

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पर इसमें दोष किसे दिया जाए और कोई सुधार करे तो कौन करे, जिन्हें इस बात की जिम्मेदारी दी जाती है, उन्हें ही तो भीड़ चाहिए होती है. क्या कोई राजनैतिक परिवर्तन कर देने भर से बदलाव होगा और इंसान को इंसान माना जाने लगेगा, शायद नहीं. भीड़ तो सभी को चाहिए, और अब उसके लिए नैतिकता नहीं आडंबरों का ही सहारा लिया जाना ही एकमात्र उपाय है. अब वैसी नैतिकता भी तो बिरली है, जब लाल बहादुर शास्त्री रेल हादसे के बाद अपनी जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री के पद इस्तीफा दे डालते हैं और उनका इस्तीफा इसलिए स्वीकार किया जाता है कि वह एक नजीर बने.  किसी ने कहा भी है कि अब वक्त सत्य या झूठ का नहीं है, वह बहुत पीछे की बात हो गई है अब वक्त नैतिक और अनैतिक होने का है. दुर्योग से अनैतिकता का डंका जोर—जोर से बज रहा है.

इसलिए मान लीजिए कि आपकी जान केवल और केवल आपके ही हाथों में है. आवारा भीड़ का हिस्सा बनने से बचिए और अपना दिमाग लगाइए.

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