मध्यप्रदेश में विवाह के कुएं में इतनी भांग है कि इसमें उम्र अपना असर खो चुकी है. कुप्रथा के पागलपन में बौराए पुरुष अपनी बेटियों के अधिकारों से उनको वंचित करने के साथ ही उन्हें नीचा दिखाए रखने के नाटक में मुख्य किरदार निभाए जा रहे हैं.
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परिवर्तन के लिए समाज किसकी ओर देखता है? बच्चा तो चीजों को सीख ही रहा होता है और बुजुर्ग आमतौर पर यथास्थितिवादी, यानी जैसा है वैसे को बनाए रखने के पक्षधर होते हैं. तो समाज को बदलाव, परिवर्तन, नई राह की ओर ले जाने की जिम्मेदारी किसकी है. उसकी जो दोनों के मध्य है. जो बचपन, किशोर के रास्ते को पार करते हुए एक ऐसी जगह पहुंच गया है, जहां उसके पास ऊर्जा के साथ दो सबसे बड़ी चीजें होती हैं- पहली नए को महसूस करने की शक्ति और दूसरी उसे लागू करने का साहस. कोई भी नया आविष्कार, समाज में परिवर्तन, सड़ी-गली परंपरा का अंत इन दो चीजों के बिना संभव ही नहीं है.
अगर आप कुछ महीने पीछे जाएं तो आपको ऐपल के सह-संस्थापक स्टीव वॉजनिएक याद आएंगे. उन्होंने भी काफी हद तक भारतीयों की उसी कमजोरी की ओर इशारा किया था, जिस पर हम ‘डियर जिंदगी’ में लंबी बात करने वाले हैं. स्टीव ने कहा था, ‘भारतीय दिल लगाकर पढ़ाई करते हैं, कुछ सफलता भी हासिल कर लेते हैं. वह सारी मेहनत एमबीए की डिग्री हासिल करने और मर्सीडीज खरीदने के लिए करते हैं, लेकिन क्रिएटिविटी जरा भी दिखाई नहीं देती.' स्टीव तो यहां तक कह गए थे कि उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि भारत में गूगल, फेसबुक और ऐपल जैसी बड़ी टेक कंपनियां तैयार ही नहीं हो सकती हैं.
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मैं भारतीयों के दूसरे कमजोर पक्ष पर बात कर रहा हूं, लेकिन उसका इस सोच प्रक्रिया से सीधा रिश्ता है. सोच में नवीनता की कमी भारतीयों को उन परंपराओं, रीति-रिवाजों से मुक्त नहीं होने देती, जिसकी आधुनिक समय में कोई जरूरत नहीं दिखती. मजेदार बात यह है कि हमारे युवा इन ‘खाप’ विचारों के समर्थन में अधिक दिखते हैं.
देश में हर कोई इस दंभ के साथ जी रहा है कि हम युवा देश हैं. जिसके पास ऊर्जावान युवा हैं. श्रेष्ठ विचार और नई सोच है. लेकिन क्या यह पूरी हकीकत बयां करने वाली तस्वीर है? कम से कम मेरे ख्याल में तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. हमारे युवाओं में उनकी सोच, विचार से तालमेल देखने को नहीं मिल रहा. उनकी सोच में नवीनता से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उस नवीनता की मात्रा बहुत कम है. इतनी कम जिसके होने से बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ रहा है. कम से कम उतना तो बिल्कुल नहीं, जितना होना चाहिए.
मैं एक छोटे, लेकिन महत्वपूर्ण किस्से से हमारी जिंदगी की सोच, उसकी विचार प्रक्रिया (थॉट पैटर्न) की दिशा को समझाने की कोशिश करूंगा. मैं मध्यप्रदेश के रीवा जिले में एक शादी से लौटा हूं. वहां एक ऐसी चीज़ से रूबरू हुआ, जिसने इस संवाद की नींव रखी. वहां बारात में तब तक सबकुछ ठीक चल रहा था, जब तक दूल्हे पक्ष के लोगों ने एक विचित्र, लेकिन पुरानी परंपरा की कमी की बात पर विवाद नहीं शुरू कर दिया. दूल्हे की ओर से कुछ युवा जो कि शराब के नशे में धुत थे इस बात पर नाराज होने लगे कि उनके पांव क्यों नहीं धोए गए.
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रीवा के अनेक हिस्सों में यह प्रथा आज भी जारी है. जिसका पालन घराती (लड़की वाले) खुशी-खुशी करते हैं, क्योंकि वह लड़के वालों को पूज्य मानते हैं. अगर इस पर बारातियों के बुजुर्ग बहस करते, जो समझा जा सकता था लेकिन उनकी जगह युवाओं को परंपरा की याद आ गई. वह अपने पिता जैसे बड़ों से लड़ने लगे. आखिर में लड़की वालों को उनकी मांग के आगे झुकते हुए वही सब करना पड़ा. बारातियों के जूते और मोजे उतारे गए. उसके बाद घराती पक्ष के बुजुर्गों ने 'पवित्र' बारातियों के पांव धोए. तब जाकर परंपरा के नाम पर लड़के वाले होने के अहंकार को संतुष्टि मिली.
इस घराती और बाराती समूह में एक दर्जन से अधिक इंजीनियर, डॉक्टर, पुलिस अफसर और निजी क्षेत्र में प्रतिष्ठित पदों पर काम करने वाले युवा मौजूद थे. लेकिन कोई नहीं बोला. युवा दूल्हे से तो खैर बोलने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि रीवा में मउर (शादी में पहनी जाने वाली पगड़ी के लिए स्थानीय शब्द) पहनने के बाद किसी को मैंने आज तक बेतुकी परंपरा का विरोध करते, विरोध का समर्थन करते नहीं देखा. जबकि सब तो युवा होने का दंभ भरते हैं.
मध्यप्रदेश खासकर रीवा/बघेलखंड में विवाह के कुएं में इतनी भांग है कि इसमें उम्र अपना असर खो चुकी है. कुप्रथा के पागलपन में बौराए पुरुष बेटियों को अधिकारों से वंचित करने के साथ उन्हें नीचा दिखाने के नाटक में मुख्य किरदार निभाए जा रहे हैं. (यह विमर्श अगले अंकों में भी जारी रहेगा)
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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