शांताराम की बनाई इस फिल्म में एक आदर्शवादी जेलर की भूमिका खुद वही शांताराम ने ही निभाई है. आदीनाथ के चरित्र के जरिए ये खूंखार अपराधियों को बदलते हुए और फिर सामाजिक जीवन में लौटने की कोशिश करते दिखते हैं.
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जेलें एक आम रास्ता नहीं है. यही वजह है कि जेलों के बारे में जानने के लिए साहित्य और फिल्में सबसे आसान साधन बनती हैं. यह माध्यम कभी कोरी कल्पना और कभी किसी बड़े यथार्थ के जरिए जेलों को जनता से जोड़ देते हैं. ऐसी ही एक मिसाल बनी थी- दो आंखें बारह हाथ नाम की फिल्म.
1957 में व्ही शांताराम निर्मित दो आंखें, बारह हाथ जेल सुधार को लेकर एक बड़े प्रयोग को सत्यापित करती है. इस फिल्म में आदीनाथ नाम का जेल का युवा वॉर्डन पैरोल पर छूटे 6 दुर्दांत कैदियों को सुधारने में एक बड़ा काम कर दिखाता है. एक बंजर जमीन को हरे खेत में तब्दील कर यह कैदी आखिर में खुद को भी बदला हुआ पाते हैं.
इस फिल्म की एक खास बात यह रही कि इसे खुद एक जेलर ने लिखा था. पहले यह फिल्म एक किताब के रूप में सामने आई और बाद में इसे एक फिल्म में तब्दील कर दिया. इसे लिखने वाला जेलर जेलों की जिंदगी में बदलाव का एक साधन बन जाएगा, यह खुद उस जेलर ने भी कभी सोचा नहीं होगा. इस फिल्म की रूपरेखा खुले जेल के प्रयोग पर आधारित थी.
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वहीं शांताराम की बनाई इस फिल्म में एक आदर्शवादी जेलर की भूमिका खुद वही शांताराम ने ही निभाई है. आदीनाथ के चरित्र के जरिए ये खूंखार अपराधियों को बदलते हुए और फिर सामाजिक जीवन में लौटने की कोशिश करते दिखते हैं. यह अपने आप में एक ऐसा प्रयोग था जिसने जो जेल सुधार के क्षेत्र में इस बात की संभावना पैदा करते कि कोशिश करने पर खूंखार अपराधी भी बदल सकता है. इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था. 1957 में फ़िल्म फेस्टिवल में सिल्वर बियर पुरस्कार और 1957 में राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिला था. 1958 में चार्ली चैपलिन के नेतृत्व वाली जूरी ने इसे 'बेस्ट फ़िल्म ऑफ़ द ईयर' का खिताब भी दिया था.
यह इस फिल्म की ताकत और सफलता ही हे कि इसके बनने के 70 साल बाद आज भी देश खुली जेलों और खुली कॉलोनी पर चिंतन और बहस कर रहा है.
बरसों पहले महाराष्ट्र में सतारा के पास स्वतंत्रपुर नाम की एक चौकी में इस खुली जेल कॉलोनी को बसाया गया था. उस समय कुछ बंदियों के जरिए उनके जीवन में बदलाव लाने की मुहिम शुरू हुई और इस जेलर ने इन बंदियों को खेती करते-करते खुद बदलते हुए देखा. भरत व्यास के लिखे और लता मंगेशकर के गाए गाने- ऐ मालिक तेरे बंदे हम को आज भी देश की बहुत-सी जेलों में सुबह की प्रार्थना के तौर पर गाया जाता है.
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दरअसल, इन खुली कालोनियों में बंदी अपनी सजा के अंतिम पड़ाव में पहुंचते हैं. उनका चुनाव एक टीम करती है. जिनका चुनाव हो जाता है, वे यहां आकर अपने परिवार के साथ रहने के लिए आजाद होते हैं. जिनका चुनाव नहीं होता, उन्हें अपनी बाकी सजा जेल में ही पूरी करनी पड़ती है. जो बंदी यहां आ जाते हैं, उऩ्हें इस बड़े इलाके में रहने और खुद अपनी आजीविका कमाने के योग्य बनाया जाता है. ये कैदी यहां खेती करते हैं और अपने परिवार के साथ यहां रहते हैं. लेकिन यहां एक दिलचस्प बात ये भी है कि अब ये कैदी अपने गांव वापस नहीं जाना चाहते. उन्हें लगता है कि ये कॉलोनी उनके लिए ज्यादा सुरक्षित है. इन जेलों में काम कराने वाले अधीक्षक को भी जेलर की बजाए लाईजेन ऑफीसर भी कहा जाता है.
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फिलहाल इस ओपन कॉलोनी में सिर्फ चार ही बंदी हैं. इस समय 28 नए कमरे बनाए जा रहे हैं ताकि ज्यादा कैदियों को यहां रखा जा सके. महाराष्ट्र की जेलों के अतिरिक्त महानिदेशक डॉ. भूषण कुमार उपाध्याय के नेतृत्व में महाराष्ट्र वैसे भी जेल सुधार के कई नए आयाम स्थापित कर चुका है. जिस देश में आज भी महिलाओं के लिए बनी चार खुली जेलों में से एक महाराष्ट्र में ही हो, वहां मानवाधिकार के लिए एक ईमानदार नीयत को स्वाभाविक तौर पर महसूस किया जा सकता है.
चाहे खुली जेलें हो या बिना पहरे के चलने वाली कालोनियां- इन सभी ने जेल सुधार को लेकर कई आशाओं और आशवस्तियों को जन्म दिया है.
(डॉ. वर्तिका नन्दा जेल सुधारक हैं. जेलों पर एक अनूठी श्रृंखला- तिनका तिनका- की संस्थापक. खास प्रयोगों के चलते दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल. तिनका तिनका तिहाड़ और तिनका तिनका डासना- जेलों पर उनकी चर्चित किताबें. यह आलेख देश की कुछ जेलों के अध्ययन, उनके अवलोकन और शोध पर आधारित है. इसमें 2017 में सुप्रीम कोर्ट के खुली जेलों को लेकर दिए गए निर्देश, मानवाधिकार और जेल सुधार को लेकर हो रहे प्रयासों पर अध्ययन दिया जा रहा है. यह आलेख देश की कुछ जेलों में वर्तिका नन्दा की खुद की गई खोज का एक अंश है.)