यदि आयोग को सूचना के दायरे में ले आया जाता, तो इसका आयोग की कार्यप्रणाली, अनुशासन, दक्षता तथा यहां तक कि उसकी विश्वसनीयता पर बेवजह नकारात्मक प्रभाव पड़ता. इस बारे में आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने अपने जो तर्क दिए थे, वे पूरी तरह सही मालूम पड़ते हैं.
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सिविल सेवा परीक्षा के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बारे में एक साथ दो विपरीत प्रतिक्रियाएं सुनने को मिल रही हैं. परीक्षा की तैयारी करने वाले कुछ युवा विद्यार्थियों, तैयारी कराने वाले शिक्षकों और इसकी जानकारी रखने वाले प्रबुद्ध वर्गों ने जहां इस निर्णय का भरपूर स्वागत किया है, वहीं युवाओं का दूसरा समूह तथा कुछ एक्टिविस्ट ने अपनी खिन्नता व्यक्त की है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा की जानकारी को ‘सूचना के अधिकार’ से परे बताया है. न्यायमूर्ति एके गोयल और न्यायमूर्ति यूयू ललित की संयुक्त पीठ ने अपने इस फैसले में लोक सेवा आयोग के इस तर्क को स्वीकार किया है कि यदि इसे सूचना के दायरे में रखा जाता है, तो इससे कार्य को पूरा करने में अनेक बाधाएं खड़ी होंगी. साथ ही इस परीक्षा की प्रणाली की जो विश्वसनीयता है, उस पर अनावश्यक ही संदेह और भ्रम की स्थिति बनेगी.
उल्लेखनीय है कि विद्यार्थियों के एक समूह ने संघ लोक सेवा आयोग से इसकी मुख्य परीक्षा में लागू की गई स्केलिंग पद्धति के बारे में जानकारी मांगी थी. आयोग ने यह जानकारी देने से मना कर दिया था. बाद में यह मामला जब सूचना आयोग के पास गया, तो आयोग ने जानकारी देने को कहा था. आयोग इसके लिए तैयार नहीं था इसलिए उसने इसके विरुद्ध दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी संघ लोक सेवा आयोग को इस कानून के दायरे में मानते हुए सूचनाएं उपलब्ध कराने का आदेश दिया. आयोग ने यहां भी हिम्मत नहीं हारी और अपने तर्कों के साथ सुप्रीम कोर्ट गया. जहां अन्ततः उसके तर्कों के साथ-साथ उसकी भावनाएं और मंतव्यों को भी मान्यता मिली और अन्ततः उसे जीत हासिल हुई.
ऊपरी तौर पर देखने से सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय वर्तमान सुशासन के दो मुख्य तत्व-पारदर्शिता और उत्तरदायित्वता (Accountability) के विरुद्ध दिखाई देता है. सामान्य सोच यही बनती है कि आखिर ऐसी कौन सी बात है, जिसे आयोग अपने ही लोगों से छिपाना चाह रहा है. इससे मन में आयोग की कार्यप्रणाली के सुचारूपन तथा उसके द्वारा घोषित परीक्षा-परिणामों की विश्वसनीयता पर सन्देह पैदा होता है. वैसे भी यदि सूचना देने को अनिवार्य कर दिया जाता, तो उससे आयोग की कार्यप्रणाली में कहीं-न-कहीं अधिक व्यवस्था और विश्वसनीयता बनने की संभावना दिखती है. इसलिए यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक अधिकारों के लिए सचेत वर्ग सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से खिन्न है, तो उनकी इस खिन्नता को समझा जा सकता है. और काफी कुछ सीमा तक वह जायज भी है.
