निर्भया की याद में : महिला सुरक्षा क्या सिर्फ कानून से संभव है?
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निर्भया की याद में : महिला सुरक्षा क्या सिर्फ कानून से संभव है?

आमतौर पर अपराध बढ़ने की दोषी सबसे पहले लचर सुरक्षा व्यवस्था और कमजोर कानून व्यवस्था को मान लिया जाता है. लेकिन क्या महिलाओं के साथ छेड़खानी और बालात्कार जैसे अपराध सिर्फ कमजोर कानून की वजह से हैं?

निर्भया की याद में : महिला सुरक्षा क्या सिर्फ कानून से संभव है?

देश में अब जब भी महिला सुरक्षा को लेकर बातचीत होती है, तो दिल्ली के निर्भया केस का जिक्र जरूर आता है. घटनाएं उससे पहले भी होती थीं. लेकिन उस एक घटना से लोग जिस तरह सड़कों पर आ खड़े हुए थे वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था. उस घटना के बाद कानूनी और प्रशासनिक कार्रवाई भी पूरी दृढ़ता से की गई. दोषियों को सजा भी हुई. जितनी कठोर से कठोर सजा दी जा सकती थी वह भी दी गई. उन्हें फांसी की सजा हुई. लेकिन उसके बाद एक सवाल फिर भी बचा रह गया कि वैसी कार्रवाई के बाद भविष्य में इस तरह के अपराधों में कितनी कमी आई. कायदे से उस समय जिस तरह का जन आक्रोश देखने को मिला था और जितनी कठोर सजा उन दोषियों को दी गई थी उसके बाद वैसी घटनाओं की संख्या में भारी कमी दर्ज होनी चाहिए थी. लेकिन सच्चाई यह है कि महिला संबंधी अपराध उसी रफ्तार से होते रहे. अब भी हो रहे हैं. लोगों ने सड़कों पर प्रदर्शन भी कर लिया, कानून भी और सख्त बन गया, मीडिया ने भी महिला सुरक्षा संबंधी खबरें खूब चला लीं और नेता राजनेताओं ने भी सब कह सुन लिया. पर क्या आज भी कोई लड़की, चाहे किसी भी उम्र की हो, क्या वह खुद को उतना सुरक्षित महसूस करती है कि बेझिझक कहीं भी आ जा सके? बात अब यह आती है कि आखिर यह सवाल किया किससे जाए? सरकार से? पुलिस से? कानून से? या समाज से?

क्या कड़े कानून भर से यह काम संभव है?
आमतौर पर अपराध बढ़ने की दोषी सबसे पहले लचर सुरक्षा व्यवस्था और कमजोर कानून व्यवस्था को मान लिया जाता है. लेकिन क्या महिलाओं के साथ छेड़खानी और बालात्कार जैसे अपराध सिर्फ कमजोर कानून की वजह से हैं? अपराध के मामलों के विशेषज्ञ यानी अपराधशास्त्री पहले से ही मानते हैं कि अकेला कानून अपराध पर नियंत्रण के लिए कारगर नहीं होता. अपराधशास्त्रीय शोधकार्यों से पता चलता है कि अपराधों के लिए कानून और आपराधिक न्याय प्रणाली से ज्यादा बड़े कारण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक होते हैं. इस आधार पर सोचें तो यह देखना बनता है कि महिला संबंधी अपराध करने वाले ज्यादातर अपराधी कौन लोग हैं? क्या वे कोई पेशेवर मुजरिम होते हैं? या फिर महिलाओं के साथ रोज उठने बैठने वाले, काम करने वाले, सफर करने वाले उसी समाज के लोग? महिला संबंधी अपराध के दोषियों में अपने ही रिश्तेदार, दोस्त, सहकर्मी, पड़ोसी, आसपास रहने वाले, सड़क बस ट्रेन में साथ सफर करने वाले, समाज के हर तबके से जुड़े हर उम्र के लोग होते हैं. यानी महिलाओं के खिलाफ अपराध सिर्फ कानूनी नाकामी ही नहीं है. यह सामाजिक विफलता है. यह हमारे समाज की नैतिक न्यूनता का प्रतीक भी है. क्या किसी भी किस्म की कठोर से कठोर सजा का प्रावधान समाज की नैतिक न्यूनता को पूरा कर सकता है?

