मधुकली का ‘बादल राग’: ‘कैसा छंद बना देती हैं, बरसातें बौछारों वाली’
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मधुकली का ‘बादल राग’: ‘कैसा छंद बना देती हैं, बरसातें बौछारों वाली’

कविता ही क्यों, कलाओं के रूप-रंग भी ऋतुओं के साथ जुड़े जीवन-अनुभव से आच्छादित रहे हैं.

सूचना और प्रचार के संसाधन आज इतने व्यापक हो गए हैं कि शायद ही कोई इन उत्सवी आहटों से वंचित हो.

धिं धिं धा धमक-धमक
दामिनी गई दमक
मेघ बजे!

पावस के संगीत को कविता की कोमल काया में सहेजता जन कवि नागार्जुन का यह सुललित छंद जब कालिदास अकादमी, उज्जैन के ‘मेघोत्सव’ में गूंजा, तो पूरा सभागार वर्षा के राग और रोमांच से भरउठा था. मंच पर मधुकली वृंद भोपाल के कलाकार हिन्दी की उन कविताओं का सरगम छेड़ रहे थे, जिनमेंबादल, बयार, बूंद और बौछारों की सुहानी छटाएं नए-नए रूप धरकर प्रकट होती रही हैं.

वरिष्ठ संगीतज्ञ-संतूरवादक पं. ओमप्रकाश चैरसिया ने रीतिकाल और छायावाद से लेकर आधुनिक कवियों की करीब एक दर्जन रचनाओं को संकलित कर उन्हें ‘बादल राग’ के नाम से प्रस्तुत किया. सरल-सहज धुनों में संगीत के कल्पनाशील प्रयोग जब युवा गायकों के समवेत स्वरों में आरोह-अवरोह के साथ अंगड़ाई लेते तो ऐसा लगता जैसे संस्कृति के आंगन में बादल, उत्सव बनकर थिरकने लगे हों. संस्कृति और साहित्य के अध्येता स्व. विष्णुकांत शास्त्री का उद्गार सहज ही याद आता है- ‘बादल से प्रकृति और मनुष्य का आदिम रिश्ता है. वह धरती और मनुष्य के मन का मैल धो दे, यही सच्चा वर्षा मंगल है.’’ लेकिन आपाधापी में उलझी जिंदगी को भला अब ऋतुओं की रंगत में घुलने-मिलने का अवकाश कहां?

‘मधुकली’ के ‘बादल राग’ का संगीत हमें अनायास अपने अतीत के आंगन में ले जाता है जहां अबभी स्मृतियों के मेघ किशमिशी फुहारें बिखेरकर हमें बार-बार अपने पास बुलाते हैं. और हम अपने को जैसे क्षणभर में तर-बतर महसूस करते लगते हैं. कवि ठाकुर, पद्माकर, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, नागार्जुन जैसे हिन्दी के उद्भट कवियों के पद संगीत की भाषा में सुनना एक अलौकिक अनुभव बन जाता है.

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मनुष्य की अनुभूतियां तो माटीगंधी होती हैं. अवस्था और परिस्थितियों के जरिए वह हर मौसम कोअपने भीतर महसूसता है. मौसम के साथ कुलांचें भरता उसका मन स्वयं को प्रकृति और उसके परिवेश में खो देता है. कविता में जीवन की तमाम धड़कनों की हिफाजत करने वाले कवि का भावाकुल मन हो तोफिर वर्षा जैसी सतरंगी छटाओं का मौसम रूपकों और उपमाओं की सरल और आलंकारिक भाषा ओढ़ीअनुभूति की कविता में अपना अक्स निहारने लगता है. ...कवि ठाकुर की आंखों में आषाढ़ के बादलों का चित्र और अलबेली बुंदनियों की प्रकृति कितनी सुहानी हो उठी हैं! उनकी कविता में एक बावरी सखि के भीतर बैठा मन का मयूर नाच उठा है. धरती और आकाश की रंगत उसे किसी उत्सव की तरह जान पड़ती है. उसके प्रिय परदेस गए हैं और ऐसे में- ‘आए बढ़ि-चढ़ि के उमड़ि नभ मंडल में, धौस करि डारे जिन भेष रतियान के, सावन सुहान को आवन निरखि आली, मेघ बरसन, लागे हिय हुलसान री.’

उधर एक सखि और है जिसके प्राण वन-वन गरज रहे बादलों की ध्वनि से उन्मादी हो रहे हैं. मेघों का यह निनाद उसके उदास मन को मगन कर रहा है. इस तरुणी को आभास हो रहा है- ‘परम अगम प्रियतमा गगन की शंखध्वनि आई...’ यह हिन्दी कविता के यशस्वी हस्ताक्षर बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की गीति रचना का स्पंदन है. और एक भारतीय आत्मा पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के मन प्रांगण में पावसिया बूंदें कुछ ऐसे छंद बना रही हैं जिनमें लालित्य का पूरा संसार खोजा जा सकता है- ‘नभ की छवियां तारोंवाली... बिंदु-बिंदु के वृत्त... अनदेखा सूरज... और अपने उर में छिपा सलोना श्याम... कैसा छंद बना देती हैं, बरसातें बौछारों वाली.....’.