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यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में लगभग 23 वैकल्पिक विषय होते हैं, जिनमें परीक्षार्थी को कोई एक विषय लेना पड़ता है. यह एक विषय लिखित परीक्षा के कुल 1750 अंकों में से 500 अंकों का होता है. स्केलिंग का संबंध इन सभी वैकल्पिक विषयों को समान स्तर पर लाने से है. इन विषयों में गणित जैसे विषय भी हैं, जिनमें शत-प्रतिशत नम्बर लाए जा सकते हैं. समाजशास्त्र के साथ लोक प्रशासन जैसे विषय भी हैं, जिनमें 50 प्रतिशत नम्बर लाना भी टेढ़ी खीर होता है. ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि परीक्षार्थियों के लिए यह परीक्षा ‘‘एक समान’’ (Same Playing Field) नहीं रह जाती. स्केलिंग वस्तुतः विषयों पर प्राप्तांकों के इसी भेदभाव को समाप्त करने का एक फार्मूला है.
परीक्षार्थी मूलतः इस फार्मूले के बारे में ही जानना चाहते थे. जाहिर है कि इसके साथ फिर अन्य सूचनाएं भी शामिल थीं. सुप्रीम कोर्ट ने इसी पर अपना बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाया है. जो भी व्यक्ति लोक सेवा आयोग की कार्यप्रणाली से जरा भी परिचित हैं, वे जानते हैं कि हर स्तर पर इसका अपना सिस्टम आन्तरिक विभाजन एवं संतुलन के आधार पर इतना अधिक फूलप्रूफ है कि उसमें गलतियों की संभावना नहीं के बराबर रहती है. चाहे वह पेपर सेटिंग का मामला हो, या उसकी प्रिंटिंग, कापियों के जांचने तथा साक्षात्कार के चरण हों, सभी के स्वरूप का इस प्रकार से निर्धारण किया गया है कि किसी को भी किसी चीज के बारे में पूरी तरह से कुछ भी मालूम नहीं होता. ऐसी स्थिति में किसी के साथ भी जानबूझकर पक्षपात करने या किसी का पक्ष लेने की संभावना नहीं के बराबर रह जाती है. सिविल सेवा परीक्षा का अब तक का इतिहास छोटे-मोटे सन्देहों और विवादों को छोड़कर अब तक काफी साफ-सुथरा एवं विश्वसनीय रहा है. इसलिए कुछ अधिक जानने की विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती.
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इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि आयोग को सूचना के दायरे में ले आया जाता, तो इसका आयोग की कार्यप्रणाली, अनुशासन, दक्षता तथा यहां तक कि उसकी विश्वसनीयता पर बेवजह नकारात्मक प्रभाव पड़ता. इस बारे में आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने जो तर्क दिए थे, वे पूरी तरह सही मालूम पड़ते हैं. आयोग ने अपनी बात रखते हुए कहा था कि कापियों में जो सुधार किए जाएंगे, उससे लोगों में भ्रम पैदा होगा और लोग बेवजह संदेह भी करने लगेंगे. अन्ततः इससे संदेह बढ़ेगा और जिसकी परिणति कानूनी मामलों में होगी.
राज्य की सिविल सेवा परीक्षाएं आयोग के इस संदेह को बखूबी प्रमाणित भी कर रही हैं. फिलहाल राज्य लोक सेवा आयोग सूचना अधिकार के दायरे में है. यहां नियमित रूप से परीक्षाओं के न हो पाने का एक रिकॉर्ड है. यहां तक कि तीन-तीन साल के परीक्षाओं के परिणाम एक साथ घोषित किए जा रहे हैं. इसका जबर्दस्त विपरीत प्रभाव वहां की प्रशासनिक संरचना पर पड़ने लगा है. देखने में यह आया है कि जिन विद्यार्थियों का चयन नहीं हो पाता, वे जानबूझकर प्रक्रिया को इस तरह के कानूनी झमेले में डाल देते हैं. राज्यों का यह कड़वा अनुभव ही सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का स्वागत किए जाने का आह्वान करता है.
देखने में यह आया है कि जिन विद्यार्थियों का चयन नहीं हो पाता, वे जानबूझकर प्रक्रिया को इस तरह के कानूनी झमेले में डाल देते हैं. राज्यों का यह कड़वा अनुभव ही सिविल सेवा को आरटीआई से बाहर करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत किए जाने का आह्वान करता है...
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)