जब आप किसी से प्रेम करते हैं, तो वह इतनी बड़ी बात नहीं होती, जितनी बड़ी बात यह होती है कि कोई आपसे प्रेम कर रहा है. यह एक अद्भुत अनुभव होता है. यह सोच कि 'कोई मुझसे प्रेम कर रहा है', व्यक्ति के अंदर अपने अस्तित्व के प्रति एक बहुत बड़ा आत्मविश्वास पैदा कर देती है.
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कारण चाहे जो भी हो, लेकिन हर व्यक्ति किसी न किसी बात को लेकर कुंठित ज़रूर होता है. उसके अंदर अपने-आपको हीन समझने की भावना मौजूद रहती है, जिसे हम 'इनफीरियोरिटी कॉम्पलेक्स' कहते हैं. यह इनफीरियोरिटी कॉम्पलेक्स एक कमाल का कॉम्पलेक्स होता है, जिसे यदि सकारात्मक तरीके से लिया जाए, तो यह हमें आबाद कर सकता है और यदि नकारात्मक तरीके से लिया जाए, तो बर्बाद कर देता है. प्रेम की भावना इसमें सकारात्मक भूमिका निभाती है.
जब आप किसी से प्रेम करते हैं, तो वह इतनी बड़ी बात नहीं होती, जितनी बड़ी बात यह होती है कि कोई आपसे प्रेम कर रहा है. यह एक अद्भुत अनुभव होता है. यह सोच कि 'कोई मुझसे प्रेम कर रहा है', व्यक्ति के अंदर अपने अस्तित्व के प्रति एक बहुत बड़ा आत्मविश्वास पैदा कर देती है. व्यक्ति की यह मूल प्रवृत्ति होती है कि शुरू में वह अपने व्यक्तित्व को नकारता रहता है. अपने आपको नकारना उसकी इनफिरियोरिटी कॉम्पलेस की देन होता है. वह यह मानकर चलता है कि उसके अन्दर ऐसा कुछ नहीं है कि कोई उसे चाहे, लेकिन जैसे ही उसे यह आभास मिलता है कि कोई उसे चाहता है, वैसी ही उसके अन्दर खुशी का झरना फूट पड़ता है और आत्मविश्वास का सूरज दमकने लगता है. इसी बात को फ्रांस के महान उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो ने इस रूप में कहा था कि 'जीवन की सबसे बड़ी खुशी वह विश्वास है कि कोई हमसे प्यार करता है.' व्यक्ति को लगने लगता है कि 'मैं भी ऐसा हूं, जिसे प्यार किया जा सकता है.' किसी को प्यार करना, खासकर सच्चा प्यार करना छोटी-मोटी बात नहीं होती. यह खिलवाड़ नहीं है और न ही किसी तरह का कोई टाइमपास. किसी को चाहने का मतलब होता है, उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को स्वीकार करना. और किसी के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने से बड़ी बात भला और क्या हो सकती है. दरअसल, हम किसी से प्रेम करके उसके मन में उसके अस्तित्व के प्रति विश्वास और आवेग का भाव पैदा कर देते हैं. जैसे ही यह भाव उसके अंदर आता है, उसके अन्दर बंधी हुई हीनता की गाठ धीरे-धीरे खुलने लगती है और अन्ततः वह इस इनफीरियोरिटी कॉम्पलेक्स से मुक्ति पा जाता है. हर कोई इनफीरियोरिटी कॉम्पलेख से मुक्ति पाना चाहता है. इसलिए वह चाहता है कि कोई उसे प्रेम करे, ताकि वह इससे मुक्त हो सके. उसकी यही चाहत उसे प्रेम करने और प्रेम पाने के लिए प्रेरित करती है.
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एक बार लगभग 40 साल की उम्र की एक महिला ने मुझसे प्रेम के बारे में एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न किया था. उनका प्रश्न था कि 'विजय जी, ऐसा क्यों होता है कि बहुत से लोग आपके आसपास रहते हैं, लेकिन उनमें से कोई विशेष ही आपको अच्छा लगने लगता है, हालांकि वहां मौजूद लोगों में उससे भी अच्छे लोग होते हैं?' सचमुच उनका यह प्रश्न चौंकाने वाला था और एक ऐसा प्रश्न था, जिसके बारे में मैंने तब तक कभी सोचा नहीं था. इसलिए उत्तर देने के लिए मैंने कुछ समय चाहा और बाद में जो उत्तर मुझे मिला, उसे ही मैं यहां आपके सामने रख रहा हूं. दरअसल, बात यह है कि हम सभी के अवचेतन मन में अपनी पसंद और नापसंद के स्वरूप मौजूद रहते हैं. सच पूछिए तो हमें खुद यह बात मालूम नहीं रहती कि हमारी सच्ची पसंद और नापसंद क्या है, जिसे हम अपनी पसंद और नापसंद कहते हैं, वह मुख्यतः, वह पासंद और नापासंद होती है, जो समाज ने हमारे अंदर डाल रखी है. इसी मॉडल को हम जीने लगते हैं और इसे जीते-जीते इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि यही हमारी पसंद और नापसंद है. जबकि सच यह होता है कि ये हमारी पसंद-नापसंद होकर समाज की पसंद और नापसंद होते हैं.
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अवचेतन मन तो ऐसे अद्भुत तरीके से काम करता है कि उसके विज्ञान को पकड़ना आसान नहीं है. ऊपरी तौर पर हम भले ही जिसे भी अपनी चाहत समझें, लेकिन अन्दरूनी तौर पर तो हम सब अपनी-अपनी ही चाहत का अनुभव करते हैं और हमारी यह अपनी चाहत हमारे निजी खज़ाने का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती है. बस, कुल-मिलाकर प्रेम का यही मनोविज्ञान है. बाहर जैसे हमें कोई ऐसा मिलता है, जो पूरे तौर पर हमारी उस अपनी चाहत से मेल खाता है, तो उसके प्रति गहरे प्रेम की भावना हमारे मन में पैदा हो जाती है. यदि इसके बारे में सोचा जाए कि ऐसा क्यों हुआ, तो हाथ कुछ आएगा नहीं. प्रेमी तो केवल यही उत्तर दे सकेगा कि ‘मैं नहीं जानता कि क्यों हुआ. इतना ही जानता हूं कि बस हो गया.'
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)