राज्यसभा चुनाव: सबने देखा अरविंद और मनीष की जोड़ी का तानाशाही चरित्र
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राज्यसभा चुनाव: सबने देखा अरविंद और मनीष की जोड़ी का तानाशाही चरित्र

नेतृत्व जगत के दो अनाम से व्यवसायियों (जिनमें एक सी ए है) गुप्ता द्वय को राज्यसभा के लिए अपना प्रत्याशी घोषित करके अरविंद केजरीवाल ने अपने लिए संदेह और आलोचना के पिटारे को एक बार फिर से खोल दिया है. साथ ही अपनी पार्टी में भी अंतर्कलह की भूमिका निर्मित कर दी है.

राज्यसभा चुनाव: सबने देखा अरविंद और मनीष की जोड़ी का तानाशाही चरित्र

संदेह से परे रहना केवल न्यायपालिका के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि ‘सीजर की पत्नी’ तक (राजसत्ता) के लिए जरूरी है. ऐसा इसलिए कि प्रश्नों के निराकरण तो किए जा सकते हैं, लेकिन संदेहों के नहीं. यहां उत्तर ‘सफाई देने में’ तब्दील हो जाते हैं, और वे कभी भी इतने शक्तिशाली और इतने सक्षम नहीं होते कि संदेहों की सफाई कर सकें. बोफर्स घोटाला और 2जी स्पेक्ट्रम इसके प्रमाण हैं. उम्मीद है कि आप पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल इस तथ्य से तो परिचित होंगे ही. यदि नहीं, तो उन्हें होना चाहिए.

नेतृत्व जगत के दो अनाम से व्यवसायियों (जिनमें एक सी ए है) गुप्ता द्वय को राज्यसभा के लिए अपना प्रत्याशी घोषित करके अरविंद केजरीवाल ने अपने लिए संदेह और आलोचना के पिटारे को एक बार फिर से खोल दिया है. साथ ही अपनी पार्टी में भी अंतर्कलह की भूमिका निर्मित कर दी है. इससे उनके जमीनी कार्यकर्ताओं को तो बेहद निराशा हुई ही है, वे लोग भी बहुत निराश हुए हैं, जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनकी पार्टी को भविष्य की राजनीति की एक संभावना के रूप में देखते थे. इससे लोगों को अरविंद और मनीष की जोड़ी का तानाशाही चरित्र फिर से देखने को मिला है.

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सन् 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल को लूटने का जो बेरहम और निर्लज्ज रूप दिखाया, उससे कंपनी मालामाल हो गई. फलस्वरूप पैसे के दम पर कंपनी और उसके अधिकारियों ने अपने एजेंटों के लिए हाउस ऑफ कामंस की सदस्यताएं प्राप्त कर ली थीं. इससे अनेक अंग्रेज राजनेताओं एवं राजनीतिक विचारकों को यह चिंता सताने लगी कि ऐसे में कंपनी अंग्रेजी राष्ट्र और उसकी राजनीति को नष्ट कर देंगे. यहीं से संसद ने इस व्यापारिक कंपनी पर अंकुश लगाने के लिए एक्ट लाने शुरू कर दिये.

दरअसल, इतिहास के इस हिस्से को प्रस्तुत करने का मात्र उद्देश्य राज्यसभा की ‘उच्चता’ को बचाए रखने की आवश्यकता का अनुभव करने की याद दिलाना है. विशेषकर पिछले तीन दशकों से संसद का यह उच्च सदन कई मायनों में लगातार आलोचना का केंद्र बना हुआ है. इसे कभी संसद में प्रवेश करने का ‘पिछला द्वार’ कहा जाता है, तो कभी धन देकर पूंजीपतियों का संसद में पहुंचने का एक प्रतिष्ठापूर्ण स्थल. बीच में तो स्थिति यहां तक आ गई थी कि जिन बारह प्रतिष्ठित सदस्यों को राष्ट्रपति नामांकित करते हैं, उन सदस्यों की प्रतिष्ठा के बारे में काफी खोजबीन करने के बाद भी कुछ हाथ नहीं आता था.

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और अब, जबकि यह उच्च सदन लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों के रास्ते का रोड़ा बनने का काम कर रहा है, यह प्रश्न फिर से पूरे जोर-शोर से पूछा जाने लगा है कि 'आखिर, इसकी जरूरत ही क्या है?' इस सदन को उच्च सदन कहा ही इसलिए जाता है कि ‘यहां बौद्धिक एवं चारित्रिक दृष्टि से ऊंचे लोग आयेंगे, और आकर बहसों की उच्चता के प्रतिमान स्थापित करेंगे. साथ ही लोकसभा के बहुमतीय तथाकथित तानाशाही पर नियंत्रण भी रखेंगे. लेकिन यह उद्देश्य अब मात्र एक संवैधानिक आदर्श और अपेक्षा बनकर रह गया है.

वस्तुतः यहां मूल चिन्ता आप पार्टी की राजनीतिक प्रणाली की नहीं है. यदि वह भी नहीं कर रही है, जो दूसरे कर रहे हैं, तो आश्चर्यम् किम् चिन्ता यहां राज्यसभा की गरिमा की है, जो दिन पर दिन छीजती जा रही है.

(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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