निर्भया कांड के 5 साल भी कुछ नहीं बदला, अब भी दिल्ली में लगता है डर...
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निर्भया कांड के 5 साल भी कुछ नहीं बदला, अब भी दिल्ली में लगता है डर...

निर्भया हादसे के बाद आनन-फानन में सरकारों ने कई गाइडलाइन जारी की और महिला सुरक्षा के लिए कदम उठाए. लेकिन वह उठाए गए कदम वहीं ठहर गए और उसके बाद हालात वही हो गए जैसे 16 दिसबंर की उस काली रात के पहले थे.

निर्भया कांड के 5 साल भी कुछ नहीं बदला, अब भी दिल्ली में लगता है डर...

साल 2004 में जब भोपाल से दिल्ली का रुख किया था तो सुना था कि दिल्ली दिलवालों का शहर है, बहुत से सपने थे जिनमें रंग भरते भरते इतने बरस गुजर गए कि पता ही नहीं चला. लेकिन इन गुजरे सालों को जब पलटकर देखती हूं तो दिल्ली बहुत सख्त नजर आती है, खासकर महिला सुरक्षा के लिहाज से. धीरे-धीरे दिल्ली या यूं कहे कि पूरा एनसीआर ही महिलाओं के लिए असुरक्षित होता चला गया है, अब यहां वाकई डर लगने लगा है. दिल्ली में हुई महिला अपराध से जुड़ी हर घटना मीडिया में सुर्खियां बटोरता है. प्राइम टाइम में लंबे-लंबे डिस्कशन होते हैं, राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर दोषारोपण करती हैं. लेकिन हालात में कोई सुधार तो दूर लगातार बेकाबू होते जा रहे हैं. निर्भया गैंगरेप के बाद दिल्ली ही नही पूरा देश हिल गया, बड़ा आंदोलन हुआ, हजारों लोग सड़कों पर उतर आए, ऐसा लगा कि अब बस बहुत हुआ, निर्भया गैंगरेप और हत्या के बाद अब कोई ऐसी निर्मम वारदात नहीं होगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और हालात लगातार बदतर होते चले गए.

निर्भया हादसे के बाद आनन-फानन में सरकारों ने कई गाइडलाइन जारी की और महिला सुरक्षा के लिए कदम उठाए. लेकिन वह उठाए गए कदम वहीं ठहर गए और उसके बाद हालात वही हो गए जैसे 16 दिसबंर की उस काली रात के पहले थे. मुझे याद है नौकरी करते वक्त जब हमारी लेट इवनिंग शिफ्ट यानी कि शाम 4 से रात 12 बजे की ड्यूटी होती थी तो सरकारी आदेश के मुताबिक ड्रॉपिंग में एक सिक्योरिटी गार्ड जाने लगा. लेकिन ये बहुत दिन तक नहीं चल सका. धीरे-धीरे गार्ड हट गया और फिर वही हम अकेले रात को साढ़े बारह बजे ड्रॉपिंग में अकेले जाने लगे. एक सहकर्मी को दिल्ली पुलिस ने रोककर कहा भी था कि आप लोग रात में अकेले मत जाया करिए क्योंकि कोई हादसा हुआ तो सवाल पुलिस पर उठेंगे. दिक्कत ये है कि लड़कियों को नौकरी करनी है तो ऑफिसवालों की दी हुई शिफ्ट करनी ही होती है. अब अगर हम माहौल खराब होने की दलील दें तो सामने वाला एक ही जबाव देता है कि तो घर जाकर बैठिए.

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इन बीते 13 सालों में धीरे-धीरे दिल्ली वाकई डराने लगी है. डर सिर्फ खुद को लेकर यानी कि महिलाओं के लिए नहीं है बल्कि अब तो डेढ़ साल की बच्ची तक भी शैतानों से बच नहीं पा रही हैं. पिछड़ी बस्तियों, झुग्गी इलाकों से लेकर दिल्ली का दिल यानी कि कनॉटप्लेस तक में लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. सीपी जहां रातभर जिंदगी चलती रहती है वहां लड़कियों से छेड़छाड़ हो जाती है.छींटाकशी करना, अश्लील इशारे करना आम सी बात है. लड़कियां इन बातों इग्नोर भी कर देती हैं लेकिन सवाल यही है कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा. निर्भया कांड के बाद एक उम्मीद जगी थी कि अब शायद बदलाव आएगा, क्योंकि अब लोगों में जागरुकता आ रही है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मुझे याद है कि जब में रात 10 बजे ऑफिस से गली की ओर अपने घर जा रही थी कि सामने से आ रहे दो अधेड़ आदमियों ने करीब आकर मेरे ऊपर गुटखा थूक दिया. मुझे नहीं पता कि आखिर उन्हें क्या संतुष्टि मिली होगी एक लड़की के ऊपर गुटखा थूंक कर, लेकिन उन्हें मौका मिलता तो वो शायद मेरे कपड़े भी फाड़ सकते थे. मां बनने के बाद ये डर लगातार बढ़ रहा है कि मैं अपने बच्चे को कहां तक सुरक्षित कर सकती हूं क्योंकि अब तो स्कूल भी मेहफूज़ नहीं रहे. रोजाना आने वाली खबरों से दिल दहल जाता है, सोचती हूं कि अपने बच्चे को कहा सुरक्षित कर सकती हूं, आखिर कब तक उसे अपने आंचल में छुपाकर रख सकती हूं.

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आए दिन मीडिया में गैंगरेप, बलात्कार की खबरें आती हैं और बस खबर ही बनकर रह जाती हैं. निर्भया मिसाल तो बन गई, लेकिन उसके बाद न जाने कितनी निर्भयाएं आदमखोरों का शिकार बन गई हैं. एक बार फिर 16 दिसंबर पर हम सब निर्भया को याद कर रहे हैं, एक बार फिर महिला सुरक्षा पर विमर्श किया जाएगा, चैनल्स के प्राइम टाइम में डिस्कशन भी होंगे लेकिन वही चलता रहेगा. बलात्कार के बाद उसे जस्टीफाई किया जाता है, लड़की को ये नहीं करना चाहिए था, लड़की को वो नहीं करना चाहिए था, लड़की को रात में नहीं निकलना चाहिए था, लड़की को शेयरिंग ऑटो नहीं लेना चाहिए था. जितनी एहतियात लड़कियों को बरतने को कहा जाता है काश बेटों के माता-पिता उन्हें सिखाएं कि लड़कियों की इज्जत कैसे की जाती है. लड़की खुली तिजोरी नहीं है जो सदियों से कहते आए हैं. हमारे रहनुमाओं की बातें सुनकर अब लगने लगा है कि दरअसल एहतियात बरतते हुए लड़कियों को अब पैदा ही नहीं होना चाहिए.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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