स्त्री के प्रति भारतीय परिवारों में सोच
हम उस समाज में जीते हैं जहां लड़कियां लडकों के समान नहीं हैं. यह एक आम सीख है जो ज्यादातर परिवारों में बचपन से बच्चों को या तो सीधे बोलकर या अपने व्यवहार से दे दी जाती है. हर लड़की को सिखाया जाता है कि बाहर निकलते समय पूरी जिम्मेदारी लड़की की ही है कि वह किस समय, कैसे बाहर निकले जिससे वह सुरक्षित रहे, अगर कोई कुछ कह दे तो उसे अनदेखा कर आगे बढ़ जाए, जवाब न दे. ऐसी अनगिनित सीखें होती हैं जो हर लड़की कभी न कभी सुनती है. कई घरों में तो लड़की को घरेलू हिंसा के खिलाफ चुप रहने की सलाह खुद उस घर की महिलाएं ही दे देती हैं.

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ऐसे माहौल में बचपन से ये ही सब देखते हुए जब उन्हीं परिवारों के लड़के भी बड़े होते हैं तो आगे जाकर वह महिलाओं को अपनी बराबरी पर खड़ा नहीं देख पाते और उनकी इज्जत नहीं कर पाते. कुछ कुछ बाध्यकारी हिस्टीरिया रोगी की तरह. बहरहाल समाज में महिलाओं के प्रति सम्मान और रक्षण का भाव एकदम से उत्पन्न नहीं कराया जा सकता. प्रवृत्तियों, अभिवृत्तियों में बदलाव की प्रक्रिया लंबी होती है. अगर कहीं से शुरू करना हो तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो व्यक्ति बचपन से ही अपने घर की महिलाओं को मजबूत स्त्री के तौर पर सम्मानित होते हुए देखेगा वह दूसरी स्त्रियों को भी संभवतः उसी नजर से देखेगा.

पुरुषों की सोच
यहां एक बड़ी समस्या पुरुषों की पारंपरिक सोच की भी है. ज्यादातर मौकों पर वह किसी महिला द्वारा न कहे जाने को स्वीकार नहीं कर पाते. आज के युग में महिलाएं स्वतंत्र सोच के साथ रहना चाहती हैं. संयोग से या प्रयास से आज वे शिक्षित हैं. अपने फैसले भी खुद लेने में सक्षम हैं. अगर वह न कह रही है तो उसे और समझाकर या प्रयत्न करके उसका फैसला नहीं बदला जा सकता. महिलाएं हर स्तर पर ऐसी स्थितियों का सामना करती हैं. अपने काम करने की जगह से लेकर, पारिवारिक समारोह यहां तक की सोशल मीडिया में भी रोज ऐसे ही पुरुषों से सामना हो जाता है जो एक बार मना किए जाने को अंतिम उत्तर के रूप में स्वीकार करने पर राजी नहीं होते. ऐसी स्थितियां ही कई बार आगे बढ़कर वीभत्स रूप ले लेती हैं.

समाज की जवाबदेही तय करने का समय
वैसे समाज एक अमूर्त वस्तु है. फिर भी समाज का एक तबका जो खुद को सभ्य समाज कहता है उससे संवाद की स्थिति जरूर बनती है. कम से कम वे आपस में संवाद की स्थिति में तो हैं ही. अगर हम वाकई महिलाओं की सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्ध होना चाहते हैं तो एक समाज के रूप में हमें अपनी जिम्मेदारी तय करनी पड़ेगी. उन्हें यानी हमें आपस में बात करनी पड़ेंगी कि सिर्फ ‘पिंक’ नाम की एक फिल्म को राष्ट्रीय पुरुस्कार दे देने से और ‘नो मीन्स नो’ के नारे को ट्रेंड करा देने से हम अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सकते.

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अगर महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे अपराध खुलेआम समाज के अंदर रोजमर्रा के कामकाज की जगहों में ही ज्यादा हो रहे हैं तो पहली जरूरत यह दिखती है कि महिलाओं को और ज्यादा साथ और भरोसे की जरूरत है. ताकि महिलाएं मुखर होकर इन घटनाओं को सामने ला सकें और उसके बाद उस लड़ाई को बिना डरे लड़ सकें. आखिर में यह सुझाव बनता है कि इस मामले में कानून व्यवस्था के साथ साथ आमलोगों को भी ज्यादा संवेदनशील बनाने की जरूरत है. खासतौर पर बचपन से लड़कों के सामने परिवार की महिलाओं को जितना सम्मान, स्नेह और रक्षण दिया जाएगा वह उसी नजरिए के साथ बाहर की दुनिया को भी देखेंगे.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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