बूंदों का यह छंद जब गति पाता है तो पर्वतों और सागरों में बहकर एक नई हलचल मचाता है. निराला जैसे अलमस्त कवि का ‘बादल राग’ आकांक्षाओं के उस शिखर तक जाता है जहां ‘झर-झर निर्झर-गिरि-सर में, घर-मरू तरु मर्मर सागर में, सरित तड़ित गति चकित पवन में, मन में विजन-गहन-कानन में’ ...यहां, वर्षा की रसधार चहुंओर पहुंचने का स्वप्न शामिल है. अपने पागल बादल से वे हलचल मचा देने का आह्वान करते हैं. इसी बीच संवेदना में डूबा एक हृदय अपने अंक में पावस की सुंदरता को समेट लेना चाहता है. उसके कानों में मेघों का बजना धिं-धिं धा धमक-धमक है. दादुर के कंठ खुलने और धरती के ह्दय धुलने की पवित्रता को उसका मन एक साथ महसूसता है. कीचड़ को उसकी आत्मा हरिचंदन मान रही है. यह एक ईमानदार जन-कवि नागार्जुन की अभिव्यक्ति है जहां मेघ बजे, तो जैसे एक पवित्र अवतार प्रकट हुआ! लगता है, जैसे चेतना की धरती पर बादलों से झरती बूंदे कविताएं रच रही हों.

कविता ही क्यों, कलाओं के रूप-रंग भी ऋतुओं के साथ जुड़े जीवन-अनुभव से आच्छादित रहे हैं. हर्ष की हिलोरें और आंसुओं का सैलाब कभी राग के सप्तक में, साज़ों से उठती गमक में, घुंघरुओं की झंकार और नृत्य की देहगतियों में, चित्रों की चैखट में तो कभी मूर्तियों को तराशती भावमय लगन में समाकर ज़िंदगीके असल स्वाद को हमारी संवेदना में बार-बार लौटाने का जतन करते रहे हैं.

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दरअसल समय के अनंत प्रवाह के साथ जुड़े हमारे लीलाभाव की सहचरी रही हैं ललित कलाएं. यह शुभ और श्लाघनीय है कि तमाम आधुनिक आग्रहों के, लोक और शास्त्र सम्मत कला-साहित्य की अनेक कालजयी रचनाओं की स्मृति गाहे-बगाहे कुछ पर्व-समारोहों में खुलती रही है. दिल्ली, उत्तरप्रदेश औरराजस्थान में पावस-पर्व के आयोजनों की सूचनाएं इधर कुछ बरसों से मिल रही हैं. भोपाल स्थित कलाघर भारत भवन ने तो ‘बादल राग’ शीर्षक सालाना गतिविधि का सांस्कृतिक ताना-बाना तैयार किया है. लगभग डेढ़ दशक से यह प्रतिष्ठा आयोजन जारी है. इधर कुछ बरसों से पावस सत्र में म.प्र. संस्कृतिसंचानालय ने भी ‘पावस महोत्सव’ की बहुरंगी शुरुआत की है. भोपाल की मिसाल लें तो यहां की कुछ स्वयंसेवी संगीत संस्थाओं ने अपने सीमित संसाधनों से ‘मेघ’ और ‘मल्हार’ का नाद छेड़ने गायक-वादकों की महफिलें सजाई. वहां चैती, दादरा और कजरी के छन्द भी गूंजे. लक्ष्य करने की बात यह भी कि इन ‘उत्सवों’ के दौरान विरासत का आश्रय लेते हुए स्वयं की मेधा और कल्पना सेसृजित कलाओं की बानगियां भी रंगमंच पर प्रकाश में आईं. गुजरात में बसी ख्यातनाम नृत्यांगना कुमुदिनी लाखिया के नृत्य रूपक ‘सीज़न्स’ और स्व. रोहिणी भाटे के ‘मेघ रंग’ को पावस की पृष्ठभूमि में देखना रसिकों के लिए खासा विस्मय और कौतुहल भरा अनुभव था. चित्रकारों के केनवासभी नए सिरे से ‘कलर्स ऑफ मानसून’ को अपने में समोते रहे. कालिदास अकादेमी उज्जैन की कला दीर्घा का रूख करें तो कालिदास के काव्य ‘मेघदूतम’ पर केन्द्रित दर्जनों चित्र-रेखाचित्र आंखों में आते हैं. छोटे-बड़े शहरों की रंगशालाओं में मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’ रंगकर्मियों के लिए अब भी अभिनय में जीने की जरूरत बना हुआ है.

लेकिन सृजन के परिसर में उमड़ी इस उत्सवी उमंग को साझा करने लाखों की आबादी वाले महानगरों में हज़ार दर्शक-श्रोता भी खोजे नहीं मिलते. आस्वाद के लिए सभागारों तक उमड़े कलाप्रेमियों में अधिकांश वही के वही चेहरे होते हैं. वे ही इन आयोजनों के स्थायी उद्धारक बन गए हैं. बाकी जनता के लिए इस तरह के सांस्कृतिक सरोकार जैसे निरर्थक हैं. सूचना और प्रचार के संसाधन आज इतने व्यापक हो गए हैं कि शायद ही कोई इन उत्सवी आहटों से वंचित हो. दुर्भाग्य से नई पीढ़ी ही नहीं, नव धनाढ्य हो चले मध्यवर्ग के मनोरंजन की प्राथमिकताएं भी बदल गई लगती हैं. उस कसक की कमी भी, जो कलासाहित्य ही नहीं, जीवन की धरती पर बरसते मेह-नेह को मुठ्ठियों में बांध लेने के लिए आत्मा की आवाज़ पर कभी उठा करती थी.

ग्वालियर के कवि ज़हीर कुरेशी की पंक्ति याद आती है- ‘एक नदी सागर से मिलकर गाना भूल गई...’

- विनय उपाध्याय
(मीडियाकर्मी, लेखक और कला संपादक)

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